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डॉक्टर ने बदली तीन सौ गांवों की तस्वीर

भारतीय रेलवे के कर्मचारी देवराव कोल्हे के पुत्र रवींद्र नागपुर मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे। हर किसी को उनके डॉक्टर बनकर अपने गांव शेगाव लौटने का इंतजार था, लेकिन किसे मालूम था कि शहर में अच्छी प्रैक्टिस शुरू करने की बजाय रवींद्र एकदम उल्टी दिशा ही पकड़ लेंगे। वे महात्मा गांधी और विनोबा भावे की किताबों से बहुत प्रभावित थे। पढ़ाई पूरे होते-होते वे निश्चय कर चुके थे कि पैसा कमाने की बजाय वे अपना हुनर जरूरतमंदों की सेवा में लगाएंगे। सवाल था कि काम कहां से शुरू किया जाए? डेविड वर्नर की किताब ‘व्हेयर देयर इज नो डॉक्टर' देखी। कवर पर एक फोटो था, जिसमें चार लोग रोगी को ले जा रहे थे व नीचे लिखा था, ‘अस्पताल 30 मील दूर।'

वे गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों की यात्रा पर निकल गए। उन्होंने पाया कि महाराष्ट्र का गडचिरोली जिला सबसे पिछड़ा इलाका है और वहीं वे काम करेंगे। नक्सली इलाका होने की वजह से उनकी मां ने उन्हें वहां जाने की बजाय मेलघाट जाने को कहा, जो इतना ही पिछड़ा है। इसके बाद वे बैरागढ़ आ गए। यह मेलघाट का छोटा-सा गांव है। अमरावती से शुरू हुई यात्रा हरीसाल पर खत्म हुई और वहां से 40 किमी दूर गांव तक पैदल ही जाना था।

इतनी दूर की जगह यदि किसी डॉक्टर को काम करना हो तो उसे तीन चीजें आनी चाहिए- सोनोग्राफी और ब्लड ट्रान्सफ्यूजन के बिना डिलिवरी, एक्स-रे के बिना न्यूमोनिया का पता लगाना और डायरिया का इलाज। डॉ. कोल्हे मुंबई गए और छह माह की ट्रेनिंग में ये सब सीख लिया। उन दिनों वे सप्ताह में एक दिन धारणी से बैरागढ़ स्थित अपने क्लिनिक जाया करते थे, जिसमें 40 किलोमीटर की पैदल यात्रा शामिल थी। एक दिन उनके पास एक आदमी आया, जिसने 13 दिन पहले विस्फोट में हाथ गंवा दिया था। वे सर्जन तो थे नहीं, वे उसकी मदद नहीं कर पाए। उन्हें अहसास हुआ की एमबीबीएस की डिग्री पर्याप्त नहीं है। उन्होंने 1987 में एमडी करने के लिए बैरागढ़ छोड़ दिया। प्रिपेंटिव व सोशल मेडिसिन में एमडी के दौरान उन्होंने मेलघाट में कुपोषण पर थिसिस लिखी, जिसने दुनिया का ध्यान खींचा और बीबीसी ने मेलघाट पर एक स्टोरी की। अब वे मेलघाट लौटने को तैयार थे, लेकिन उन्हें सहयोगी की जरूरत थी। उन्हें भावी पत्नी की तलाश शुरू की। चार शर्तें थीं- लड़की 40 किमी पैदल चलने को तैयार रहे(बैरागढ़ पहुंचने का रास्ता), 5 रुपए की शादी की तैयारी (कोर्ट मैरिज में लगने वाली फीस), 400 रुपए महीने में घर खर्च चला सके (वे महीने में 1 रुपए लेकर लगभग 400 रोगियों का इलाज करते थे) और वह दूसरों से आर्थिक मदद मांगने को तैयार रहे। अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के कल्याण के लिए। सौ लड़कियों द्वारा ठुकराने के बाद उन्हें नागपुर में जोरदार प्रैक्टिस कर रहीं डॉ. स्मिता मिलीं, जिन्हें उनकी सारी शर्तें मंजूर थीं और 1989 में मेलघाट को दूसरा डॉक्टर मिला।

लेकिन चुनौती अभी बाकी थी। लोग दो साल में डॉ. कोल्हे पर भरोसा करने लगे थे, लेकिन डॉ. स्मिता उन्हें स्वीकार नहीं थीं। एक घटना के बाद उन्होंने भी लोगों का विश्वास जीत लिया। जब वे गर्भवती हुईं तो डॉ. कोल्हे ने खुद उसी तरह डिलिवरी करने का फैसला किया, जैसा वे गांव की अन्य महिलाओं की करते थे, लेकिन डिलिवरी की जटिलताओं के कारण बच्चे को मेनिंनजाइटिस, न्यूमोनिया और सेप्टीसिमिया हो गया। लोग उन्हें अकोला के बेहतर अस्पताल ले जाने की सलाह देने लगे। उन्होंने फैसला पत्नी पर छोड़ दिया, लेकिन स्मिता ने वहीं इलाज कराने का फैसला किया। इसके बाद गांव के लोग उन पर भरोसा करने लगे।

जब बैरागढ़ में स्वास्थ्य संबंधी स्थिति काफी सुधर गई तो गांव के लोग उन्हें पशुपालन व खेती में भी मदद करने को कहने लगे। उन्हें लगता कि इन दोनों के पास उनकी हर समस्या का समाधान है। डॉ. कोल्हे ने अपने एक वेटरिनरी डॉक्टर दोस्त से पशुओं की एनाटॉमी की पढ़ाई शुरू की। फिर पंजाब राव कृषि विद्यापीठ अकोला से कृषि की पढ़ाई शुरू की। इसके बाद उन्होंने फंगस विरोधी बीज की किस्म तैयार की, लेकिन पहली बार उसे आजमाने को कोई तैयार नहीं था, तो डॉक्टर दंपती ने खेती शुरू की। फिर उन्होंने इलाके के गांवों में शिविर लगाकर लोगों को खेती के आधुनिक तरीके, पर्यावरण रक्षा और लाभकारी सरकारी योजनाओं के बारे में बताना शुरू किया। संदेश स्पष्ट था कि विकास के लिए खेती जरूरी है। इसका सबसे ज्यादा असर उनके पुत्र रोहित पर पड़ा, जो किसान हो गया। महाराष्ट्र में सोयाबीन नहीं उगाई जाती थी, इसकी शुरुआत कर उन्होंने किसानों से कहा कि वे मिश्रित खेती कर पहले अपनी जरूरत की सारी चीजें उगाएं। रोहित बताते हैं कि वे उतना ही कमा रहे हैं, जितना कोई आईआईटी से निकला युवा किसी बड़ी कंपनी में कमाता है। कोल्हे परिवार ने पर्यावरण रक्षा पर भी काम शुरू किया। उन्होंने पर्यावरण चक्र का ब्योरा रखना शुरू किया, जो हर चार साल में दोहराता था। अब वे सूखे का पूर्वानुमान लगा सकते थे और गांव वालों को इसके लिए तैयार करते हैं।

उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का काम भी हाथ में ले लिया और सुनिश्चित किया कि बारिश के दिनों में भी हर किसी के पास पर्याप्त अनाज हो। उनके प्रयासों से मेलघाट किसानों के लिए सुसाइड फ्री जोन (आत्महत्या रहित क्षेत्र) बन गया। एक बार महाराष्ट्र के लोक निर्माण विभाग के मंत्री उनसे मिलने आए और वे जिस हालत में रह रहे थे, उसे देख धक्क रह गए। उन्होंने उनके लिए पक्का मकान बनाने की पेशकश रखी। डॉ. कोल्हे ने कहा कि इसकी बजाय वे अच्छी सड़कें बना दें और मंत्री ने अपना वादा निभाया। आज क्षेत्र के 70 फीसदी गांव सड़कों से जुड़े हैं।

 

मेलघाट महाराष्ट्र का सबसे पिछड़ा इलाका समझा जाता है। यहां के 300 गांवों में 350 एनजीओ काम करते हैं, लेकिन वे सब सिर्फ सरकार द्वारा मुफ्त दी जाने वाली चीजों के वितरण का काम करते हैं, जबकि कोल्हे दंपती गांवों को आत्म-निर्भर बनाना चाहते थे। उनका संघर्ष रंग लाया। मेलघाट में अच्छी सड़कें हैं और 12 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। डॉ. कोल्हे अब फीस नहीं लेते और रोगी को सरकारी अस्पताल ले जाकर यह देखते हैं कि उसे सर्वश्रेष्ठ इलाज मिले। गांव में अब भी सर्जन नहीं है। डॉ. कोल्हे के छोटे पुत्र राम एबीबीएस कर रहे हैं और सर्जन बनकर पिता के कदमों पर आगे बढ़ना चाहते हैं।
डॉ. कोल्हे न तो किसी को अपने काम में जोड़ते हैं और न सरकारी मदद लेते हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति शुरू मंें अच्छा काम करता है, लेकिन फिर किसी दूसरे के उद्‌देश्य के लिए काम करना निराशा पैदा करता है। हर व्यक्ति को अपना काम चुनना चाहिए ताकि उत्साह से काम करता रह सके। किसी प्रोजेक्ट तक काम सीमित न हो जाए इस भय से वे सरकारी मदद नहीं लेते। पहले वे अवॉर्ड भी नहीं लेते थे, लेकिन एक घटना ने उनका मन बदला। उनके परिवार में कोई डॉक्टर नहीं था। परिवार साधारण था। जब उन्होंने सेवाकार्य चुना तो लोग पिताजी को ताना मारते थे। एक बार अवॉर्ड की खबर के साथ अखबार में मेरा फोटो छपा। पिताजी ने उन्हें फोन किया कि खबर देखकर मुझे तुम पर गर्व होता है। अब वे पिता को बार-बार गर्व की अनुभूति देने के लिए अवॉर्ड स्वीकार कर लेते हैं।