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तरक्की तो अपने दम पर ही होगी- यशवंत सिन्हा

स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक समय ऐसा भी था, जब सोवियत संघ के साथ भारत की प्रगाढ़ मैत्री तथा देश में वामपंथियों के बोलबाले के चलते सोवियत संघ के खिलाफ सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहना घोर अपराध माना जाता था। मैं संसद में 1988 में आया और मुझे आश्चर्य हुआ जब संसद में भी सोवियत संघ के खिलाफ बोलने पर वामपंथी सदस्यों तथा अन्य दलों के उनके समान विचारधर्मियों द्वारा गंभीर आपत्ति दर्ज की जाती थी और कुछ भी कहने की इजाजत नहीं मिलती थी। जब तक 1990-91 में सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ, तब तक यह सिलसिला चलता रहा। इस बीच में अमेरिका को कोसने की पूरी स्वतंत्रता थी। 25 वर्षों में स्थिति पूर्णरूपेण बदल गई है। ऐसा लगता है जैसे पूरा देश आज अमेरिकामय हो गया है और अमेरिका की कृपा के बिना भारत का विकास संभव नहीं है। अमेरिका के बारे में कुछ भी शिकायत करने पर देश में बड़ा तबका उसके पक्ष में खड़ा हो जाता है और शिकायतकर्ता की मंशा पर ही संदेह दिखाने लगता है। रूस अब बहुत पीछे छूट चुका है और उसकी नीति में इतना परिवर्तन आ चुका है कि सीमित तौर पर ही सही वह पाकिस्तान की सैन्य मदद करने लगा है तथा सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के बारे में उसके विचार अब इतने स्पष्ट नहीं हैं।

दुनियाभर के किसी भी देश की विदेश नीति में देश की सुरक्षा तथा उसके हितों की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। आकार व शक्ति की परवाह किए बगैर देश एक-दूसरे के साथ सम्प्रभुता व बराबरी के आधार पर रिश्ते रखते हैं। राष्ट्रसंघ में सुरक्षा परिषद को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर देश का एक वोट होता है। व्यावहारिक स्तर पर इसका कितना अनुपालन होता है, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अत: जब अमेरिका का फौजी दस्ता पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारता है तो पाकिस्तान खामोश रहता है पर भारत की ओर से ऐसा संकेत भी जाता है कि पाकिस्तान में आतंकी छिपने पर भारत भी ऐसी कार्रवाई कर सकता है तो पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष भारत को परमाणु युद्ध की चेतावनी तक दे देते हैं। अमेरिका अफगानिस्तान में, ईरान में या अन्य देशों में घुसकर सैन्य कार्रवाई कर वहां की सरकारें बदल सकता है। दुनिया के और किसी देश को यह अनुमति नहीं है। संयुक्त राष्ट्र धीरे-धीरे अपनी सार्थकता खोता जा रहा है तथा समस्त विश्व बहुध्रुवीय से बदलकर एकध्रुवीय हो गया है। जहां तक भारत-अमेरिका के अच्छे संबंधों का प्रश्न है, उसमें आज तक अमेरिका ने भारत की परवाह किए बगैर अपने तथाकथित राष्ट्रीय हितों का ही ध्यान रखा है। मुख्य रूप से निम्नलिखित मुद्‌दे भविष्य में भी भारत-अमेरिका द्विपक्षीय रिश्तों को परिभाषित करते रहेंगे। परमाणु समझौता, जलवायु परिवर्तन, बौद्धिक संपदा अधिकार, विश्व व्यापार संगठन में उठ रहे प्रश्न, भारत को हाईटेक निर्यात पर प्रतिबंध, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता, पाकिस्तान के बारे में अमेरिका का दृष्टिकोण।

भारत-अमेरिका के रिश्तों में भारी असमानता है। भारत और भारतीय इसको स्वीकार करते हैं और उन्होंने इसके साथ जीना सीख लिया है। मुझे एक घटना याद आती है। मैं विदेश मंत्री था तथा अफ्रीका के एक महत्वपूर्ण देश के राष्ट्रपति भारत आए थे। वे राष्ट्रपति भवन में ठहरे थे। परंपरा के अनुसार जब वे गांधी समाधि पर श्रद्धांजलि देकर राष्ट्रपति भवन लौटे तो मैं उनसे मिलने गया। लंबी और सार्थक बातचीत हुई। जब मैं साउथ ब्लॉक स्थित अपने कार्यालय में लौटा तो मैंने पाया कि इमारत के प्रवेश द्वार पर भारी संख्या में टीवी मीडिया के लोग कैमरे सहित उपस्थित थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि भारतीय मीडिया को अफ्रीका में इतनी रुचि है। मैं सोच ही रहा था कि उनके सवालों का मैं क्या उत्तर दूंगा, उतने में मैं उनके पास पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछा, मुझे रास्ता दिया और मैं उनके बीच से होता हुआ इमारत में पहुंच गया। फिर मैंने अपने सहयोगी से पूछा कि मीडिया की इतनी भीड़ क्यों जमा है तो उन्होंने बताया कि अमेरिका की एक सहायक विदेश सचिव विदेश विभाग के संयुक्त सचिव से मिलने आ रही हैं और उन्हीं का फोटो खींचने के लिए मीडिया की भीड़ इकट्‌ठी है। उस दिन का अनुभव मैं जिंदगीभर नहीं भुलूंगा। गोरांग महाप्रभु के सामने दंडवत होना हमारी पुरानी आदत है। वह काला भी हुअा तो फर्क नहीं पड़ा।

मैंने जितने मुद्‌दे ऊपर गिनाए हैं, उन सब पर अमेरिका ने भारत को दबाने का पूरा प्रयास किया है। उसने दिखा दिया है कि अपने हितों की रक्षा के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पाकिस्तान की सीमा पार से आतंक है। अमेरिका अच्छी तरह से जानता और समझता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का केंद्र है। वह आतंकवादियों को पोसता है, उनके प्रशिक्षण केंद्र चलाता है, फिर उन्हें पैसे व हथियार देता है तथा अंत में उन्हें जेहाद का मंत्र पढ़ाकर भारत तथा अफगानिस्तान भेजता है और उनसे आतंकी हमले कराए जाते हैं। 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका ने पाकिस्तान को काफी दबाया और आज भी दबा रहा है, लेकिन भारत के मामले में अमेरिका ने बहुत कम रुचि ली है। ऐसा लगता है कि वह इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका है कि पाकिस्तान थोड़ा बहुत तो आतंक फैलाएगा ही, लेकिन इसका असर अफगानिस्तान पर नहीं पड़ना चाहिए। अगर भारत पर थोड़े बहुत आतंकी हमले होते हैं तो भारत को इसे बर्दाश्त कर लेना चाहिए।

अफगानिस्तान में भारत की भूमिका का पाकिस्तान लगातार विरोध करता आ रहा है। उसने अफगानिस्तान में स्थित भारतीय दूतावास तथा अन्य ठिकानों पर आतंकवादी हमले भी कराए हैं। इन पर भी अमेरिका का रुख जितना कड़ा होना चाहिए, उतना नहीं है। तीन-चार दिन पहले न्यूयॉर्क में अफगानिस्तान के मित्र देशों की बैठक हुई थी, जिसकी अध्यक्षता संयुक्त रूप से अमेरिका व चीन ने की थी तथा भाग लेने वाले देशों में पाकिस्तान, तुर्की, इटली, सऊदी अरब, ईरान, ऑस्ट्रेलिया, कजाकिस्तान, नार्वे तथा यूरोपीय संघ के विदेश मंत्री शामिल थे। इस बैठक में भारत को नहीं बुलाया गया। यह प्रकरण अमेरिका और अफगानिस्तान दोनों की मंशा पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है और भारत के लिए चिंता का विषय है। आज देश में पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार है, जिसका नेतृत्व एक शक्तिसंपन्न प्रधानमंत्री कर रहे हैं। मैं आशा करता हूं कि यह सरकार इन सब मामलों में भारत के हितों का ध्यान रखेगी और मजबूती के साथ उनकी रक्षा करेगी।

 

एक बात और, अभी तक देश ने आर्थिक क्षेत्र में जो कुछ हासिल किया है उसके पीछे मुख्य रूप से देश की पूंजी, घरेलू मांग तथा हमारे मेहनतकशों का श्रम रहा है। यही आगे भी होगा। विदेशी पूंजी और विदेशी ज्ञान का सीमित स्थान अवश्य है पर उसी को केंद्र बिंदु मान लेना भूल होगी।
यशवंत सिन्हा
पूर्व केंद्रीय मंत्री