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तलाक से आगे जहां और भी है-- नासिरुद्दीन

मैं भारतीय हूं. मैं मुसलमान हूं. मैं भारतीय मुसलमान स्त्री हूं. पिछले कुछ महीनों से मेरी जिंदगी के बारे में खूब बात हो रही है. मेरे जेहन में भी कई सवाल उठते रहे हैं. बात, जिंदगी के बारे में होती और बहस की सुई तलाक-तलाक-तलाक और निजी कानून पर जाकर अटक जाती है. क्या मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मसला यही है? मेरी जिंदगी, शादी के पहले भी है, शादी के बाद भी और शादी के बिना भी. तलाक के बाद भी रहेगी. तो फिर मेरी इन जिंदगियों के मसलों के बारे में भी खुल कर क्यों बात नहीं की जाती है?

मैं इस मुल्क की शहरी हूं. यानी इस मुल्क का संविधान मेरे लिए भी है. वह जिन हकों की बात करता है, वह मेरे लिए भी होंगे. हां, मैं मुसलमान हूं, संविधान इस नाते भी मेरा कुछ ख्याल रखता होगा. मगर मैं स्त्री भी हूं- संविधान इस बिना पर मेरे साथ गैर-बराबरी की भी तो बात नहीं ही करता है. है न!

भारत में मुसलमानों की कुल आबादी करीब सवा 17 करोड़ है. यानी देश में 14.2 फीसदी मुसलमान हैं. आम समझ तो यही कहती है कि कुदरत के मुताबिक इसमें आधे पुरुष होंगे और आधी स्त्रियां होंगी. तभी तो हमें आधी आबादी कहते हैं. लेकिन, हम पुरुषों से ढाई फीसदी कम हैं! ढाई फीसदी का मतलब है कि 43 लाख 2 हजार 732 मुसलमान स्त्रियां, मुसलमान पुरुषों के मुकाबले कम हैं.

एक और नंबर देखिए. छह साल तक के मुसलमान बच्चे-बच्चियों की कुल आबादी में से लगभग तीन फीसदी लड़कियां यानी आठ लाख 30 हजार लड़कियां एक दशक में कम हो गयी हैं. पूरे मुल्क में छह साल तक की उम्र के प्रति हजार मुसलमान लड़कों के मुकाबले 943 लड़कियां हैं. 2001 में यह तादाद 950 थी. यानी हम लड़कियां घट रही हैं. यह तादाद अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. मसलन, जम्मू-कश्मीर में 871, तो उत्तर प्रदेश में 933 है.

अगर कुदरत की वजह से लड़कियां कम नहीं हैं, तो हम बेटियां कहां गायब हो गयीं? मतलब साफ है, हम मुसलमान बेटियां अपने घरों में अनचाही हैं. संविधान कहता है, मेरे साथ सिर्फ इसलिए फर्क नहीं किया जायेगा, क्योंकि मैं स्त्री हूं. तो फिर इस फर्क पर शोर क्यों नहीं मचता? आखिर हम बेटियों का वजूद खतरे में पड़ने से हमारा मजहब खतरे में क्यों नहीं पड़ता?

अगर हम जी गयीं, न चाहते हुए भी बड़ी हो गयीं, तो हमारा भी मन करता है कि हम पढ़े-लिखें. लेकिन, हमें तो पढ़ने भी नहीं दिया जाता. वैसे ही मुसलमानों में साक्षर लोगों की तादाद सबसे कम (68.5 फीसदी) है. साक्षर यानी जो नाम लिख लेते हैं. लेकिन, यहां भी पुरुष हमसे आगे हैं.

देशभर में मुसलमान पुरुषों की 75 फीसदी आबादी साक्षर है, तो हमारी तादाद सिर्फ 62 फीसदी है. 13 फीसदी का फर्क क्यों है? हम लड़कियां बिहार में 48.4 फीसदी, झारखंड में 56.4 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 50.5 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 64.8 फीसदी ही साक्षर हैं. यानी पूरे देश में जो मुसलमान लड़कियां पढ़-लिख नहीं सकतीं, उनकी तादाद लगभग चार करोड़ चालीस लाख है. पूरे मुल्क में हम सिर्फ साढ़े दस फीसदी मुसलमान लड़कियां ही मैट्रिक कर पायी हैं. सिर्फ साढ़े सात फीसदी ही इंटर हैं और ग्रेजुएट महज चार फीसदी. जरा सोचिए कि 21वीं सदी में हम कैसा समाजी निजाम कायम करना चाहते हैं?

हम काम करना चाहते हैं, लेकिन हमारे लिए काम कहां है. आंकड़े बता रहे हैं कि लगभग 15 फीसदी हम मुसलमान महिलाएं ही किसी न किसी तरह के काम में लगी हुई हैं. और हमारी बड़ी तादाद दिहाड़ी काम में लगी हुई है, यह बताने की जरूरत नहीं है. हम बताना चाहती हैं कि 64 लाख मुसलमान महिलाएं काम करने की ख्वाहिश रखती हैं, पर उनके पास कोई काम नहीं है. क्या यह हमारी जिंदगी का मुद्दा नहीं है?

हमारी जिंदगी पर हमारा दखल नहीं है. हम अपने फैसले खुद नहीं ले सकती हैं. इसीलिए हममें से साढ़े तीन करोड़ महिलाओं की शादी 21 साल से कम में ही कर दी गयी. आज भी ऐसी शादियां हो रही हैं. 2011 में हम में से लगभग पौने तीन लाख ऐसी मुसलमान लड़कियां शादीशुदा हैं, जिनकी उम्र 10 से 14 साल के बीच है. कानूनी रूप से ऐसा करना जुर्म है. फिर भी यह जुर्म हमारे साथ हो रहा है. 2011 में 21 लाख से ज्यादा हम मुसलमान स्त्रियां तलाकशुदा की जिंदगी गुजार रही हैं. इनमें 14 साल की तलाकशुदा लड़कियां भी हैं.

वैसे तो हर लड़की के लिए सुरक्षा एक अहम मुद्दा है. मगर, हम मुसलमान लड़कियों के बारे में जरा अलग से गौर करना जरूरी है. दंगे-फसाद हमारी जिंदगी के साथ चस्पां हो गये हैं.

दंगों में हमारे साथ यौन हिंसा आम है. हमारे आने-जाने पर पाबंदी लगा दी जाती है. हमारी पढ़ाई छुड़वा दी जाती है. कम उम्र में शादी कर दी जाती है. हमें हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है. जब न तब, पुलिस हमारे घर के मर्दों को पकड़ कर ले जाती है. बाप-भाई-पति-बेटा अगर मारा गया या पकड़ा गया, तो उसके असर को भी हम महिलाओं को ही सबसे ज्यादा झेलना पड़ता है. कहीं कुछ होता है, तो हम खौफ में जीते हैं. मगर संविधान ने तो हर नागरिक को बेखौफ जिंदगी जीने की गारंटी दी है, फिर यह खौफ क्यों है?

हमने सुना है कि सच्चर आयोग ने मुसलमानों के हालात को बेहतर बनाने के लिए कई सिफारिशें की हैं. सुना है, वे लागू भी हो रही हैं. मगर, ज्यादातर मुसलमानों और खासतौर पर मुसलिम महिलाओं की जिंदगी में तो बहुत बदलाव दिख नहीं रहा है.

हमारा मसला सिर्फ निजी कानून नहीं है. हम बराबरी और इंसाफ पर आधारित नागरिक होने का हक चाहते हैं.

शादी और तलाक के पीछे-आगे भी जहां है. हम उस जहां का लुत्फ लेना चाहते हैं. हम भी इंसान हैं. हमारे पास अक्ल और हुनर है. हमें बराबरी से जीने का मौका, बराबरी से पढ़ने का मौका, बराबरी से बेखौफ अपनी जिंदगी के बारे में फैसला लेने का मौका चाहिए. शायद संविधान और इसलाम दोनों की रूह यही है. इस रूह को बरकरार रखने के लिए भी हंगामा बरपा क्यों नहीं होता?

(सभी आंकड़े 2011 की जनगणना से हैं.)