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तलाश सत्ता और सच में भिड़ंत की- योगेन्द्र यादव

अब आप से क्या छुपाना। मैंने कल तक मेरिल स्ट्रीप का नाम नहीं सुना था। मैं नहीं जानता था कि मेरिल स्ट्रीप हॉलीवुड की कितनी प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं, उन्हें कितने अवार्ड मिल चुके हैं। मैं अंग्रेजी फिल्म ज्यादा नहीं देखता हूँ। अब कामचलाऊ अंग्रेजी लिख-बोल जरूर लेता हूँ। लेकिन दुःख-सुख,प्यार और रंज में अंग्रेजी साथ छोड़ देती है। इसलिए कविता, कहानी और फिल्म का रसस्वादन अमूमन हिंदी में या हिंदी अनुवाद के जरिये ही कर पाता हूँ।


इसलिए मेरिल स्ट्रीप से मेरी मुलाक़ात कल ही हो पायी। फिल्म के जरिये नहीं बल्कि छह मिनट के उनके भाषण के विडियो से। 'गोल्डन ग्लोब' में उन्हें आजीवन उपलब्धि पुरस्कार (लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड) के लिए बुलाया गया था। पुरस्कार लेते वक्त सिर्फ "थैंक यू" कहने की बजाय इस हिम्मती औरत ने अमरीका में जो कुछ घट रहा है उसपर टिपण्णी करनी शुरू कर दी। दर्शक स्तब्ध थे, सम्मोहित भी थे। उसके कथन में राजनितिक नारे नहीं थे, गाली-गलौज या आरोप भी नहीं। लेकिन इशारा साफ़ था, निशाने पर ट्रम्प और अमरीका की नयी अपसंस्कृति थी। प्रहार इतना तगड़ा था कि अगले दिन राष्ट्रपति ट्रम्प को अपने स्तर पर उतर कर जवाब देना पड़ा। पिछले कुछ दिन से उनका यह विडियो पूरी दुनिया में चल निकला है। मेरे फेसबुक पेज़ पर भी यह भाषण 12 घंटे में एक लाख से ज्यादा लोगो तक पंहुच गया।


मैं अमरीकी राजनीती का कोई दीवाना नहीं हूँ। मैं तो सिर्फ ये देख रहा था कि उस देश की एक अभिनेत्री अपने देश के सबसे ताकतवर कुर्सीधारी आदमी के बारे में किस हिम्मत से बोल सकती है। मुझे ट्रम्प और स्ट्रीप की भिड़ंत में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। मुझे तो सिर्फ सत्ता और सच की भिड़ंत में दिलचस्पी है। ताज किसके सर पर रखा है, मुझे उससे मतलब नहीं। मुझे उस गूँज से मतलब है तो ताज उछाल सकती है, उस आवाज़ से मतलब है तो तख़्त हिला सकती है। मेरे आँख और कान अमरीका का भाषण देख-सुन रहे थे। मेरा मन बार-बार भारत में ऐसी आवाज़ों को तलाश रहा था।


मुझे बेला भाटिया और नंदिनी सुन्दर की आवाज़ सुन रही थी। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में अब कई साल से भारत और राज्य सरकार ने मिलकर लोकतंत्र की छुट्टी की हुई है। हथियारबंद नक्सलियों के साथ-साथ अहिंसक आंदोलकारियों को कुचला जा रहा है, बड़ी पार्टियां मिली हुई है और मीडिया का मुंह बंद है, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की खैर नहीं है। इस माहौल में इन दोनों महिलाओं ने हर जोखिम उठाते हुए बस्तर का सच देश तक पंहुचाने का साहस किया है। शांतिप्रिय बेला भाटिया को नक्सली घोषित कर दिया गया है, दिल्ली विश्विद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुन्दर के विरुद्ध संगीन अपराध के मुक़दमे लाद दिए गए हैं। वो फिर भी बोल रही हैं। लेकिन क्या हम उन्हें सुन रहे हैं?


आवाज़ काँप रही है, लेकिन स्ट्रीप बोल रही हैं। डोनल्ड ट्रम्प का नाम लिए बिना एक इशारा करती हैं। ट्रम्प ने अपने एक भाषण में एक विकलांग पत्रकार की नक़ल उतारते हुए उसकी शारीरिक अक्षमता का मखौल उड़ाया था। उस वाकये का जिक्र करते हुए स्ट्रीप कहती हैं ये बात उनके दिल में बरछी के तरह चुभ गयी कि देश के सर्वोच्च पद का दावेदार एक ऐसे व्यक्ति को अपमानित कर रहा था जो उससे पैसे, ताकत और सामर्थ्य में बहुत कमतर था। जब सत्ताधारी अपनी सत्ता के बल पर किसी कमजोर को अपमानित करते हैं तो पूरे समाज में धौंसपट्टी का संस्कार फैलता है।


मेरी आँखों के सामने कई तस्वीर तैरने लगती हैं। दिल्ली में 1984 में सिखों का कत्लेआम होता है। देश का प्रधानमंत्री कहता है कि जब बड़ा पेड़ उखड़ेगा तो जमीन तो हिलेगी। गुजरात में 2002 के दंगो के बाद प्रदेश का मुख्यमंत्री कहता है कि दंगापीड़ित राहत कैंप में बिरयानी खा रहे हैं। हम सब के हाथ पर खून के छींटे लगते हैं। लेकिन देश के कुछ जाने-माने लोग सिख कत्लेआम के दोषियों की शिनाख्त करते हैं। गुजरात से आकर हर्ष मंदर लिखते हैं कि अब "सारे जहाँ से अच्छा..." नहीं गा पाऊंगा। लेकिन क्या हम उन्हें याद करते हैं? देश में अभिव्यक्ति पर पहरे के खिलाफ प्रो. गणेश देवी के नेतृत्व में भारतीय भाषाओँ के सैंकड़ों लेखक 'दक्षिणायन' का अभियान शुरू कर चुके हैं। क्या हम इसके बारे में जानते भी हैं?


स्ट्रीप प्रेस की आज़ादी की बात कर रही हैं। मेरे सामने टीवी का काला पर्दा है। उसके पीछे से आती रवीश कुमार की आवाज़ है, "यह अँधेरा पर्दा ही आज मीडिया की सच्ची तस्वीर है"। मेरे सामने इस साल रामनाथ गोयनका पुरूस्कार समारोह में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा का छोटा सा वक्तव्य है। राष्ट्रध्वज की आड़ में हो रही सेल्फ़ी पत्रकारिता को आड़े हाथ लेते हुए संपादक ने कहा कि अगर सरकार किसी पत्रकार की आलोचना करती है तो यह तो सम्मान का तगमा है। उसी समारोह में एक और पत्रकार अक्षय मुकुल ने प्रधानमंत्री के हाथ से अवार्ड लेने से इनकार कर दिया। मुझे बचपन में पढ़ी कहानी याद आती है। जब विश्वविजेता सिकंदर ने एक साधु से पूछा "तुम्हे क्या चाहिए" तो साधु बोला "मेरी धूप मत रोको, साइड में हो जाओ" राजा और साधु के इस किस्से को कितने लोगो ने याद किया?


स्ट्रीप की भाषा संयत है, नम्र है, लेकिन कमजोर नहीं है। मेरे कान में प्रशांत भूषण की आवाज़ गूँज रही है। प्रशांतजी सुप्रीम कोर्ट में हैं, सामने देश के भावी चीफ जस्टिस खेहड़ हैं। मामला बिड़ला-सहारा कागज़ों में प्रधानमंत्री सहित देश की तमाम पार्टियों के बड़े नेताओं पर पैसा लेने के आरोप की जांच का है। प्रशांतजी मन से जस्टिस खेहड़ की इज़्ज़त करते हैं। लेकिन खुले कोर्ट में, संयत स्वर में, नम्रता हैं: "न्यायमूर्ति, मुझे आपकी निष्पक्षता पर कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस अदालत का एक अफसर होने के नाते मेरी जिम्मेवारी है कि एक अप्रिय बात आपके सामने रखूँ। जब आपकी अपनी प्रोमोशन की फाइल प्रधानमंत्री के कार्यालय में पड़ी है, उस वक़्त आपका इस केस का फैसला करने में जल्दबाजी करना जनता में गलत सन्देश देगा।" खचाखच भरी अदालत में कुछ वैसा ही सन्नाटा रहा होगा जैसा मेरिल स्ट्रीप के अप्रिय प्रसंग उठाने से हुआ होगा। मैंने प्रशांतजी को सलाम किया। आपने भी किया?


हॉल में तालियां बज रही थीं। कई आँखे नम थीं, मेरी भी। आँख में आंसू थे, लेकिन छाती चौड़ी हो रही थी। ये मजबूरी नहीं मजबूती के आंसू थे।