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ताकि न आए 'नि:शब्द' होने की नौबत - गिरजाशंकर

प्रदेश के किसान अभी जिस बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं, उन्हें उस हाल में पहुंचाने के लिये सूखा ही जिम्मेदार नहीं। इसमें सरकारी तंत्र की नाकामियों की भी बड़ी भूमिका है। यह तथ्य हाल ही में उच्चाधिकारियों के गांव दौरे के उस अनुभव से जाहिर होता है, जिससे स्वयं मुख्यमंत्री रूबरू हुए। किसान इतने परेशान हैं कि लगभग हर दिन प्रदेश के किसी न किसी इलाके से किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आ रही है। महाराष्ट्र सहित कुछ अन्य राज्यों में यह सिलसिला एक दशक से जारी है, पर मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का ऐसा ट्रेंड पहले नहीं रहा। तीन साल से किसान प्राकृतिक आपदा के शिकार हो रहे हैं, लेकिन सरकारी तंत्र की नाकामी इस दफे इसलिए उजागर हुई, क्योंकि पहली बार मुख्यमंत्री ने हर ब्लॉक में हालात का जायजा लेने की जिम्मेदारी डेढ़ सौ अफसरों को सौंपी।

जिस राज्य को सर्वाधिक उत्पादकता के लिए लगातार तीन वर्ष तक कृषि कर्मण अवार्ड मिले, जिस राज्य में कृषि की विकास दर पिछले 5 सालों से दो अंकों में रहते हुए देश में सर्वाधिक हो, वहां यदि प्राकृतिक आपदा के चलते लाखों किसानों को दाने-दाने के लिए मोहताज होना पड़े और आत्महत्या तक की नौबत आ जाए तो यह विरोधाभास सरकार के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए। आज यदि मुख्यमंत्री को यह कहना पड़ रहा है कि खेती पर किसानों की निर्भरता को कम करना होगा तथा किसानों के वैकल्पिक आय की व्यवस्था करनी होगी तो इसका अर्थ यह निकलता है कि सरकारी तंत्र ने किसानों के हित में पर्याप्त संवेदनशीलता से काम नहीं किया। अब प्रदेश की खेती-किसानी और किसानों को लेकर दीर्घकालीन योजनाएं बनाने पर व्यापक विमर्श चल रहा है तो क्या यह मानना उचित नहीं होगा कि किसानों के हित में अब तक तात्कलिकता वाले फैसले ही लिए गए थे?

इसमें शक नहीं कि कृषि विकास के आंकड़ों को अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हुए भी किसानों के हित में सरकार द्वारा अनुदान, माफी और कर्ज आधारित कदम उठाए गए। यदि इन पर ठीक ढंग से अमल हुआ होता तो दीर्घकालीन उपायों के अभाव में भी किसानों की ऐसी हालत नहीं होती कि प्राकृतिक आपदा के चलते उसे मौत को गले लगाने विवश होना पड़े। जाहिर है किसानों के हित में ठोस काम करने के बजाय उत्सवधर्मिता ही होती रही। आज किसानों को फसल चक्र के प्रति जागरूक व प्रशिक्षित करने की बात हो रही है। पर करोड़ों खर्च कर जब हर जिले में कृषि महोत्सव मनाया गया व सैकड़ों किसान रथ चलाए गए, तब यह क्यों नहीं किया गया? लेकिन किसानों के हित में तदर्थ कार्यक्रम बने और अमल भी आधा-अधूरा हुआ।

मुख्यमंत्री ने किसानों से मन की बात करते हुए तथा विशेषज्ञों के साथ विमर्श में किसानों के हित में अवरोध बनने वाली सूक्ष्म बाधाओं का उल्लेख किया, जिसमें साहूकारों व बटाई पर होने वाली खेती का मसला शामिल था। कृषि जोतों के छोटा होने से उनके अलाभप्रद होने की समस्या भी उन्होंने उठाई। इसका मतलब वे खेती-किसानी के मर्म को समझते हैं। लेकिन तात्कालिकता के दबाव के साथ कुछ दीर्घकालीन योजनाएं भी मूर्त रूप लेतीं तो हालात कुछ और होते। फसल बीमा योजना व उर्वरक की कीमतों जैसे मुद्दे सरकार लंबे समय से उठाती रही है, जो खेती को लाभ का धंधा बनाने में बड़ी बाधा रही है। राज्य के साथ ही केंद्र में भी भाजपा सरकार बन जाने से इन मुद्दों का शीघ्र समाधान हो जाना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दरअसल खेती को लेकर दीर्घकालीन योजनाएं बनाने में केंद्र की भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सवाल केवल मध्य प्रदेश का नहीं पूरे देश का है अन्यथा पंजाब जैसे कृषिप्रधान विकसित प्रदेश में भी किसानों की आत्महत्या की घटनाएं सामने नहीं आतीं।

फसल बरबादी के इस दौर में 44 लाख किसान प्रभावित हैं, जिनमें से ढाई लाख आयकरदाताओं को छोड़ शेष सभी राहत-मुआवजे के पात्र हैं। सर्वे, अध्ययन, विमर्श व दीर्घकालीन योजनाओं की तैयारी के पहले किसानों को तात्कालिक राहत पहुंचाना आज समय की मांग है। जहां तक खेती पर से बोझ कम कर किसानों को अन्य धंधों में लगाने का सवाल है तो यह ध्यान रखना होगा कि कई सालों में किसान खेती से अलग होते रहे हैं। जनगणना के ताजा आंकड़ों से भी स्पष्ट होता है कि बड़ी संख्या में किसानों ने खेती छोड़कर अन्यत्र काम अपनाया है या खेत मजदूर बन गए हैं। खेती के विकास के लिए काम कर रहे शिक्षण व शोध संस्थानों की कृषि की बदहाली रोकने में क्या भूमिका अब तक रही है और क्या हो सकती है, इस पर विचार किया जाना चाहिए।

यदि इन संस्थानों का जमीनी वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं है तो उन्हें समाप्त किया जाए। दूसरा कृषि एवं संबंधित विभागों को अतिरिक्त संवेदनशील व भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की जरूरत है क्योंकि उनका वास्ता विपन्न, कमजोर, भोले-भाले किसानों से पड़ता है न कि धन्नासेठों से।