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ताकि हर बच्चे को मिले अच्छी शिक्षा-- हरिवंश चतुर्वेदी

संख्या के आधार पर देखा जाए, तो दुनिया में भारत की स्कूली शिक्षा-व्यवस्था चीन के बाद दूसरे स्थान पर होगी। देश के15 लाख स्कूलों में 26 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। इन 15 लाख स्कूलों में 11 लाख सरकारी और चार लाख प्राइवेट स्कूल हैं।

प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों की संख्या 85 लाख है, जिनमें से 47 लाख अध्यापक सरकारी स्कूलों में कार्यरत हैं। हर वर्ष सालाना परीक्षाओं में जब करोड़ों बच्चे परीक्षा देते हैं और उनके परीक्षाफल घोषित होते हैं, तो ऐसे तथ्य उभरकर आते हैं, जो बताते हैं कि हमारी स्कूली शिक्षा संख्यात्मक रूप से कितनी भी आगे बढ़ रही हो, पर गुणात्मक रूप से उसमें सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। हाल में बिहार की 12वीं की बोर्ड परीक्षा में जो कुछ हुआ, उससे वहां की स्कूली शिक्षा की हालत का जायजा लिया जा सकता है। इसी राज्य में जब प्राइमरी स्कूलों के तदर्थ शिक्षकों की नौकरी नियमित करने के लिए परीक्षा ली गई, तो शिक्षक भी बेशर्मी से नकल करते पाए गए। स्कूली शिक्षा की दुर्दशा सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है, कम या ज्यादा सब जगह यही हाल है।

पिछले महीने सुब्रमण्यम समिति ने जिस नई शिक्षा नीति का मसौदा पेश किया, उसमें स्कूली शिक्षा के ऐतिहासिक विकास, वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं पर काफी विस्तार से ब्योरे दिए गए हैं। अभी इस मसौदे के प्रस्तावों पर राज्य सरकारों की राय ली जा रही है, क्योंकि स्कूली शिक्षा पर ज्यादातर नियंत्रण राज्य सरकारों का ही है। आजादी के बाद शिक्षा नीति दो बार 1968 और 1986/1992 में घोषित की गई थी। स्कूली शिक्षा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानून 2009 में संसद द्वारा पारित किया गया, जिसे शिक्षा का अधिकार अधिनियम के नाम से जाना जाता है।

इस कानून के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को यह वैधानिक जिम्मेदारी दी गई कि छह से14 वर्ष की आयु के हर बच्चे को प्रारंभिक शिक्षा औपचारिक रूप से किसी ऐसे स्कूल में दी जाए, जहां सभी न्यूनतम मानक पूरे होते हों। इसी कानून के तहत हर निजी स्कूल में 25 प्रतिशत सीटें आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित की गई हैं। हालांकि ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों में इसका पालन ठीक तरह से नहीं किया गया।

सुब्रमण्यम समिति द्वारा बनाई गई नई शिक्षा नीति से क्या देश की स्कूली शिक्षा की सारी समस्याएं कुछ ही समय में खत्म हो जाएंगी? इस बात पर बहस जरूरी है कि संविधान में छह से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा देने की गारंटी को देश अभी तक क्यों पूरा नहीं कर पाया? क्यों आज भी तीन करोड़ बच्चे प्रारंभिक शिक्षा से वंचित हैं? लाखों सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में आज भी बुनियादी सुविधाएं, जैसे भवन, फर्नीचर, शिक्षक, शौचालय, किताबें उपलब्ध नहीं हैं। क्या नई शिक्षा नीति में इनके लिए समुचित वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था की गई है? क्या स्कूली शिक्षकों की भर्ती व प्रशिक्षण के बारे में कोई मौलिक विचार दिया गया है?

सुब्रमण्यम समिति का सबसे ज्यादा चर्चित सुझाव शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में लागू किए गए आठवीं कक्षा तक किसी भी विद्यार्थी को फेल न करने के प्रावधान को बदलकर पांचवीं कक्षा तक सीमित करना है। समिति ने छठी से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई में कमजोर बच्चों को सुधारात्मक कोचिंग देने और परीक्षा पास करने के दो अतिरिक्त अवसर देने का सुझाव दिया है। निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत स्थान गरीब वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करने के प्रावधान का सुब्रमण्यम समिति ने पुरजोर समर्थन किया है और उसे अल्पसंख्यक वर्ग के स्कूलों में भी लागू करने का सुझाव दिया है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में स्कूली शिक्षा की क्वालिटी सुधारने के वास्ते प्राइवेट स्कूलों के लिए भूमि, भवन, शिक्षक, फर्नीचर, विषयक जो न्यूनतम मानक लागू किए गए थे, उन मानकों को सरकारी स्कूलों पर भी सख्ती से लागू करने का सुझाव दिया है। साल 1968 की शिक्षा-नीति के अंतर्गत लागू किए गए त्रिभाषा फॉर्मूले के त्रुटिपूर्ण क्रियान्वयन पर भी सुब्रमण्यम कमेटी मुखर है। इसका कहना है कि पांचवीं तक शिक्षा बच्चों की मातृभाषा में दी जानी चाहिए और प्राथमिक स्तर पर दूसरी भाषा तथा माध्यमिक स्तर पर तीसरी भाषा के चुनाव का अधिकार राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए, यानी त्रिभाषा फॉर्मूले से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।

सुब्रमण्यम समिति ने 10वीं की परीक्षा में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का सुझाव दिया है। चूंकि 10वीं की परिक्षा में फेल होने वाले ज्यादातर बच्चे गणित व विज्ञान विषयों से होते हैं, इसलिए इन दो विषयों में अब दो तरह से प्रश्न-पत्र बनाए जाएंगे- बुनियादी और उच्च स्तर। विद्यार्थियों का दोनों में से कोई भी प्रश्न-पत्र चुनने का विकल्प रहेगा। समिति को एक और अच्छा सुझाव मिड-डे-मील योजना को 10वीं तक के स्कूलों में विस्तारित करने का है। समिति का यह भी कहना है कि शिक्षकों को मिड-डे-मील के संचालन से मुक्त रखा जाए। समिति ने स्वयंसेवी और सामाजिक संस्थाओं से यह योजना संचालित करवाने को कहा है।

स्कूली शिक्षा की सबसे कमजोर कड़ी है शिक्षक, जिनमें से अधिकांश में इस पेशे से कोई आत्मीय लगाव नहीं पाया जाता है। उनके लिए यह सिर्फ रोजी-रोटी का साधन है। कमेटी ने यह माना है कि स्कूली शिक्षा की क्वालिटी सुधारने का एकमात्र उपाय यह है कि शिक्षकों की नियुक्ति, न्यूनतम योग्यता, प्रशिक्षण और पेशे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में गुणात्मक सुधार करना। मौजूदा शिक्षकों को पांच वर्ष में एक बार प्रशिक्षण देने का सुझाव दिया गया है और भविष्य में नए शिक्षकों की भर्ती के लिए पांच वर्षीय एकीकृत बीए/बीएससी-बीएड कोर्स शुरू करने की सिफारिश भी की गई है, जो10वीं और 12वीं के बाद शुरू होंगे। समिति ने स्कूली पाठ्यक्रम और पुस्तकों के लेखन में शिक्षक संघों की भागीदारी की भी सिफारिश की है।

भारत की स्कूली शिक्षा को आज जिस ऊर्जावान रूपांतरण, नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन और विपुल संसाधनों की जरूरत है, उसकी स्पष्ट तस्वीर सुब्रमण्यम कमेटी की रिपोर्ट में नहीं दिखाई देती। साल 1991 के बाद उदारीकरण के दौर में केंद्र और राज्यों की अधिकांश सरकारें स्कूली शिक्षा में सुधार की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती रहीं, पर उनके सफल क्रियान्वयन में वे पूरी तरह नाकामयाब रही हैं। इसका मूल कारण स्कूली शिक्षा के कायाकल्प के प्रति राजनीतिक इच्छा शक्ति का नितांत अभाव होना है।
हमारी स्कूली शिक्षा साफ तौर पर वर्ग-विभाजन और सामाजिक भेदभाव का शिकार है। देश में संपन्न वर्ग और शिक्षित मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों के लिए महंगे और आलीशान स्कूल हर शहर में उपलब्ध हैं।

वहीं दूसरी ओर, गरीब व पिछड़े वर्ग के बच्चे उन सरकारी या निजी स्कूलों में धकेल दिए जाते हैं, जहां दिखावटी तौर पर बुनियादी ढांचा तो खड़ा है, किंतु पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नाम के लिए होती है। सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों में शिक्षा नीति को 21वीं सदी की जरूरतों के अनुरूप बनाने की बात कही गई है, पर उसमें केंद्र व राज्य सरकारों को देश के हर बच्चे को एक जैसी अच्छी क्वालिटी की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार नहीं बनाया गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)