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ताजा भूख सूचकांक में भारत-- सुभाष गताड़े

आज वर्ल्ड फुड डे (विश्व अन्न दिवस) है, जिसके जरिये भूख के खिलाफ मानवता के संघर्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी जानी है. इस दिवस पर भारत में भी सरकारी स्तर पर आयोजन होते हैं. विडंबना ही है कि भारत में बढ़ती भूख के ताजा आंकड़े इस पूरी आपाधापी में कुछ बेसुरे ही मालूम होंगे. क्योंकि, हाल में दो अलग-अलग रिपोर्टों ने भारत में विकराल होती भूख की समस्या पर रोशनी डाली है.

 
इंटरनेशनल फूड पाॅलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की ताजा रिपोर्ट, जो विगत सत्रह सालों से वैश्विक भूख सूचकांक जारी करती आ रही है, बताती है कि 119 विकसनशील मुल्कों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है, जबकि पिछले साल यही स्थान 97 था.

 

साल 2014 के सूचकांक में भारत की रैंक 55 थी. सिर्फ पाकिस्तान को छोड़ दें, जिसका भूख सूचकांक 106 है, तो बाकी पड़ोसी देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं. नेपाल-72, म्यांनमार-77, बांग्लादेश-88 और चीन-29 पर है. उत्तर कोरिया-93, इराक-78 भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं.


यह रिपोर्ट विगत माह संयुक्त राष्ट्र की तरफ से जारी ‘स्टेट आॅफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड- 2017' की रिपोर्ट की ही तस्दीक करती है, जिसने बढ़ती वैश्विक भूख की परिघटना को रेखांकित करते हुए बताया था कि भारत में भूखे लोगों की तादाद 19 करोड़ से अधिक है- जो उसकी कुल आबादी का 14.5 फीसदी है.


उसने यह भी जोड़ा था कि फिलवक्त पांच साल से कम उम्र के भारत के 38.4 फीसदी बच्चे अल्पविकसित हैं, जबकि प्रजनन की उम्र की 51.4 फीसदी स्त्रियां एनिमिक यानि खून की कमी से ग्रस्त हैं.
स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्तर पर पोषण पर केंद्रित कार्यक्रमों की घोषित व्यापकता के बावजूद, इन रिपोर्टों ने भारत की बड़ी आबादी के सामने खड़े कुपोषण के खतरे को रेखांकित किया है. जाहिर है कि घोषित नीतियों, कार्यक्रमों एवं जमीनी अमल में गहरा अंतराल दिखाई देता है.


इसका एक प्रमाण देश की आला अदालत द्वारा मई 2016 से पांच बार जारी निर्देश हैं, जिन्हें वह स्वराज्य अभियान की इस संबंध में दायर याचिका को लेकर दे चुका है, जहां उसने खुद भूख और अन्न सुरक्षा के मामले में केंद्र एवं राज्य सरकारों की प्रचंड बेरुखी को लेकर उन्हें बुरी तरह लताड़ा है. नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट- 2013 को लेकर जितनी राजनीतिक बेरुखी सामने आयी है, इस पर उसने चिंता प्रकट की है.


जुलाई माह के उत्तरार्द्ध में अदालत को बाकायदा कहना पड़ा था कि संसद द्वारा बनाये कानून का क्या उपयोग है, जब राज्य एवं केंद्र सरकारें उसे लागू न करें! अपने सामाजिक न्याय के तकाजों के तहत संसद द्वारा बनाये गये कानून को पूरा सम्मान दिया जाना चाहिए तथा उसे गंभीरता एवं सकारात्मकता के साथ साल के अंदर ही अमल में लाना चाहिए.


साल 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने इस अधिनियम को लागू करने की डेडलाइन आगे बढ़ा दी. ऐसा महज संसद की स्वीकृति से ही संभव है, मगर इसे कार्यपालिका के तहत अंजाम दिया गया.
अगर अधिनियम जब से बना, तबसे लागू किया गया होता, तो ग्रामीण आबादी के लगभग 75 फीसदी लोगों के पास तक अनाज पहुंचाने की प्रणालियां अब तक कायम हो चुकी होतीं. पिछले साल राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम को लागू करने का कुल बजट 15,000 करोड़ रुपये था, जबकि केंद्र सरकार ने महज 400 करोड़ रुपये ही आवंटित किये थे.


कमोबेश यही हाल ‘मनरेगा' का भी है. मसलन, ग्रामीण गरीबों की जीवन की स्थितियां थोड़ी बेहतर बनाने के लिए बनाये गये इस रोजगार अधिकार अधिनियम के तहत महीनों तक मजदूरी देने का काम लटका रह सकता है.


इसकी पुष्टि खुद संसद के पटल पर ग्रामीण विकास राज्यमंत्री रामकृपाल यादव ने की, जब उन्होंने बताया कि बीते तीन सालों का 17,000 करोड़ रुपये की राशि अभी दी जानी है. जहां 2014-15 का 4,200 करोड़ रुपये और 2015-16 का 3,900 करोड़ रुपये बकाया है, वहीं वर्ष 2016-17 में यह राशि 8,000 करोड़ के करीब है. गौरतलब है कि यह आलम तब है, जब आला अदालत ने पिछली मई में ही सरकार को लताड़ा था कि वह मनरेगा के लिए पर्याप्त धनराशि उपलब्ध नहीं करा रही है.
पुस्तक- ‘इक्कीसवीं सदी में पूंजी', के चर्चित लेखक थाॅमस पिकेटी और उनके सहयोगी लुकास चासेल ने अपने एक पर्चे में बताया था कि किस तरह विगत तीन दशकों में भारत उन मुल्कों में अग्रणी रहा है, जहां सबसे ऊपरी 1 फीसदी तबके के लोगों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी में सबसे अधिक तेजी देखी गयी है. उनके पर्चे का शीर्षक भी उत्तेजक है- ‘फ्राॅम ब्रिटिश राज टू बिलियनियर राज' अर्थात ‘ब्रिटिश हुकूमत से खरबपतियों की हुकूमत' तक.


अब अगर एक जगह चमक बढ़ेगी, तो लाजिम है कि दूसरे छोर पर चमक घटेगी, भारत में बढ़ती भूख को लेकर यह ताजा रिपोर्ट शायद यही इशारा करती है. सरकारें भूख और गरीबी खत्म करने की बातें करती तो रहती हैं, लेकिन भूख और गरीबी बढ़ती रहती है.