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तिरस्कार की मार- मनोज रावत

बात सितंबर, 1893 की है. उत्तराखंड के चमोली में बहने वाली बिरही नदी में एक पहाड़ गिर गया. बिरही आगे जाकर अलकनंदा में मिलती है जिसके भागीरथी में मेल के बाद बनी धारा को गंगा कहा जाता है. बिरही में पहाड़ गिरने से एक विशाल झील बन गई. ताल के एक छोर पर गौणा गांव था और दूसरे पर दुर्मी तो कोई इसे गौणा ताल कहता और कोई दुर्मी ताल. तब के शासकों यानी अंग्रेजों ने उस ताल से पैदा हुआ खतरा भांपते हुए दुर्मी में एक तारघर खोल दिया. तारघर से एक अंग्रेज कर्मचारी हर रोज पानी के स्तर की जानकारी नीचे बसे गांवों में भेजता. आशंका गलत नहीं थी. एक साल बाद 16 अगस्त 1894 को भारी बारिश और पहाड़ धसकने से ताल का एक हिस्सा टूट गया. कुछ सालों बाद इस ताल का अध्ययन करने आए स्विस भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक इस चार किमी लंबे, एक किमी चौड़े और 300 मीटर गहरे गौणा ताल में करीब 15 करोड़ घन मीटर पानी था. अनुमान है कि ताल टूटने के बाद भारी मात्रा में पानी बिरही की संकरी घाटी से होते हुए चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार की ओर बढ़ा होगा. दस्तावेजों के मुताबिक उस भारी जल प्रवाह से भले ही अलकनंदा घाटी में खेती और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मौत सिर्फ एक हुई थी. वह भी उस साधु की जो लाख समझाने के बावजूद जलसमाधि लेने पर अड़ा हुआ था.

यानी नुकसान इसलिए बहुत कम हुआ कि संकट को समझने और उससे बचने के लिए समय पर सटीक उपाय करने की अंतर्दृष्टि दिखाई गई थी. ताल बनते ही बचाव के उपाय शुरू हो गए थे. अंग्रेज तुरंत सूचना भेजने और लोगों को चौकन्ना करने की व्यवस्था की अहमियत समझते थे इसलिए उन्होंने तब दुर्लभ मानी जाने वाली लगभग 100 मील लंबी तार लाइन भी बना ली थी. कई दशक बाद 20 जुलाई, 1970 को ताल पूरी तरह से टूट गया. बेलाकूची नाम का एक गांव इस जल प्रलय में बह गया. उस समय भी कई यात्री गाड़ियों के बहने और कुल 70 मौतें होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है. यह आजाद भारत का किस्सा है.

आज देश को आजाद हुए करीब 66 साल हो चुके हैं. उत्तराखंड को अलग राज्य बने भी 13 साल हो गए. लेकिन लगता है कि ऐसी आपदाओं को संभालने के मामले में हम एक मायने में 1893 से भी पीछे चले गए हैं. केदारनाथ में आए जलप्रलय का कारण बना गांधी सरोवर यानी चौरबाड़ी ताल केवल 400 मीटर लंबा और 100 मीटर चौड़ा था. इसकी गहराई अधिकतम दो मीटर थी. यानी गौणा ताल की तुलना में इसका आकार एक तलैया से अधिक नहीं था. फिर भी इससे हुई तबाही ने करीब सवा सदी पहले हुई उस तबाही को कहीं पीछे छोड़ दिया. अब तक 1000 से अधिक मौतों और कई हजार करोड़ रु के नुकसान की पुष्टि हो चुकी है.

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ मनीश मेहता के शोध पत्र के अनुसार चौरबाड़ी ताल 3000 साल पुराना था. इसके किनारे थामने वाला मौरेन (हिमनदों का चट्टानरूपी अवक्षेप) 100 मीटर मोटाई का था, लेकिन यह कुछ सालों से रिस भी रहा था. ताल के नीचे रोज हजारों यात्री आते थे फिर भी सरकार ने न तो इसके टूटने की संभावनाओं को परखा और न बचाव के उपाय किए. उत्तरकाशी में दो साल से तबाही का कारण बन रही असिगंगा का मूल स्रोत भी डोडीताल नाम का एक तालाब ही है.

आज सूचना और आवागमन के साधन हर जगह मौजूद हैं. लेकिन उनका प्रयोग करके भी इस आपदा के असर को कम नहीं किया जा सका. दरअसल आपदा के पहले और बाद में जो हुआ उसे गहराई से देखें तो इसका सीधा कारण व्यवस्था थामने वालों में जिम्मेदारी की भावना और संवेदनशीलता का अभाव दिखता है. वहीं, आम जनता भी परंपरागत ज्ञान और जीवन पद्धति को याद रखती तो नुकसान इतना ज्यादा नहीं होता. आगे जो दर्ज है वह बताता है कि परंपरागत ज्ञान और आधुनिक कानून का उत्तराखंड में जो तिरस्कार हुआ है, एक समाज के रूप में उसकी कीमत चुकाने के लिए हम अभिशप्त हैं.