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तीन तलाक पर अच्छा फैसला-- भूपेन्द्र यादव

तीन तलाक पर आये फैसले को किसी संस्था या धार्मिक परंपरा विशेष के खिलाफ न मानकर एक प्रगतिशील कदम के रूप में देखना चाहिए, जो समाज के साधारण एवं वंचित वर्ग के प्रति निष्पक्ष न्याय व्यवस्था का फैसला है.

इस विषय पर मीडिया के सारे साधनों में बहस और चर्चा हुई है, जिसमें धार्मिक संवैधानिक विशेषज्ञों के साथ साधारण जन और पीड़ित पक्षों ने भी बहस की है. यह लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय की और बढ़ते हुए भारत का आशावादी रूप है. शायरा बानो और आफरीन रहमान जैसी महिलाओं ने अपने साथ हुई नाइंसाफी के खिलाफ संवैधानिक ढांचे में अपना संघर्ष किया और धर्म तथा परंपरा के नाम पर प्रचलित अन्यायपूर्ण कानून को अवैध घोषित करवाया.

आज हम विज्ञान और तकनीक की दृष्टि से बहुत विकसित हो गये हैं, परंतु इसके समानांतर विचार की दृष्टि से भी आगे बढ़ना आवश्यक है.
जो विचार मात्र किसी विशेष देशकाल में कुछ व्यावहारिक आधारों पर स्वीकारे गये, उनमें दोष की गुंजाइश रहती है, इसे प्रबुद्व भारत को पहचानना होगा. विवाह हिंदू धर्म में भी संस्कार माना गया है, परंतु प्रबुद्व समाज सुधारकों ने बालविवाह, सतीप्रथा एवं हिंदू स्त्री के बैरंग कठोर वैधव्य को अन्यायपूर्ण एवं क्रूर माना और ऐसी कुप्रथाओं के खिलाफ स्त्रियों को संवैधानिक संरक्षण मिला. इसी क्रम में आज तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) का उल्लघंन है.

हमारा संविधान धर्म पालन की स्वतंत्रता का प्रत्येक नागरिक को अधिकार देता है, परंतु उसकी समानता के अधिकार को समाप्त करने का अधिकार किसी संस्था को नहीं देता है. यही कारण है कि आजाद भारत में शिक्षा, भोजन, स्वास्थय, राजनीतिक सहभागिता के प्रति चेतना बढ़ी है और महिलाओं तथा वंचित वर्ग में भी अपने इस हक के प्रति जागृति आयी है. आज महिला सशक्तिकरण महज नारा नहीं है. सभी समुदायों की महिलाएं अब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सहभागिता करने मात्र से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि वे नये रास्ते पर भी चलना चाहती हैं. समाज में बराबरी की भागीदार के रूप में उनकी प्रगति की राह में आज मान्यताएं आड़े आ रही है.

इसीलिए जब शायरा बानो और आफरीन रहमान जैसी महिलाओं ने तीन तलाक के खिलाफ जंग छेड़ी, तो यह घिसे-पीटे रिवाज के खिलाफ ही नहीं थी, बल्कि महिलाओं की इंसानी हक के दावे की भी लड़ाई थी. इस देश में सामाजिक क्रांति के वाहक रहे संविधान में महिलाओं को भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समाज अधिकार दिये गये थे और ये अधिकार स्वयं एवं समाज दोनों के विकास से जुड़े हुए हैं.

दुनिया के विभिन्न हिस्सों को एक-दूसरे की जानकारी आसानी से मिलने और महिलाओं का संघर्ष दुनियाभर में फैलने के कारण महिलाओं को समाज में बराबर की भागीदारी दिलाने की यह लड़ाई अब जाकर आम लोगों के बीच पहुंची है. ध्यान देनेवाली बात यह है कि तीन तलाक के खिलाफ आंदोलन की अगुआ मुस्लिम समाज की संभ्रांत और शिक्षित महिलाएं नहीं थीं, बल्कि सामान्य महिलाएं थीं, जिन्होंने पक्षपात भरे इस रिवाज के खिलाफ बोलने का फैसला किया.

फैसला भी मिला-जुला है. इसके कुछ हिस्से तो निस्संदेह शानदार हैं, लेकिन संविधान के आदेशों के प्रति समर्पित रहनेवाले हम जैसे अधिकतर लोग इससे परेशान भी हुए होंगे. फैसले का सबसे विचलित करनेवाला हिस्सा वह है, जहां कुछ न्यायाधीश पर्सनल लाॅ को धार्मिक अधिकार के बराबर मानते हैं और उन्होंने दकियानूसी पर्सनल लाॅ को उसी समुदाय में समझदार लोगों से मिलनेवाली चुनौती से बचाने की कोशिश तक की है.

हमारी न्यायपालिका ने ऐसे प्रगतिशील फैसले महिलाओं के हक में दिये हैं, जिसने पितृसत्तात्मक ग्रंथि से संचालित समाज पर ही सवालिया निशान लगा दिया है, जो स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में ऐसी इच्छाओं का पालन करने से भी रोकता है, जो संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक का मूलाधिकार है.

न्यायपालिका के फैसलों ने दिखाया है कि संयम व अनुशासन की पालना सिर्फ स्त्री के लिए नियम नहीं है, बल्कि साथ ही पुरुष के आवेशात्मक व्यवहार भी नितांत अनुचित हैं. इन्हें न तो पुरुष का हक माना जा सकता है, ना ही स्वाभाविक प्रवृत्ति या मूल स्वभाव कहकर छोड़ा जा सकता है.

तीन तलाक तो बहुमत से न्यायपालिका द्वारा खारिज कर दिया गया है, परंतु साथ ही ऐसे स्पष्ट निर्देश हैं, जिनके प्रकाश में हम अपने समाज के भविष्य को देख सकते है.

जैसे महिलाओं को अपने अधिकारों से रीति-रिवाज या मान्याताओं के नाम पर वंचित नहीं किया जा सकता है, ना ही उनके प्रति ऐसे भेदभाव को कायम रखा जा सकता है, जो मौलिक अधिकार का हनन करता है. इसी प्रकार एक माननीय न्यायमूर्ति का यह फैसला कि तीन तलाक का एकतरफा या मनमाने ढंग से इस्तेमाल अनुचित है. इस फैसले में स्वयं विशेषज्ञों ने इसे संबंधित धर्मशास्त्र का आवश्यक हिस्सा नहीं माना है तथा लंबे समय से चली आ रही प्रथा को न्यायसंगत कानून का पर्याप्त आधार नहीं माना है.

रूढ़िवादी विचार के पक्ष में फैसला रखनेवाले न्यायाधीश ने भी अंत में स्वीकार किया कि तीन तलाक का प्रचलन खराब है और इसके खिलाफ कानून बनना चाहिए. इससे पता चलता है कि दिल सही बात को ही मानता है और इस मामले मे वाकई न्याय हुआ है. इस फैसले और इससे पहले तथा बाद के घटनाक्रम से हम ंसबसे बड़ी बात यह सीख सकते हैं कि अकेला व्यक्ति भी संस्थागत अन्याय के खिलाफ खड़ा हो सकता है और उसे परिणाम जरूर मिलता है. यह उदाहरण है नये भारत का. यह वह भारत है, जो हमें प्रेरित करता है और जिसकी आशा हम सभी को करनी चाहिए.

यह फैसला हमें ऐसी दृष्टि भी देता है, जो विभिन्न परंपराओं में प्रचलित कानूनों में निहित इंसानी हक की पहचान कराता है. यदि हम अनुभव करते हैं कि ईश्वर की नजर में गैर-बराबरी एवं जुल्म का कोई स्थान नहीं है और वह इंसाफ पसंद है, तो हमें भेदभाव वाली किसी भी व्यवस्था के प्रति दुराग्रह एवं हठ छोड़कर आगे बढ़ना होगा.