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तीन तलाक पर कमजोर फैसला -- योगेन्द्र यादव

तीन तीन तलाक की प्रथा मानवीयता, संविधान और इस्लाम तीनों के विरुद्ध है. देर-सवेर तीन तलाक को खारिज होना ही था, सो हो गया. लेकिन, मुझे इस फैसले से तीन बड़ी उम्मीदें थीं. एक, इससे तीन तलाक ही नहीं, देश में तमाम महिला विरोधी धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों को अमान्य करने का रास्ता खुलेगा. दो, इस बहाने मुस्लिम समाज में सुधार होगा और मुस्लिम अपने कठमुल्ला नेतृत्व से मुक्त होंग. तीन, कानूनी धक्के से सेक्युलर राजनीति अपने पाखंड से मुक्त होगी. लेकिन, इस फैसले से एक उम्मीद भी पूरी नहीं होती.


एक ही सांस में तलाक-तलाक-तलाक कहकर संबंध विच्छेद करने की घटनाएं इनि-गिनी ही होती हैं. फिर भी शादी तोड़ने का इतना अतार्किक और अमानवीय तरीका इस प्रथा को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाता है.


व्यवहार में यह हो या न हो, इसका डर एक औरत के सर पर तलवार की तरह लटका रहता है. वैसे मुस्लिम समाज में इस प्रथा को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. कुरान में तलाक के इस स्वरूप का कहीं जिक्र नहीं है. शरिया ने इसे वैधता जरूर दी, लेकिन एक आदर्श के रूप में नहीं. ऐसी नारी विरोधी प्रथा हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. इसलिए कभी न कभी इस प्रथा को कानूनी रूप से अवैध घोषित होना ही था.


इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला बहुत कमजोर फैसला है. उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट एक राय से बुलंद आवाज में बोलेगा, लेकिन फैसला सिर्फ तीन-दो के बहुमत से आया. जिन तीन जजों ने इस प्रथा को गैरकानूनी बताया, वो भी असमंजस का शिकार दिखे.


सिर्फ दो जजों, जस्टिस नारीमन और जस्टिस ललित, ने कहा कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करनेवाले पारिवारिक कानून और प्रथाएं गैरकानूनी मानी जायेंगी. बाकी तीन जजों ने कहा कि शादी और तलाक के अलग-अलग धर्म के कानूनों को संविधान के मौलिक अधिकार की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता. संयोग से उनमें से एक जज (जस्टिस जोसेफ) ने तीन तलाक को इस आधार पर अवैध माना कि वह कुरान शरीफ के अनुसार नहीं है.


अगर जस्टिस जोसेफ भी जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर का यह तर्क मान लेते कि तीन तलाक एक पुरानी और मान्य प्रथा है, तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट जाता. इसीलिए यह सामजिक सुधार के लिए कोई बड़ी जीत नहीं है. एक मायने में इस फैसले ने नारी विरोधी सामाजिक प्रथा के खिलाफ कानूनी लड़ाई को पहले से भी मुश्किल बना दिया है. तीन तलाक तो अवैध हो गया, लेकिन सभी धर्मों में ऐसी अनेक महिला विरोधी प्रथाएं हैं, जिन्हें रोकना जरूरी है.


आशा की किरण दिखाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन सबके विरुद्ध संघर्ष करनेवालों को सहारा नहीं देता.


यह फैसला मुस्लिम समाज और उसके नेतृत्व में जरूरी बदलाव की शुरुआत भी नहीं करता. आज भारत के मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या उनके धार्मिक अधिकार नहीं है. आज एक औसत मुसलमान अच्छी शिक्षा के अवसरों से वंचित है, नौकरी में भेदभाव का शिकार है और शहरों में भी मुस्लिम इलाकों में रहने को अभिशप्त है. आज से ग्यारह साल पहले सच्चर समिति ने इस सच्चाई की ओर हमारी आंखें खोली थी.


लेकिन, मुस्लिम समाज का कठमुल्ला नेतृत्व इन सवालों को उठाने की बजाय सिर्फ ऐसे धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के सवालों को उठाता है, जिससे औसत मुसलमान की भावनाओं को भड़काया जा सके. तीन तलाक जैसी कुप्रथा का समर्थन करना मुस्लिम नेतृत्व के दिवालियेपन का सबूत है.


आज के माहौल में मुस्लिम समुदाय से इस नेतृत्व को चुनौती देने की उम्मीद करना मुश्किल है. आज एक औसत मुसलमान दहशत में जी रहा है.


एक खौफजदा समाज से अपनी गिरेबां में झांकने और नेतृत्व को चुनौती देने की उम्मीद नहीं की जा सकती. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस मामले में कोई मदद नहीं मिलती. जब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष में नरेंद्र मोदी बोलते हैं और अमित शाह प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, तो एक साधारण मुसलमान के मन मे शक और डर पैदा हो जाता है. बस इतना जरूर हुआ है कि स्वर्गीय हमीद दलवई के नेतृत्व में शुरू हुए संघर्ष और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे हिम्मती संगठनों को कुछ ताकत मिल गयी है. इसी से कुछ उम्मीद बनती है.


क्या सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश की सेक्युलर राजनीति का चरित्र बदलेगा? अगर सुप्रीम कोर्ट बुलंद आवाज में कहता कि संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ कोई सामाजिक धार्मिक प्रथा मान्य नहीं होगी, तो सेक्युलर राजनीति की हिम्मत भी बढ़ती. लेकिन, अगर कोर्ट की चारदीवारी में सुरक्षित जज भी असमंजस में हैं, तो सड़क पर वोट ढूंढते राजनेता से क्या उम्मीद की जाये? फिर भी एक उम्मीद बनती है, क्योंकि लकीर के फकीर बने रहने के बजाय ज्यादातर 'सेक्युलर' पार्टियों ने इस फैसले का समर्थन किया है.
यहां गौरतलब है कि इस फैसले से पहले इन अधिकतर पार्टियों ने खुलकर तीन तलाक के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं दिखायी थी. सच यह है कि ये पार्टियां मुस्लिम वोट के लालच में कठमुल्ला मुस्लिम नेतृत्व की गिरफ्त में रही हैं. तीस साल पहले शाहबानो वाले मामले में घुटने टेक देनेवाली यह राजनीति का रुख शायरबानो के इस नवीनतम मामले में कुछ सुधरा तो है. यही एक छोटी सी आशा है.