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तूतीकोरिन के बाद की राजनीति-- एस श्रीनिवासन

पिछले महीने की 22 तारीख को तूतीकोरिन स्थित स्टर्लाइट इंडस्ट्रीज के खिलाफ शुरू हुआ 100 दिनों का धरना-प्रदर्शन अचानक हिंसक हो उठा था। आरोप है कि प्रदर्शनकारियों के एक धड़े ने सरकारी अधिकारियों पर पेट्रोल बम फेंका और पुलिस पर हमला किया, जिसके जवाब में पुलिस ने गोलियां दागीं और इसके कारण 13 लोग मारे गए। उस दिन वास्तव में क्या हुआ था, इसके कई दावे और कई कहानियां हैं। इनमें से दो महत्वपूर्ण हैं- एक प्रशासन की और दूसरी प्रदर्शनकारियों व उनसे सहानुभूति रखने वालों की। राज्य सरकार के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों में ‘असामाजिक' तत्व घुस आए थे। वे आगजनी कर रहे थे और स्थानीय प्रशासन को धमका भी रहे थे। पुलिस ने पहले लाठी चार्ज किया और आंसू गैस के गोले छोड़े। लेकिन जब हालात ‘बेकाबू' हो गए, तो पुलिस को गोली चलानी पड़ी। मुख्यमंत्री ई पलानीसामी ने विधानसभा को यही बताया है।

केंद्रीय मंत्री और तमिलनाडु में भाजपा के प्रमुख नेता पी राधाकृष्णन ने यह कहते हुए इस कहानी को नया मोड़ दे दिया कि राज्य सरकार ने कार्रवाई में देरी की। उन्होंने दावा किया कि प्रदर्शनकारियों में ‘असामाजिक तत्व' शामिल थे। ‘जलीकट्टु' को लेकर हुए प्रदर्शन के बाद भी राधाकृष्णन ने यह आरोप लगाया था कि अतिवादियों, माक्र्सवादियों, माओवादियों व इस्लामपरस्तों ने आंदोलन को हथिया लिया है। उनका आशय था कि चूंकि राज्य प्रशासन अनुभवहीन और कमजोर है, इसलिए ये समूह हालात का फायदा उठा रहे हैं।

राज्य में विरोधी दल के नेता एम के स्टालिन ने 22 मई की पुलिस कार्रवाई को ‘जलियांवाला बाग' नरसंहार सरीखा कदम बताया, तब मासूम व शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर ब्रिटिश पुलिस ने चौतरफा गोलियां बरसा दी थीं। स्टालिन ने इस ‘जनसंहार' के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराते हुए आरोप लगाया कि प्रशासन ने ‘शार्प शूटर्स' को तैनात ही इसलिए किया था कि प्रदर्शनकारियों को मारा जाए। उन्होंने इस पूरे वाकये के पीछे एक बड़े षड्यंत्र की आशंका जताते हुए राज्य सरकार पर कंपनी के पक्ष में काम करने का आरोप लगाया है। हाल ही में अपनी राजनीतिक पार्टी गठित करने वाले अभिनेता कमल हासन ने बीच का रास्ता अपनाते हुए कहा है कि ‘लोगों को यह जरूर पता लगना चाहिए कि आखिर किसने पुलिस फायरिंग की इजाजत दी?' वहीं सुपरस्टार रजनीकांत ने शुरू में पुलिस फायरिंग की निंदा की, लेकिन कुछ दिनों के बाद घटनास्थल से लौटने पर उन्होंने भाजपा की लाइन ही अपनाई कि प्रदर्शनकारियों में ‘असामाजिक तत्वों' के घुसने से हिंसक स्थिति पैदा हुई। गौरतलब है कि रजनीकांत ने भी राजनीति में उतरने का एलान कर रखा है, हालांकि अभी उन्होंने अपनी पार्टी नहीं बनाई है।

तमिलनाडु में हाशिये की पार्टियों ने तूतीकोरिन घटना को ‘पूर्व नियोजित हत्याकांड' बताते हुए राज्य सरकार को इसका दोषी ठहराया है। वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस फायरिंग को ‘अविवेकपूर्ण और नासमझी भरा' कदम बताया है। उनका कहना है कि गोली चलाने से पहले कोई चेतावनी नहीं दी गई और फिर उन लोगों को निशाना बनाया गया, जो समाज में हाशिये के समूहों से आते हैं। मसलन, दिव्यांगों, ट्रांसजेडर और अन्य विविध जमात के लोगों को भी नहीं बख्शा गया। स्टर्लाइट विरोधी आंदोनल का दशकों से समर्थन कर रहे पर्यावरणविद भी हैरान हैं। वे दुखी हैं कि ‘राज्य सरकार ने प्रदर्शनकारियों की उपेक्षा की।'

केंद्रीय राजनीति में ध्रुवीकरण तेजी से हो रहा है, और इसका असर तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति पर भी पड़ रहा है। इसकी एक झलक उस वक्त देखने को मिली, जब एक टेलीविजन परिचर्चा में विवादास्पद फिल्म डायरेक्टर आमीर ने भाजपा के स्टर्लाइट प्रदर्शन संबंधी उस बयान पर सवाल खड़ा किया कि इस आंदोलन को असामाजिक तत्वों ने हथिया लिया है। आमीर ने दलील दी कि यही तर्क कोयंबतूर के सांप्रदायिक तनाव पर भी लागू होता है। तब साल 2016 में हिंदू मुन्नानी पदाधिकारी सी शशिकुमार की हत्या के बाद तनाव पैदा हुआ था। दर्शकों में मौजूद भाजपा समर्थक व उससे जुड़े लोगों ने आमीर के बयान का जोरदार विरोध किया। दोनों तरफ के समर्थकों में हाथा-पाई की नौबत आ गई और नतीजतन कार्यक्रम को जल्दी खत्म करना पड़ा। आमीर ने अपना बयान तो वापस ले लिया, मगर यह उनके काम नहीं आया। उनके व आयोजन-स्थल के मालिक, टीवी चैनल व उसके कोयंबतूर संवाददाता के विरुद्ध गैर-जमानती धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया।

ऐसा लगता है कि पलानीसामी सरकार कई तरह के दबावों में काम कर रही है और ‘ताकत का इस्तेमाल कर' वह अपनी साख साबित करने में जुटी है। प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग से यही जाहिर होता है। लेकिन मीडिया के खिलाफ मुकदमे को ‘प्रेस का मुंह बंद करने' की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। यह कदम आम तौर पर मीडिया, और खासकर उन लोगों को डराने वाला है, जो ऐसे कार्यक्रमों के लिए अपनी जगह किराये पर देते हैं।

इन सबके बीच आंदोलनकारियों की आवाज या उसकी मूल वजह परिदृश्य से गायब हो गई है। बहरहाल, 22 मई को हुई पुलिस फायरिंग के कारणों की जांच के लिए राज्य सरकार ने एक सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया है, लेकिन इस कदम से उन लोगों को शायद ही कोई तसल्ली मिलेगी, जिन्होंने इस कांड में किसी अपने को खो दिया है। अक्सर ऐसे हालात में आंदोलनकारी उपेक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि दशकों से चर्चा में होने के बावजूद ऐसे मुद्दे सत्ताधीशों की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे होते हैं। जिस सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह विकास और लोगों के कल्याण के बीच एक संतुलन कायम करेगी, वह प्राय: इसे नहीं समझती।

तूतीकोरिन आंदोलन दशकों से शांतिपूर्ण तरीकों से चल रहा था, पर प्रशासन उसकी अनदेखी करता रहा। जब प्रदर्शनकारियों ने, जिनकी जिंदगी फैक्टरी के प्रदूषण से प्रभावित हो रही है, ‘कानून के दायरे में आक्रामक विरोध का रास्ता' अख्तियार किया, तो इसका एक धड़ा हिंसक हो उठा और उसने संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया। चूंकि इस तरह के आंदोलन में सियासत दबे पांव घुसती है, यह मुख्यमंत्री का कर्तव्य है कि वह कानून व व्यवस्था लागू करें और आंदोलनकारी समुदायों को सांविधानिक सुरक्षा दें। मुख्यमंत्री का यह भी फर्ज है कि वह लोकतंत्र को फलने-फूलने दें और अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की कोशिशों से अपने को दूर रखें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)