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तेरह प्वॉइंट रोस्टर का मुद्दा -- अनुज लुगुन

बातचीत के दौरान 13 प्वॉइंट रोस्टर पर कुछ विद्यार्थी यह चिंता जाहिर कर रहे थे कि यदि नियुक्तियों में इसी तरह के रोस्टर लागू होंगे, तो हमारे पढ़ने-लिखने का कोई मतलब नहीं रह जायेगा.

यह व्यवस्था तो प्राचीन मनुवादी सामाजिक व्यवस्था की सूचक है, जिसमें वंचित समुदायों के समान अवसरों का निषेध किया जाता रहा है. तेरह प्वॉइंट रोस्टर को लेकर उनकी यह चिंता वाजिब है. उनकी इस चिंता में न केवल उनका भविष्य शामिल है, बल्कि उनके इतिहास की स्मृतियां भी शामिल हैं. यह अनायास नहीं है.

तेरह प्वॉइंट रोस्टर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए आरक्षण की नयी व्यवस्था है. इसे पहले के 200 प्वॉइंट रोस्टर की जगह लागू किया गया है. दो सौ प्वॉइंट रोस्टर में विवि में सीटों के निर्धारण के लिए विवि को आधार बनाकर आरक्षण का रोस्टर लागू किया जाता था. तेरह प्वॉइंट रोस्टर में विश्वविद्यालयों की जगह विभाग को इकाई मान कर आरक्षण के रोस्टर की व्यवस्था की गयी है.

विश्वविद्यालयों में नियुक्ति के लिए आरक्षण की व्यवस्था कुल सीटों की संख्या के अनुपात में होती है. जब विश्वविद्यालयों को इकाई मान कर आरक्षण के रोस्टर की व्यवस्था थी, तब लगभग सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए सीट निकल जाती थी, क्योंकि विवि को इकाई मानने से सीटों की संख्या ज्यादा होती है. वहीं जब विभाग को इकाई मान कर आरक्षण के रोस्टर की व्यवस्था होगी, तो सभी वर्गों के उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व नहीं हो पायेगा, क्योंकि विभाग में सीटों की संख्या कम होती है.

उदाहरण के लिए, नये केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रत्येक विभाग में बुनियादी सीटों की कुल संख्या सात है- एक प्रोफेसर, दो एसोसिएट प्रोफेसर और चार सहायक प्रोफेसर. इतने सीटों को यदि 13 प्वॉइंट रोस्टर के आधार पर बांटा जाये, तो पांच सीट अनारक्षित के लिए होंगी, एक ओबीसी के लिए और एक एससी के लिए.

इस रोस्टर के आधार पर एसटी की बारी चौदहवें नंबर पर है, जो कि कई वर्षों में कभी नहीं आनेवाला है. इस व्यवस्था से एसटी तो पूरी तरह परिदृश्य से गायब हो जायेंगे. यह तो अनुमानित सीटों का उदाहरण है. वास्तविकता तो यह है कि कभी भी एक मुश्त सीटों की संख्या नहीं निकलती है. जब खुदरा सीट निकाले जाते हैं, तो आरक्षित वर्ग की भागीदारी की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है.

विश्वविद्यालय को इकाई मानने से यह समस्या नहीं होती है. इसमें यह भी प्रावधान था कि किसी विभाग में पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं होगा. इस तरह देखा जाये, तो 13 प्वॉइंट रोस्टर सभी वर्गों के उम्मीदवारों की समान भागीदारी के सिद्धांत पर आधारित नहीं है. यह अप्रत्यक्ष तौर पर संविधान में निहित सबको समान अवसर की उपलब्धता के अधिकार के विरुद्ध भी है. यही वजह है कि 13 प्वॉइंट रोस्टर का विरोध हो रहा है.

इस बीच 13 प्वॉइंट रोस्टर को लेकर इसके पक्ष-विपक्ष आमने-सामने हैं. पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि अनारक्षित सीट के अंतर्गत सभी वर्ग शामिल होते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि अब तक अनारक्षित सीट के नाम पर केवल सामान्य वर्गों की ही नियुक्ति होती रही है.

अनारक्षित वर्ग सामान्य वर्ग के लिए रूढ़ हो गया है. इसके सैकड़ों उदाहरण हैं. कभी भी एससी और एसटी वर्ग को आरक्षित सीट को छोड़ कर अनारक्षित सीट में नियुक्त नहीं किया गया है. अनारक्षित सीटों के लिए हमेशा आरक्षित वर्ग को ‘अयोग्य' माना जाता रहा है. दुर्भाग्य तो यह है कि विश्वविद्यालयों में सभी आरक्षित सीटों को अब तक भरा भी नहीं गया है. बड़ी संख्या में बैकलॉग सीटें खाली हैं.

ऐसे में अनारक्षित सीटों को सभी वर्गों का मानना व्यावहारिक नहीं लगता है. सच तो यह है कि नियुक्ति और सीटों के मामले में जातीय वर्चस्व हावी रहा है. यह विश्वविद्यालयों में सामाजिक समूहों की भागीदारी से भी साबित होता है. काशी हिंदू विवि (बीएचयू) और जेएनयू जैसे बड़े नामचीन विश्वविद्यालयों में भी आरक्षित समूह के प्रोफेसरों की संख्या गिनती भर की है. अगर हम केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विभिन्न सामाजिक समूहों की भागीदारी का आंकड़ा देखें, तो पाते हैं कि इसमें केवल सामान्य वर्गों की भागीदारी 90 प्रतिशत से ज्यादा है और ओबीसी, एससी, एसटी की कुल भागीदारी दस प्रतिशत से भी कम है.

इंडियन एक्सप्रेस द्वारा यूजीसी से प्राप्त आरटीआई आंकड़ों के अनुसार, देश के चालीस केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के पद पर सामान्य वर्ग की भागीदारी 95.2 प्रतिशत है, जबकि ओबीसी की भागीदारी 0 प्रतिशत, एससी की 3.4 प्रतिशत एवं एसटी की 0.7 प्रतिशत है. यह आंकड़ा हैरत में डालनेवाला है.

इस तरह के असंतुलित आंकड़े न केवल नियुक्तियों के मामले में होनेवाले जातिगत भेदभाव के संदेह को पैदा करते हैं, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था वाले समाज में सभी सामाजिक समूहों की समान भागीदारी पर भी सवाल खड़े करते हैं. इस बीच ऐसे ही संदेह की स्थिति तब पैदा हो गयी, जब 13 प्वॉइंट रोस्टर को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने लागू करने की मान्यता दे दी और सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे स्वीकृत कर लिया. तब आनन-फानन में कई विश्वविद्यालयों ने नियुक्ति के लिए विज्ञप्ति भी जारी कर दी.

कई जगह दशकों बाद अचानक नियुक्तियों में हलचल शुरू हो गयी. विडंबना की बात तो यह रही कि आरक्षित एवं बैकलॉग की सीटों को भरने की न कभी जल्दीबाजी हुई और न ही कभी इस तरह का कोई उत्साह रहा है. इसलिए इसके विरोध में उठ रहा स्वर इसमें जातीय भेदभाव का कारण देख रहा है.

आदर्श रूप में जो भी कहा जा रहा हो, लेकिन 13 प्वॉइंट रोस्टर से आरक्षित वर्गों को व्यावहारिक लाभ नहीं मिल रहा है. इसका संदर्भ जातीय नहीं है, बल्कि संविधान की मूल भावना से है. हर न्यायपसंद नागरिक को इस पर हस्तक्षेप करना चाहिए. अब यह राजनीतिक मुद्दा बन गया है.
विपक्ष इसे रोकने के लिए अध्यादेश लाने की मांग कर रहा है. इसमें सरकार की नीति टाल-मटोल की है. भारी विरोध के बीच सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात कर रही है. इस बीच सदन में मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि 13 प्वॉइंट रोस्टर के आधार पर नियुक्ति पर रोक लगेगी.

बेहतर होगा कि नियुक्तियों के मामले में सभी सामाजिक समूहों की समान भागीदारी की व्यावहारिक नीति बने, न कि हवाई आदर्शमूलक. वंचित समुदायों के प्रति विशेष संवैधानिक संवेदनशीलता बरती जानी चाहिए, अन्यथा हम संविधान की मूल भावना से दूर होते जायेंगे. हम ऐसी संकीर्णता में उलझते चले जायेंगे, जिसकी चिंता विद्यार्थी कर रहे हैं.