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तेल के अर्थशास्त्र में उलझा देश-- दीपक नैय्यर

पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें इन दिनों खबरों में हैं। मई के दूसरे पखवाड़े में पेट्रोल और डीजल के खुदरा मूल्य लगातार 16 बार बढ़े। 28 मई को तो ये पिछले चार वर्षों के सबसे ऊंचे स्तर पर जा पहुंचे थे। हालांकि 29 मई को प्रति लीटर एक पैसे की कमी की गई थी, जिसे मजाक ही कहा जा सकता है। इसके बाद 5 जून तक हर दिन इसकी कीमतें कुछ-कुछ कम होती गईं, जिसके कारण पेट्रोल के दाम में 60 पैसे और डीजल में 45 पैसे प्रति लीटर की कमी आई। अगर इसे प्रतिशत में आंकें, तो सर्वोच्च खुदरा कीमत में यह क्रमश: 0.75 प्रतिशत और 0.65 प्रतिशत की मामूली कमी थी, जो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के गिरने और रुपये में मामूली मजबूती के कारण संभव हो सका था।

विपक्ष विरोध-प्रदर्शन करके लोगों की नाराजगी का इस्तेमाल अपने हित में करने को उत्सुक दिखा है। इसकी वजह कोई छिपी नहीं है। अगले आम चुनाव में अब एक साल का वक्त भी नहीं बचा है। इस साल के आखिर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं। हालांकि कीमतों का बढ़ना चिंता की बात है, क्योंकि पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और घरेलू गैस के बढ़ते दाम कमोबेश सभी घरों को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं, जबकि माल ढुलाई व यात्री-भाड़े में बढ़ोतरी परोक्ष रूप से लोगों पर असर डालती हैं। कीमतों को कम करने के लिए सरकार अपनी सक्रियता दिखा तो रही है, लेकिन अब तक इसके कोई ठोस नतीजे नहीं निकल सके हैं।

दरअसल, कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों और अपने देश के घरेलू दामों का आपसी रिश्ता काफी जटिल है। यह सही है कि कुल खपत में आयातित कच्चे तेल का अनुपात, रिफाइनिंग यानी कच्चे तेल को साफ करने में होने वाले खर्च और उनकी ढुलाई के खर्च के आधार पर तेल की बाजार कीमत तय होते हैं। अपने यहां कर-निर्धारण का ढांचा भी मामले को जटिल बना देता है।

देश में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी (मूल्य एवं सेवा कर) से बाहर रखा गया है। केंद्र सरकार इस पर उत्पाद शुल्क लगाती है, जबकि राज्य सरकारें विभिन्न दरों पर वैट (मूल्य वर्धित कर) या सेल्स टैक्स (बिक्री कर) वसूलती हैं। अभी पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क प्रति लीटर 19.48 रुपये और डीजल पर 15.63 रुपये है। राज्य सरकारें मूल्य के अनुसार जो वैट या सेल्स टैक्स लगाती हैं, वह पेट्रोल पर कम से कम 16 फीसदी और अधिकतम 40 फीसदी यानी औसतन 28 फीसदी है। जबकि डीजल पर टैक्स की दरें औसतन 20 फीसदी हैं, जो न्यूनतम 12 फीसदी और अधिकतम 29 फीसदी हैं। हम एक राज्य से दूसरे राज्य में तेल की खुदरा कीमतों में जो उल्लेखनीय अंतर देखते हैं, उसकी यही वजह है।

हाल के वर्षों में कम से कम तीन साल यानी जनवरी 2015 से लेकर दिसंबर 2017 तक ऐसे रहे हैं, जब कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत इससे पहले के चार वर्षों की औसत कीमत से आधी से भी कम थी। क्या वैश्विक कीमतों में गिरावट का यह लाभ सरकारों को कर के रूप में और लोगों को बतौर उपभोक्ता मिला? निश्चय ही उन दिनों खुदरा कीमतों में कुछ कमी आई थी। लेकिन पेट्रोल-डीजल की मौजूदा कीमत के हिसाब से वह 10 रुपये प्रति लीटर से अधिक नहीं थी, और वह भी सिर्फ तीन साल के लिए। जबकि कच्चे तेल की जो कीमतें मई, 2014 में 100 डॉलर प्रति बैरल से अधिक थीं, वे जनवरी 2015 में घटकर 50 डॉलर प्रति बैरल और जनवरी, 2016 में 30 डॉलर प्रति बैरल तक आ पहुंची थीं। स्पष्ट है, खुदरा बाजार में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में उस तरह से कमी नहीं आई, जिस अनुपात में अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसके दाम गिरे थे।

ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सरकारों ने ऐसा नहीं होने दिया। उन तीन वर्षों में केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क कई बार बढ़ाया, जबकि राज्य सरकारें भी समय-समय पर वैट या बिक्री कर बढ़ाती रहीं। ऐसा लगता है कि उस पूरी अवधि में तेल की वैश्विक कीमतों में तेज गिरावट को केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने लिए अप्रत्याशित फायदे की तरह देखा। टैक्स से होने वाली कमाई का यह महत्वपूर्ण स्रोत बन गया, जिसने सरकारों की आर्थिक मुश्किलें हल करने में मदद की। हालांकि उपभोक्ताओं को जो लाभ दिया गया, वह सरकार को मिले फायदे के लिहाज से काफी कम था।

बाद में जब तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें बढ़ीं, पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले टैक्स में कोई कमी नहीं की गई। न तो केंद्र सरकार ने अपना उत्पाद शुल्क घटाया और न राज्य सरकारों ने वैट या बिक्री कर की दरों में कोई कटौती की। एकमात्र अपवाद केरल है, जहां पेट्रोल व डीजल की कीमतों में प्रति लीटर एक रुपया की कमी हुई है। साफ है, सरकारें कर-राजस्व का मोह छोड़ने को तैयार नहीं हैं, जिनके कारण बीते तीन वर्षों में उन्हें काफी फायदा मिला है। हालांकि लागत और लाभ के असमान बंटवारे का यह अंतर्विरोध कोई आज की बात नहीं है। दशकों से सरकारों ने तेल की वैश्विक कीमतों के गिरने पर खूब लाभ बटोरा, और जब कीमतें बढ़ीं, तो उसका भार उपभोक्ताओं पर डाल दिया।

होने को अब भी काफी कुछ हो सकता है। राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स कम कर सकती हैं, और उन्हें यह करना भी चाहिए, क्योंकि उन्होंने अच्छे दिनों में मूल्यवर्धित करों के रूप में अपने खजाने भरे हैं। तमाम राज्य केरल को आदर्श मान सकते हैं। इसी तरह, केंद्र सरकार भी पेट्रोल और डीजल पर अपने उत्पाद शुल्क कम कर सकती है। मगर ऐसा कोई कदम उठाने की बजाय वह राज्य सरकारों को वैट या बिक्री कर कम करने को कह रही है। पेट्रोल व डीजल पर उत्पाद शुल्क कम करने के पक्ष में मजबूत दलील है। राजकोषीय घाटा भी कोई बहाना नहीं होना चाहिए। अभी यह समझने की जरूरत है कि पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी कीमतों के कारण बढ़ने वाली महंगाई राजकोषीय घाटे में मामूली वृद्धि से होने वाली महंगाई से कहीं अधिक घातक हो सकती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)