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थम क्यों जाते हैं बेटियों के कदम- ऋतु सारस्वत

हाल ही में केंद्र सरकार ने दिल्ली समेत सभी केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस बहाली में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दी है। निश्चय ही, यह कदम देश की आधी आबादी के ‘सशक्तीकरण' में महती भूमिका निभाएगा। गौरतलब है कि भारतीय पुलिस सेवा में महिलाओं की संख्या पिछले वर्ष ही एक लाख को पार कर गई थी। हालांकि सच यह भी है कि कुल पुलिस बल में महिलाओं की भागीदारी अब भी महज 6.1 प्रतिशत ही है, जबकि देश में महिलाओं की आबादी 48 प्रतिशत है।

यों तो तमाम नौकरियों में ‘महिलाओं' को 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की बात की जा रही है। मगर पहले उन यथार्थों को टटोलने और उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने की भी आवश्यकता है, जो देश की बेटियों को आगे बढ़ने से रोकती हैं। आज से 75 वर्ष पूर्व देश के एक समाचार पत्र में एक खबर प्रकाशित हुई थी- 'अलीगढ़ मुस्लिम गर्ल्स स्कूल और कॉलेज की छात्राएं बी.टी. परीक्षा को छोड़कर शेष सब परीक्षाओं में शत-प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। बी.टी. की परीक्षा में भी वे 91 प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। छात्रों के और किसी स्कूल और कॉलेज का परीक्षा परिणाम ऐसा शानदार नहीं रहा है। बहिनें परीक्षा के क्षेत्र में भी भाइयों से आगे बढ़ गई हैं, जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं।' पाबंदियों और कम सुविधाओं के बीच बेटियों का यह प्रदर्शन हो सकता है कि देश के संवेदनशील वर्ग के मन में ग्लानि पैदा करे कि क्यों कर बेटियां आज भी वहां नहीं पहुंच पाई हैं, जहां उन्हें होना चाहिए। वर्ष 2014 की परीक्षाओं के आंकड़े बताते हैं कि सीबीएसई की 12वीं परीक्षा में 78.27 प्रतिशत लड़के पास हुए, जबकि लड़कियों का प्रतिशत 88.52 था। फिर ऐसा क्या है कि इस सफलता के बाद बेटियों के कदम थम जाते हैं?

शोध बताते है कि पांच प्रतिशत लड़कियां ही विज्ञान, तकनीक, गणित और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपना करियर नहीं बनाना चाहतीं, जबकि 75 प्रतिशत लड़कियों को पढ़ने-लिखने और नई चीजें खंगालने में रुचि है। असल में बेटियां इसलिए थम जाती हैं, क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज में यह अस्वीकार्य है कि लड़कियां पुरुष के समकक्ष खड़ी हों। अगर ऐसा नहीं है, तो मात्र 20 प्रतिशत अभिभावक ही क्यों बेटियों को इंजीनियर, वैज्ञानिक या तकनीशियन बनाने में दिलचस्पी रखते हैं? किसी भी व्यक्ति की क्षमता उसके जन्म से निर्धारित नहीं होती, बल्कि उसके समाजीकरण से निर्धारित होती है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज दोहरे मापदंड अपना रहा है। वह यह तो चाहता है कि बेटियां आत्मनिर्भर हों, क्योंकि यह अंतहीन भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सुयोग्य वर प्राप्त करने की अहम शर्तों में से एक है, परंतु वह उन्हीं क्षेत्र को चुनने की स्वतंत्रता देता है, जिससे परिवार के प्रति उनकी प्राथमिकताएं बाधित न हों। सत्य यह भी है कि बेटियों का समाजीकरण कुछ इस प्रकार होता है कि उनके मस्तिष्क में त्याग, समर्पण और दायित्वों का ताना-बाना इस कदर बुन दिया जाता है कि वे स्वयं अपनी संपूर्णता परिवार के निहित कर्त्तव्यों में समझने लगती हैं। यह सम्मोहन की वह प्रक्रिया है, जो जीवन पर्यंत उन्हें बांधे रखती है। मगर क्या यह उचित है? जब बेटियों के कंधों पर धन कमाने का दायित्व डाला जाता है, तो यह दोहरी मानसिकता का छलावा संवेदनशील समाज के लिए शोभनीय नहीं है। आवश्यकता है, उनकी क्षमताओं को स्त्रीत्व के बंधन से मुक्त करने की, और उनके प्रति समानता का दृष्टिकोण रखने की।