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थोड़ी खुशी ज्यादा गम- ।।प्रभात पटनायक।।

भूमि अधिग्रहण और विकास के शोर में हमारी जर्जर कृषि अर्थव्यवस्था भयानक संकट का सामना कर रही है, मगर वित्तमंत्री बजट में खेती-बाड़ी पर शोध के लिए 200 करोड़ की मामूली रकम का इंतजाम करके दूसरी हरित क्रांति का सपना देख रहे हैं.

वित्त वर्ष 2012-13 का बजट कई वजहों से अहम माना जा रहा है. एक तरफ़ यूपीए सरकार चुनावी हार का सामना करने के बाद सियासी मोर्चे पर घिरी हुई है, वहीं दूसरी ओर बहुप्रचारित नौ फ़ीसदी की विकास दर भी फ़िसलकर सात फ़ीसदी से नीचे आ चुकी है. यूरोप और अमेरिका के संकट से वैश्विक आबोहवा बिगड़ी हुई है और घरेलू स्तर पर नीति-निर्माण में आयी अपंगता के चलते निवेश का सूखा पड़ा हुआ है. ऐसे माहौल में उद्योग जगत राहत पाने के लिए सरकार पर दबाव बनाये हुए था, कि सामाजिक कल्याण क्षेत्र पर खर्च कम किया जाये.

प्रणब दा के बजट में इस दबाव का असर साफ़ झलकता है. वित्तमंत्री ने पहले झटके के रूप में बड़ी आबादी को दी जाने वाली सब्सिडियों पर त्यौंरियां चढ़ायी. सरकार मुख्य रूप से तीन मदों खाद्य, ईंधन और उर्वरक पर सब्सिडी देती है. बजट में कहा गया है कि सब्सिडी पर होने वाले खर्च को जीडीपी के 1.3 फ़ीसदी के दायरे में रखा जायेगा और इसका सीधा असर विशाल गरीब आबादी पर पड़ेगा.

किसानों को उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी कम करने के साथ ही केरोसिन और रसोई गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी सीधे जरूरतमंद उपभोक्ताओं को देकर राजस्व में कमी की जायेगी. अब सवाल उठता है कि जरूरतमंद उपभोक्ताओं की पहचान का कौन-सा तरीका प्रणब दा अपनायेंगे? अगर इसके लिए योजना आयोग के गरीबी के आंकड़े का सहारा लिया जाता है, तो सरकार की मंशा आसानी से समझी जा सकती है. कुल मिलाकर इसका लब्बोलुआब यह है कि सब्सिडी में कटौती करने का मतलब सामाजिक खर्च में कटौती करके कथित विकास दर बढ़ाने के लिए ब्रांडेड चांदी खरीदने वालों को उत्पाद शुल्क में कमी के रूप में सहायता दी जायेगी.

वर्षो से हमारी अर्थव्यवस्था के ईंधन रहे कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बजट से फ़ौरी राहत जरूर मिली है, लेकिन इस क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं को अनदेखा किया गया है. बहुब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश लाने का नशा अब भी यूपीए सरकार पर छाया हुआ है और वित्तमंत्री ने कहा है कि सियासी दलों के साथ बातचीत करके खुदरा बाजार को एफ़डीआइ के लिए खोला जायेगा. खुदरा के खतरे से अलग देखें तो किसानों को कर्ज देने के लिए 5.75 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह जबानी जमा-खर्च है, क्योंकि कर्ज का वितरण सुनिश्चित करने का कोई उपाय वित्तमंत्री ने नहीं बताया है. याद रहे, पिछले बजट में भी प्रणब मुखर्जी ने किसानों को 4.75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देने का ऐलान किया था.

फ़रवरी, 2012 तक बैंकों ने महज 2.73 लाख करोड़ रुपये यानी लगभग आधी रकम किसानों को कर्ज के रूप में दी है और इसमें भी ग्रामीण इलाकों के छोटे व मझले किसानों को केवल दस फ़ीसदी ऋण दिया गया है. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है, कि भूमि अधिग्रहण और विकास के शोर में हमारी जर्जर कृषि अर्थव्यवस्था भयानक संकट का सामना कर रही है, मगर वित्तमंत्री बजट में खेती-बाड़ी पर शोध के लिए 200 करोड़ की मामूली रकम का इंतजाम करके दूसरी हरित क्रांति का सपना देख रहे हैं.

छोटे व मझोले उद्योगों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए इस बजट में कुछ खास नहीं है. अलीगढ़ के ताला कारोबारियों से लेकर लुधियाना के साइकिल निर्माता, बाजार में बढ़ते चीनी उत्पादों के दखल से हाशिये पर सिमटते जा रहे हैं, लेकिन बजट इन ज्वलंत सवालों पर खामोश है. छात्रों को कर्ज देने के लिए अलग कोष बनाने की बात की गयी है. वही पुराना सवाल कि यह सस्ता कर्ज केवल दिल्ली और बेंगलुरू के प्रबंधन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों तक ही क्यों सीमित रह जाता है, उड़ीसा के कोरापुट और झारखंड के झरिया जिले के छात्र को प्राथमिकता देने की कोई व्यवस्था प्रणब ने अपने बजट में नहीं की है.

दरअसल विशाल गरीब आबादी का हक मारकर आर्थिक विकास का लाभ कुछ पूंजीपतियों को पहुंचाने वाली ऐसी नीतियों को चयनित अर्थशास्त्र (सलेक्टिव इकोनॉमिक्स) कहते हैं. बजट में कर रियायतों का ब्योरा देने के लिए ’स्टेटमेंट ऑन टैक्स फ़ॉरगोन‘ दस्तावेज संसद में पेश किया जाता है.

पिछले तीन सालों में कॉरपोरेट क्षेत्र और अमीरों को 14,28,028 लाख करोड़ रुपये की कर रियायत इसलिए दी गयी, ताकि वे निवेश करके आर्थिक विकास में बढ़ोतरी करें. अगर यह छूट बंद कर दी जाये तो राजकोषीय घाटा होगा ही नहीं. क्या यह कर रियायत सब्सिडी नहीं है.बजट में छोटी-मोटी रेवड़ियां, मसलन आयकर छूट की सीमा दो लाख रुपये कर दी गयी है, मगर सेवा कर को दस फ़ीसदी से बढ़ाकर 12 फ़ीसदी किया है. सेवा कर में दो फ़ीसदी बढ़ोतरी का सीधा असर होटल-रेस्तरां में महंगा खाना, टेलीविजन जैसे उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी और बैंक ड्राफ्ट-कूरियर जैसी रोजमर्रा के कामों की बढ़ी हुई कीमत के रूप में आम आदमी पर पड़ेगा.

इंदिरा गांधी विधवा पेंशन योजना की रकम में सौ रुपये की बढ़ोतरी और एम्स जैसे सात अस्पतालों की घोषणा के सिवाय आम आदमी के लिए राहत के नाम पर इस बजट में कुछ नहीं है. विमानन उद्योग को सरकार ने इसीबी (बाह्य वाणिज्यिक उधारी) के जरिये एक अरब डॉलर की अमेरिकी सहायता देने का वादा किया है, लेकिन आत्महत्या कर रहे विदर्भ के किसानों के लिए कुछ नहीं है. बीते तीन वर्षो से राजनैतिक त्रासदी बन चुकी महंगाई पर भी बजट में खामोशी की चादर ओढ़ ली गयी और मंद विकास का ठीकरा प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय माहौल पर फ़ोड़ गया है.

पहले से ही उबर रहे पेट्रोल और डीजल को महंगा करने की पृष्ठभूमि बजट में तैयार कर ली गयी है. उदारीकरण के दो दशक बाद भारत की अर्थव्यवस्था खासकर ग्रामीण व कृषि क्षेत्र दोराहे पर खड़े हैं और यूपीए सरकार का यह बजट इस क्षेत्र को उजाले की किरण दिखाने में नाकाम रहा है.
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)