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दंड विधान को उदार बनाने का वक़्त-- शशि थरुर

ब्रिटिश शासकों से विरासत में मिली हमारी संसदीय व्यवस्था में कानून बनाने का काम मोटे तौर पर सरकार द्वारा संचालित है। ऐसा प्रावधान नहीं है कि विपक्षी दल विधेयक लाएं और उन्हें पारित कर कानून का रूप देने का प्रयास करें। हालांकि, संसद सदस्य व्यक्तिगत रूप से ऐसा कर सकते हैं। इस प्रावधान को ‘निजी सदस्य के विधेयक' कहा जाता है। संसद चल रही हो तो हर शुक्रवार की दोपहर बाद का समय आम तौर पर इसके लिए सुरक्षित रहता है। आज शुक्रवार है और मैं ऐसे तीन विधेयक पेश करूंगा। यदि ये विधेयक पारित हो गए तो भारत के लिए अधिक उदारवादी कानूनी ढांचा निर्मित करने में मददगार होंगे।

पहला विधेयक ‘राजद्रोह' की कठोर परिभाषा को पुनर्परिभाषित करने के लिए है- यह भी एक दुखदायी ब्रिटिश विरासत है। इसे 1870 में ब्रिटिश नीतियों की आलोचना को दबाने के लिए अपराध घोषित कर कानून का रूप दिया गया था। भारतीय दंड विधान की धारा 124 ए के तहत कोई भी व्यक्ति जो ‘सरकार के खिलाफ असंतोष भड़काने के लिए शब्द, संकेत या कोई प्रदर्शन करे' तो उस पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है और उसे उम्र कैद की सजा हो सकती है। राजद्रोह भारतीय राष्ट्रवादियों को आतंकित करने का माध्यम बन गया था : बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, जोगेंद्र चंद्र बोस और महात्मा गांधी उन शुरुआती प्रमुख लोगों में थे, जिन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। गांधीजी और नेहरूजी, दोनों इस कानून को खत्म करना चाहते थे। हालांकि, राष्ट्र निर्माताओं ने इसका उल्लेख संविधान में तो नहीं किया, लेकिन वे इसे कानून की किताब से हटाने में नाकाम रहे। यह आज भी अपराध है, जिसका दुरुपयोग कोई भी असहिष्णु सरकार किसी जायज सहमति के खिलाफ भी कर सकती है।

मेरा विधेयक राजद्रोह का आरोप लगाने की अनुमति तभी देता है जब उसके शब्द या कार्यों का नतीजा हिंसा के इस्तेमाल इरादतन हत्या, हत्या या हिंसा भड़काने या ऐसे अपराध में हो, जिसके लिए भारतीय दंड विधान में उम्रकैद की सजा का प्रावधान हो- जैसे हत्या या दुष्कर्म। सरकार के कदमों या प्रशासनिक कार्रवाई की सिर्फ शब्दों या संकेतों से आलोचना राजद्रोह के दायरे में नहीं अाएगी। संशोधित कानून बोलने की आज़ादी और सरकार के खिलाफ असहमति व्यक्त करने के अधिकार को बढ़ावा देगा। साथ में शब्दों के जरिये हिंसा भड़काने के खिलाफ उपायों को भी इसमें स्थान दिया गया है। राजद्रोह के बारे में नेहरूजी ने कहा था, ‘जितनी जल्दी हम इससे पिंड छुड़ा लें, उतना बेहतर।' ब्रिटेन ने तो उनकी यह सलाह स्वीकार कर ली, लेकिन भारत ने नहीं की। अब समय अा गया है कि हम ऐसा करें।

 

मेरा दूसरा विधेयक-अचरज की बात है कि पहली बार- शरणार्थी एवं शरण देने संबंधी कानून का रूप लेगा। ऐसी बात नहीं है कि हम शरणार्थियों को संरक्षण देने में नाकाम रहे हैं : इस समय भारत ने दो लाख से ज्यादा शरणार्थियों को आश्रय दे रखा है। किंतु बड़ी अजीब बात है कि भारत ने न तो 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौते पर दस्तखत किए हैं और न यहां शरणार्थी संंबंधी कोई घरेलू कानूनी ढांचा है। दुनिया की नज़रों में यह खराब दिखाई देता है, जबकि हमारे व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं है, जिस पर हमें शर्मिंदगी महसूस हो। मेरे विधेयक में शरण चाहने वाले व शरणार्थी की पहचान के लिए व्यापक मानदंड और शरणार्थी के विशिष्ट अधिकार व दायित्व दिए गए हैं। भारत में शरण मांगने का अधिकार सारे विदेशियों को होगा फिर उनकी राष्ट्रीयता, नस्ल, धर्म या जातीयता चाहे जो भी क्यों न हो और सरकार किसी ऐेसे शरणार्थी को वापस उसके देश नहीं भेज सकती, जिसकी जिंदगी खतरे में हो। विधेयक में राष्ट्रीय शरणार्थी आयोग के गठन का प्रावधान है, जो शरण संबंधी सारे आवेदन लेगा और अपना फैसला सुनाएगा।
भारत ने पीड़ित समुदायों के लिए संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों से ज्यादा काम किया है। यदि विधेयक को कानूनी रूप मिला तो यह देश को शरणार्थी संबंधी प्रबंधन में अग्रणी स्थान दे देगा। इसके साथ एक ऐसा कानूनी ढांचा आकार लेगा, जो उन लोगों के साथ व्यवहार के मानदंडों का स्तर ऊंचा उठाएगा, जो भारत जैसे मानवीय देश में मानवीय अधिकारों के अलावा सब कुछ खो दिया है। आखिर में मेरा तीसरा विधेयक भारतीय दंड विधान की उस कुख्यात धारा 377 में संशोधन के लिए हैं, जो किसी भी लिंग या नस्ल के वयस्कों के बीच सहमति से होने वाले दैहिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर लाएगा। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में इस प्रावधान को असंवैधानिक पाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 को इसे खारिज कर गेंद फिर विधायिका के पाले में डालने को तरजीह दी। धारा 377 को 1860 में लाया गया था, जो ‘प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ दैहिक संबंध' को अपराध घोषित करती है- अब यह अवधारणा इतनी पुरानी है कि अधिकतर आधुनिक समाजों में इसकी खिल्ली ही उड़ाई जाएगी। यह कानून वयस्कों के बीच सहमति से अपनी प्राइवेसी में दैहिक रिश्तों को अपराध घोषित करता है, जिससे अनुच्छेद 121 के तहत दी गई मूलभूत अधिकारों (निजता व गरिमा के साथ जीवन और स्वतंत्रता), अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध) की गारंटी का उल्लंघन करता है। यहां तक कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी हाल में माना कि इस प्रावधान को अभी या बाद में जाना तो है ही। मैं इसे अभी विदा करने को तरजीह दूंगा।

 

 

चूंकि कुछ परंपरावादियों का कहना है कि धारा 377 को खारिज करने से समलैंगिकता, समलैंगिक दुष्कर्म और पाशविकता के लिए दरवाजे खुल जाएंगे तो मेरे संशोधन में यह स्पष्ट है कि केवल 18 वर्ष आयु से ऊपर के रजामंद वयस्कों के बीच दैहिक संबंधों को ही अपराध के दायरे से मुक्त किया जाएगा। नाबालिग के साथ दुष्कर्म और दैहिक संबंध तो अपराध रहेंगे ही, जिसके लिए कानून के मुताबिक सजा मिलेगी। ये तीन कानून औपनिवेशिक काल के कुछ ऐसे प्रावधान खत्म कर देंगे, जिनका दुरुपयोग होने की आशंका रहती है। इसके साथ 21वीं सदी के भारत के लिए उदार कानूनी ढांचा भी तैयार होगा। मुझे कोई भ्रम नहीं है कि इन विधेयकों को पारित करना आसान होगा। भारतीय विधायिका के इतिहास में अब तक व्यक्तिगत स्तर पर लाए केवल 14 विधेयक ही कानून का रूप ले पाए हैं। पिछला ऐसा कानून 1970 में पारित हुअा था (हालांकि, तिरुचि शिवा का विपरीतलिंगियों के अधिकार संबंधी विधेयक गत अप्रैल में राज्यसभा में पारित हो गया और लोकसभा में लाए जाने के बाद वहां भी इसका विरोध नहीं होगा)। उम्मीद करें कि मेरे ये तीन विधेयक भी इस सूची में दाखिल होंगे या सरकार इसे आधिकारिक कानून के रूप में स्वीकारेगी। दोनों ही तरीकों से भारतीय दंड विधान को 21वीं सदी में ले जाने का वक्त आ गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)