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दलित जागरण का उठता ज्वार-- तरुण विजय

अभिमान पर जरा सी चोट लगी थी तो महाभारत हो गया था- द्रौपदी इसकी साक्षी है. एक बार गोली खाना सहन हो सकता है, लेकिन तिरस्कार नहीं. हैदराबाद विमान तल पर राजीव गांधी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री टी अंजैया का जो अपमान किया, उसके बाद कांग्रेस का तख्तापलट हो गया था. जनता ने माफ नहीं किया.

अनुसूचित जातियां तो सदियों से यह अपमान झेलती आ रही हैं. जिन्हें अपनी जाति के बड़ा होने का अहंकार है, उन्हें इन दलितों की चरण-रज अपने माथे से लगानी चाहिए कि उन्होंने अपमान सहा पर धर्म नहीं त्यागा. प्रधानमंत्री मोदी ने हैदराबाद में दलित-दर्द पर जो भावनात्मक टिप्पणी की, उसका बड़ा महत्व है.

वह फटकार थी उन कथित सवर्णों को, जो दलितों को मनुष्य से कमतर एवं प्रताड़ना योग्य मान कर चलते हैं. समता एवं समदृष्टि के लिए अनेक आंदोलनों तथा महापुरुषों के कठोर शब्द-प्रहारों के बावजूद पंडितों, साधु-संन्यासियों और राजनेताओं ने अपने ही हिंदू धर्म के अविभाज्य अंग दलितों के प्रति समाज में समानता लाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. मातृभूमि की रक्षा में सर्वोच्च बलिदान देनेवाले दलित की चिता से भी भेदभाव करने में ये 'सवर्ण देशभक्त' चूके नहीं.

इस परिदृश्य में जब अनेक घटनाओं के एकजुट प्रभाव से एक सार्वदेशिक दलित पुनर्जागरण का वातावरण दिखता है, प्रधानमंत्री मोदी ने गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी और दलितों पर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात और कर्नाटक हो रहे प्रहारों की करारी प्रताड़ना की है.

सार यह है कि दलितों पर जो प्रहार हो रहे हैं, वे प्रहार प्रधानमंत्री पर हो रहे हैं- इन आघात करनेवालों को क्षमा नहीं किया जायेगा. ये लोग अपने अहंकार और मूर्खतापूर्ण आवेश के कारण हिंदू समाज को ही भीतर से कमजोर कर रहे हैं. इतना ही नहीं, इसमें इसलामी और वामपंथी दखल शुरू होने से मामला और पेचीदा बनता गया है. दलित समस्या हिंदुओं की आंतरिक नासमझी की समस्या है- इसे इसलामी सहानुभूति की जरूरत नहीं.

वे लोग अपने वे लोग अपनी सामाजिक दुर्बलताओं को दूर करने का साहस पहले दिखाएं. कुछ दिन पहले फिल्म अभिनेता इरफान खान ने तनिक इसलामी सुधार की बात क्या कह दी कि मुसलमानों ने उस बेचारे का जीना दूभर कर दिया. मुसलिम कट्टरपंथी और वामपंथी अपनी राजनीति के लिए दलित-विषय का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन न तो समस्या का समाधान करने की क्षमता रखते हैं, न ही ऐसी उनकी नीयत है.

समाधान तो केवल हिंदू ही कर सकते हैं. उन्हें स्वयं से पूछना होगा कि कुछ जातियों को बड़ा और कुछ को छोटा वे किस अधिकार से कहते हैं? उनके पंडितों और साधु-संन्यासियों का व्यापार और राजनीति में बहुत दखल रहता है- लेकिन हिंदू समाज की रक्षक-भुजा दलितों के दर्द में ये पागधनी कितने शामिल होते हैं?

जब कभी दलितों पर अन्याय हुआ, तो ये धर्म के अनुरागी महामंडलेश्वर, मठाधीश कहीं दिखते नहीं. इनके द्वारा सैकड़ों विद्यालय चलाये जा रहे हैं. ऐसा कोई विद्यालय दिखाएं, जिनमें अनुसूचित जाति के बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए विशेष व्यवस्था की गयी हो. धर्मग्रंथों की मंत्रमुग्ध व्याख्या करने और तन्मय होकर कीर्तन करने से बात नहीं बनती, न ही धर्म बचता है.

गंदे मंदिर, गंदे तीर्थस्थान, संस्कृति से दूर पंडितों द्वारा भक्तों को छलना, हर बड़े मंदिर के पंडितों का मुकदमेबाजी में फंसे रहना, गायों की रक्षा का पाखंड- हर गली-मुहल्ले में प्लास्टिक खाकर मरती गायें, घोटालों में डूबीं गोशालाओं में तड़प-तड़प कर मरती भूखी गायें, हिंदू अफसरों की रिश्वतखोरी के बल पर उत्तर से पूरब की ओर बांग्लादेश धकेली जाती गायें- इन सबका जिम्मेवार दलित है या अहंकारी सवर्ण?

उत्तराखंड में इन सवर्णों की एकजुटता का सर्वदलीय आतंककारी स्वरूप मैंने स्वयं देखा है. वह दहशत भरा है. इन जैसे लोगों के कारण लाखों की संख्या में दलित हिंदू अन्य मजहबों में चले गये.

मेरा स्वयं का अनेक वर्ष जनजातियों एवं अनुसूचित जातियों में कार्य का अनुभव है कि कोई दलित कभी धर्म परिवर्तन नहीं करना चाहता. केवल सवर्ण अहंकार और अपमान से प्रतिशोध का उसके पास यही एक मार्ग होता है. ओड़िशा में 'काला पहाड़' किसने बनाया था? सर मुहम्मद इकबाल के कश्मीरी पिता को हिंदू से मुसलमान क्यों होना पड़ा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साहसिक वक्तव्य ने हिंदू समाज को नकारात्मक आघातों से समय पर बचाया है. समाज को तोड़ने में ज्यादा श्रम नहीं लगता. मूर्खता या षड्यंत्र का एक ही काम पलीता लगा देता है. गाय और दलित के नाम पर समाज विघातक तत्वों के षड्यंत्र देश को तोड़ देंगे. नरेंद्र मोदी ने ऐसे तत्वों को कड़ी चेतावनी तो दी ही है, साथ ही दलितों को अपनी आत्मीयता का रक्षा-कवच भी दिया है.