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दलित दर्द की खतरनाक अनदेखी-- तरुण विजय

किसी भी समाज का सबसे बड़ा अपमान उसके दर्द, उसके इतिहास और उसके संघर्ष को नकारना होता है. कश्मीरी हिंदुओं के साथ यही हुआ. तमाम सेकुलर-जेहादियों ने पुस्तकें लिख डालीं कि कश्मीर घाटी से हिंदू अपने सदियों पुराने घर-बागीचे अपनी मर्जी से छोड़ आये, ताकि मुसलमान बदनाम किये जा सकें.

आज महाराष्ट्र में दलितों के असंतोष को न तो हल्के ढंग से लेना चाहिए, न ही इसका सारा श्रेय विपक्षियों के षड्यंत्र पर डालना चाहिए. हिंदू समाज की भीतरी कमजोरियों का लाभ इस्लामी कट्टरपंथी उठायेंगे ही और वे दल तथा संगठन भी, जिनका राष्ट्रीय हितों से कोई सरोकार रहा ही नहीं है. जिनकी संपूर्ण राजनीति ही अपने परिवार पर टिकी है और जाति-संप्रदाय-भाषा के झगड़े भड़काकर चुनावी फायदा उठाने के एजेंडे पर चलती हो, उनसे अपेक्षा करना कि वे महाराष्ट्र में जातिगत विद्वेष नहीं भड़कायेंगे, यह मूर्खता होगी.

भीमा-कोरेगांव पुणे के पास भीमा नदी के तट पर एक गांव है, जहां ब्रिटिश सेना ने बाजीराव पेशवा की सेना को हराया था. 1 जनवरी, 1818 में हुए इस युद्ध में पूर्व ब्रिटिश सैनिक मारे गये थे, जिनमें 22 अनुसूचित जाति के थे. इस विजय से भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ें मजबूत हुईं. कहने को लड़ाई अंग्रेजों तथा भारतीय सेनाओं के मध्य थी, लेकिन दलितों की बहादुरी ने तब पीड़ित, वंचित, दबे हुए दलित समाज में एक विराट अभिमान पैदा किया.

उनके लिए उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण पेशवाओं का अहंकार तथा उनके द्वारा दलितों को तुच्छ मानने का व्यवहार इस युद्ध में दलित-बहादुरों द्वारा परास्त किया गया. इसे दलितों का दमन करनेवाले ब्राह्मण पेशवाओं पर दलित ताकत की जीत के रूप में देखा गया, न कि ब्रिटिश सैनिकों और भारतीय सेनाओं के मध्य युद्ध के रूप में. वहां अंग्रेजों ने एक स्मारक भी बनाया है.

स्वयं डॉ आंबेडकर इस स्मारक पर दलित वीरों को श्रद्धासुमन अर्पित करने गये थे और 1930 की प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस में उन्होंने कहा था कि दलितों ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए युद्ध लड़े तथा जीते. इन घटनाओं को एक पके-पकाये राष्ट्रवादी ढांचे से देखना गलत होगा. यह देश के विरुद्ध नहीं, बल्कि दलितों की दबी हुई सुप्त चेतना की वीरतापूर्ण अभिव्यक्ति ही थी.

यदि आज 2017 में भी देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों पर अत्याचार, और केवल कथित छोटी जाति के हिंदू होने के कारण उनसे शादी-ब्याह या सामाजिक व्यवहार कथित बड़ी जाति के हिंदू नहीं करते, अपने ही बच्चों की दलित से रिश्ते पर जान ले लेते हैं, उनके लिए पंडित अलग, श्मशान घाट अलग, और यमराज भी अलग हों, तो सोचिए कि दो सौ साल पहले उनके साथ क्या व्यवहार होता होगा.

व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है, अपमान नहीं भूलता. सवाल है कि जिन लोगों पर हिंदू समाज में समरसता का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी है, वे क्या कर रहे हैं? और अब तक वे क्या कर रहे थे?

यह विडंबना है कि भारत में हिंदुओं के संत समाज, करोड़पतियों का धर्म संभालते हैं, बाकी सब उनका प्रचार-प्रसार का कर्म होता है. वे विवेकानंद का नाम लेते हैं, पर विवेकानंद द्वारा हिंदू समाज के स्पृश्य-अस्पृश्य, भेदभाव, कर्मकांड के पाखंड पर जो तीखे प्रहार किये गये, उनको भूल जाते हैं.

गाय के लिए जान दे देंगे, ले लेंगे, पर छुआछूत खत्म नहीं करेंगे, दलित को अपना भाई नहीं बनायेंगे. जो मनुष्य अधरों पर राम का नाम लिये घर आये, वह यदि 'छोटी जाति' का है, तो न उसे पूजा में बिठायेंगे, न ही श्मशान घाट देंगे.

संघ में होने के कारण स्वयं मैंने अपने नाम के आगे जाति लगाना बंद किया, अंतरजातीय विवाह किया, दलितों को मंदिर ले जाने की कोशिश में पढ़े-लिखे कथित बड़ी जातियाें के मरणांतक पत्थर खाये. राष्ट्रपति पद पर एक समर्पित, विद्वान दलित का चुना जाना बड़ी घटना है. यह जमीनी स्तर पर भी भाव बदले तथा दलितों में अभिमान और आत्मविश्वास पैदा करे, इसका एक ढांचा खड़ा करना चाहिए.

डॉ आंबेडकर के प्रयासों से ही दलित आज स्वाभिमानी जागृत और चैतन्य बना है. उसे भीख नहीं, संरक्षण और दया भाव से प्रोत्साहन नहीं, अधिकार चाहिए. हम उसका मजाक उड़ाते हैं, आरक्षण व्यवस्था पर संदेह करते हैं, दलित लड़के का बड़े लोग की बेटी से प्रेम हुआ, तो उस दलित मां की सामूहिक बेईज्जती करते हैं.

यह इसलिए नहीं होता, क्योंकि वह सिर्फ हिंदू है, बल्कि इसलिए होता है, क्योंकि वह हिंदुओं में दलित है. ऐसी घटनाओं पर हमारे धर्मपुरुष खामोश रहते हैं. यहां धर्म संकट में नहीं पड़ता, क्योंकि चुनावों में, रोज के आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में कथित बड़ी जाति वालों का ही प्रभाव है. विडंबना है कि अपना राजनीतिक भविष्य बचाने के लिए अनुसूचित जाति के बड़े नेता भी चुप रहते हैं.

दलितों के मुद्दे लेकर मुस्लिम संगठनों की गतिविधियां समाज के लिए घातक वातावरण ही बनाती हैं. आजादी से पहले भी दलितों को हिंदुओं से अलग कर इस्लाम की ओर लाने के प्रयास हुए.

डॉ आंबेडकर ने इन प्रयासों को खारिज किया और वास्तव में हिंदू समाज के बहुत बड़े रक्षक बने. वर्तमान दलित नेताओं को यह बात समझनी चाहिए. विडंबना यह है कि कोई भी पार्टी अपने संगठन में दलितों को दलित समाज में नेतृत्व के लिए प्रोत्साहित करना नहीं चाहती. इसीलिए बड़े-प्रभावशाली पदों पर बैठे दलितों का अपने समाज पर कितना गहरा असर होता होगा, यह किसी भी संकट एवं पुणे जैसी परिस्थिति के समय पता चल जाता है.

दलित-मुस्लिम गठबंधन केवल हिंदू समाज के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के लिए भी खतरनाक है. पर हमारी स्मृति क्षीण और कार्ययोजना चुनाव से चुनाव तक होती है.

वरना 1980 के प्रारंभिक दशक में कुख्यात तस्कर हाजी मस्तान द्वारा दलित-मुस्लिम सुरक्षा महासंघ को स्थापना क्यों भूल जाते. जो लोग मानकर चलते हैं कि राजनीतिक विपक्षी तथा समाज को विषैले उपकरणों, साधनों से तोड़नेवाले संगठित भारत की प्रगति गाथा से प्रभावित होकर चुप रहेंगे, उनको हर पल, हर क्षण इन चुनौतियों से युद्ध करने पर विवश होना ही पड़ता है. दुनिया में किसी समाज में सुधार के उतने आंदोलन नहीं हुए, जितने हिंदुओं में. यह हिंदू समाज के धर्मनिष्ठ नेताओं और आध्यात्मिक विभूतियों के लिए एक चुनौती का समय है.