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दलित-प्रश्न और मीडिया- उर्मिलेश

जनसत्ता 25 अक्तूबर, 2013 : ‘नो वन किल्ड जेसिका’, सिर्फ एक शानदार अखबारी शीर्षक नहीं था। अपराध-दंड प्रक्रिया में व्याप्त विसंगतियों को उद्घाटित कर वह एक जन-अभियान का नारा बन गया, जिसने अंतत: कामयाबी हासिल की। लेकिन मध्य बिहार के लक्ष्मणपुर-बाथे में मारे गए दलित-उत्पीड़ित तबके के अट्ठावन लोगों के बारे में लंबे इंतजार के बाद नौ अक्तूबर को पटना उच्च न्यायालय का जो फैसला आया, उसके बाद ऐसी आवाजें नहीं उठीं। तरह-तरह के विषयों, असली-नकली विवादों, नियोजित-प्रायोजित समाचारों, पूर्वग्रहों-आग्रहों और अंधविश्वासों पर स्टूडियो-बहसों में उलझे रहने वाले देश के दर्जनों टीवी चैनलों पर भी उस शाम या अगले दिन कोई बहस नहीं सुनी गई।

राष्ट्रीय राजधानी से छपने वाले अखबारों का हाल भी इससे कुछ अलग नहीं था। अंग्रेजी में ‘द हिंदू’ और हिंदी में ‘जनसत्ता’ के अलावा अन्य अखबारों में यह खबर या तो छपी नहीं या छपी तो कहीं हाशिये पर। लक्ष्मणपुर बाथे के शोक में सिविल सोसायटी को भी शामिल होते नहीं देखा गया। हमारी सिविल सोसायटी क्या दलित के मामले में संजीदा नहीं है? क्या उसमें सिर्फ सवर्ण हिंदू समाज का सभ्य तबका है या कि वह सिर्फ शहरी समुदाय के सवालों पर आंदोलित होती है?

1 दिसंबर, 1997 की रात मध्य बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे गांव के अट्ठावन गरीब दलित लोगों की बड़े नृशंस ढंग से हत्या कर दी गई थी। अरवल-जहानाबाद इलाके के इस गांव में भूस्वामियों के हथियारबंद गिरोह ने उस रात औरतों-बच्चों को भी नहीं बख्शा। मारे गए लोगों में सत्ताईस औरतें और सोलह बच्चे थे, इनमें कुछ दुधमुंहे बच्चे भी थे। इलाके में सक्रिय एक दबंग समुदाय के भूस्वामियों की निजी सेना- ‘रणवीर सेना’ ने इस हत्याकांड को अंजाम दिया। तब बिहार ही नहीं, देश भर में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने माना कि भारतीय गणराज्य के लिए यह ‘राष्ट्रीय-शर्म’ है।

मगर इस ‘राष्ट्रीय शर्म’ पर बिहार की ‘सुशासन-मुखी’ सरकार का रवैया शर्मनाक रहा। उसने हत्याकांड की पुलिस-पड़ताल को निहित-स्वार्थों से प्रेरित अफसरों के हवाले कर दिया और पुख्ता साक्ष्यों की भी अनदेखी की गई। बताया जाता है कि साक्ष्यों और अन्य गवाहियों के साथ दलितों के हत्यारों और सत्ता-संरचना, खासकर नौकरशाही में बैठे उनके मददगारों को छेड़छाड़ करने का भरपूर मौका मिला। रही-सही कसर न्यायिक प्रक्रिया की अन्य जटिलताओं ने निकाल दी। पटना उच्च न्यायालय ने मुकदमे का फैसला सुनाते हुए सभी आरोपियों, जिन्हें निचली अदालत से फांसी या उम्रकैद की सजा मिली थी, को ठोस साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया। आरोपियों को संदेह का लाभ दिया गया। निचली अदालत ने अप्रैल, 2010 में इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर सोलह कूसरवारों को फांसी और दस को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। पटना उच्च न्यायालय के फैसले के बाद यह सवाल स्वाभाविक है कि लक्ष्मणपुर बाथे के दलितों की हत्या किसने की! हमारे गणराज्य के लिए ‘राष्ट्रीय-शर्म’ बताए गए इतने बड़े गुनाह का गुनहगार कौन था?

मुख्यधारा मीडिया में ये सवाल उसी तरह नहीं उठे, जिस तरह राष्ट्रीय राजधानी से सटे हरियाणा के गांवों-कस्बों में दलित बच्चियों के बलात्कार या बलात्कार के बाद हत्या के अनगिनत मामलों पर नहीं उठते। हाल के दिनों में हरियाणा के गांवों-कस्बों में दलित लड़कियों से बलात्कार या बलात्कार के बाद हत्या के बत्तीस से अधिक मामले दर्ज हुए। राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान (एनसीडीएचआर) के मुताबिक सिर्फ बीते दो-तीन साल के मामले जोड़े जाएं तो दलित महिलाओं के साथ जुल्मोसितम की बेहद खौफनाक तस्वीर उभरती है। ज्यादातर मामलों में इलाके के दबंग भूस्वामी समुदाय से जुड़े अपराधी ही अभियुक्त हैं, जिनका हरियाणा की सत्ता-सियासत और तिजारत में वर्चस्व माना जाता है।

पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले दिल्ली से संचालित मीडिया समूहों, खासकर न्यूज चैनलों में हरियाणा की दलित-महिलाओं पर ढाए जा रहे जुल्मोसितम की यह खौफनाक तस्वीर शायद ही कभी दिखती है। ऐसे में क्या आश्चर्य कि दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर बिहार के एक गांव में एक ही रात मारे गए अट्ठावन दलितों का मामला मुख्यधारा के मीडिया को बड़ा मुद्दा नहीं लगता!

चलिए, मीडिया तो व्यावसायिक संस्था है, पर मुख्यधारा के राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी इससे ज्यादा अलग नहीं थी। वे भी मीडिया की तरह इस पर चुप रहे। दलितों के हालात पर आंसू बहाने वाले इन दलों के नेताओं ने एक बयान तक देना मुनासिब नहीं समझा। दोनों की निर्मम खामोशी के कारण लगभग एक जैसे हैं।

यह पहला दलित हत्याकांड नहीं है, जिसके विस्मयकारी अदालती फैसले पर ऐसी राष्ट्रीय खामोशी देखी गई। इस फैसले से पहले बिहार के ही बथानी टोला और नगरी बाजार के हत्याकांडों में भी निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए उच्च न्यायालय ने कसूरवारों को साक्ष्य के अभाव में बरी किया था। इन दोनों हत्याकांडों में दलित-उत्पीड़ित जाति-समुदाय के लोगों को दबंग-भूस्वामियों द्वारा नृशंसतापूर्वक मारा गया। बथानी टोला हत्याकांड मामले में जुलाई, 2012 और नगरी बाजार हत्याकांड के बारे में मार्च, 2013 में पटना उच्च न्यायालय का फैसला आया था। इन फैसलों को लेकर समाज के उत्पीड़ित तबकों में गहरी निराशा और आक्रोश देखा गया।

दलित-उत्पीड़ितों पर संगठित भूस्वामी-हमलों और हत्याकांडों का बिहार में पुराना सिलसिला रहा है। दलितों के सर्वाधिक हत्याकांड कांग्रेस के राज में हुए। ज्यादातर मामलों में कूसरवारों को कभी सजा नहीं मिली, क्योंकि वे बेहद संगठित और राजनीतिक-आर्थिक तौर पर ताकतवर रहे हैं। कुछेक को मिली भी तो नाममात्र के लिए। तत्कालीन सरकार और उसके अधीन काम करने वाले नौकरशाहों ने दलितों के हत्यारों को बचाने की हर संभव कोशिश की। 1971 के नृशंस रूपसपुर चंदवा हत्याकांड को बिहार में दलित-आदिवासी समुदाय पर संगठित हमले का पहला राजनीति-प्रेरित कांड माना जाता है। इसमें संथाल आदिवासी मारे गए थे। बिहार विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष लक्ष्मीनारायण सुधांशु के परिवार के सदस्य भी आरोपियों की सूची में शामिल थे।

तब से लेकर सन 1989 के दनवार बिहटा हत्याकांड तक, कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकारों में शामिल नेताओं-नौकरशाहों ने हमेशा दलितों के खिलाफ भूस्वामी गिरोहों का साथ दिया। कांग्रेस-शासन में हुए अन्य हत्याकांडों में अरवल जनसंहार खासतौर पर उल्लेखनीय है, जिसमें भूस्वामियों और पुलिस ने मिल कर तेईस दलित-पिछड़ों को मार डाला था। उस वक्त वे मजदूरी और इज्जत की रक्षा के सवाल पर आमसभा कर रहे थे। सन 71 से 89 के बीच पारसबिघा, नोनही-नगवां, छेछानी और कंसारा सहित तीन दर्जन से अधिक दलित-पिछड़े समुदाय के लोगों के सामूहिक जनसंहार हुए। कांग्रेस शासित-सरकारों में नेतृत्व चाहे जिसका रहा हो, भूस्वामियों की निजी सेनाओं के खिलाफ कभी निर्णायक कदम नहीं उठाए जा सके। इस तरह की हिंसा की जड़ में जमीन, इज्जत और मजदूरी के सवाल थे, उन्हें संबोधित करने की कोशिश भी नहीं की गई। हुक्मरान दबंग भूस्वामियों के पक्ष में खड़े दिखे।

नतीजतन, 1989-90 आते-आते बिहार के दलितों-पिछड़ों ने पूरी ताकत से कांग्रेस को उखाड़ फेंका और फिर वह सत्ता में कभी नहीं आई। दलितों-गरीबों के लिए बड़ी-बड़ी बातें कर रहे राहुल गांधी को आज कौन बताए कि बिहार में कांग्रेस का नेतृत्व हमेशा भूमि-सुधार के एजेंडे के खिलाफ खड़ा रहा। कांग्रेस-राज के पतन के बाद बिहार की सत्ता में आई लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की सरकारों से बुनियादी भूमि सुधार की जो अपेक्षा थी, उसे इन तीनों में किसी ने पूरा नहीं किया। सुशासन के सूत्रधार और अपने को ‘विजनरी’ साबित करने के लिए नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के कुछ समय बाद बंगाल के ‘आपरेशन-बर्गा’ के योजनाकार माने जाने वाले अवकाशप्राप्त आइएएस अधिकारी डी बंद्योपाध्याय को बिहार बुला कर उनकी अगुवाई में भूमि सुधार के लिए एक आयोग बनाया। लेकिन कुछ ही समय बाद आयोग को ठंडे बस्ते में डालने का सिलसिला शुरू हो गया।

बंद्योपाध्याय आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट अप्रैल, 2008 में सरकार को सौंपी। पर सरकार ने उसे कूड़ेदान में डाल दिया। समस्या जस की तस बनी रही। बिहार की नौकरशाही और पूरे राजकाज पर पहले की तरह ही भूस्वामी-नवधनाढ्य वर्गों और उनके विचारों का वर्चस्व जारी रहा। सत्ता के शीर्ष पर चाहे जो रहे, सरकार चलाने वालों का वर्ग चरित्र, सरोकार और सोच में कोई गुणात्मक बदलाव कभी नहीं आया। सत्ता-शीर्ष पर बदलाव से कुछ मामूली फर्क जरूर दिखे, पर वे निर्णायक नहीं साबित हुए।

अब नीतीश कुमार सरकार ने बथानी टोला संबंधी पटना उच्च न्यायालय के फैसले की तरह लक्ष्मणपुर बाथे पर फैसले को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का फैसला किया। लेकिन सिर्फ चुनौती देने से क्या होगा? अगर सरकार की पुलिस, उच्च नौकरशाही और नेता खुद गुनहगारों के बचाव में उतर आएंगे तो न्यायिक प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ेगी? न्यायालय में पूरे मामले को इतना कमजोर बना कर पेश कर दिया जाएगा कि न्याय पाने की संभावना ही न रहे। ज्यादातर हत्याकांडों के मामले में शुरू से ही सरकारी महकमों, खासतौर पर बिहार पुलिस की भूमिका संदिग्ध ही नहीं, गुनहगारों के पक्ष में दिखती रही है।

पारसबिघा हत्याकांड के बारे में तो माननीय उच्च न्यायालय ने 3 जुलाई, 1986 के अपने ऐतिहासिक फैसले में यहां तक कह दिया कि सरकार में बैठे लोग ही हत्यारों को बचाने में लगे रहे। यही हाल लक्ष्मणपुर बाथे का रहा। बताया जाता है कि राज्य की नौकरशाही में वर्चस्व रखने वाला एक खास जातीय-समूह हर हाल में गुनहगारों को बचाने में जुटा था। जिस तरह यह मुकदमा लड़ा गया, पुलिस ने मामले की जांच-पड़ताल की, जिस तरह एक प्रमुख गवाह को पुलिस की नौकरी देकर कुछ खास अफसरों के मातहत रखा गया, उससे एक साथ कई सवाल उठते हैं।

इससे साफ है कि नौकरशाही की नीयत में शुरू से खोट था। अदालती फैसले के बाद लक्ष्मणपुर बाथे के लोग दहशत में हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या उनके मंत्री-उच्चाधिकारी निराश और दहशतजदा दलितों को भरोसा दिलाने इस गांव के दौरे पर जाने का वक्त नहीं निकाल सके। अचरज की बात है कि सुशासन की बात करने वाले नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के तत्काल बाद लक्ष्मणपुर बाथे कांड से जुड़े तमाम पहलुओं और रणवीर सेना की आपराधिक गतिविधियों की जांच के लिए पूर्ववर्ती राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित अमीर दास जांच आयोग को भंग कर दिया। जिस समय यह हत्याकांड हुआ, बिहार में राबड़ी देवी की सरकार थी। नीतीश के सरकार में आने के बाद एक दिन अचानक इस आयोग को खत्म कर दिया गया।

बताते हैं कि अमीर दास जांच आयोग के घेरे में कांग्रेस, भाजपा, जद (एकी) और राजद के भी कुछ नेता आ गए थे। इससे तत्कालीन जद (एकी)-भाजपा गठबंधन के शीर्ष नेता परेशान थे। भाजपा के कुछ प्रमुख प्रांतीय नेताओं ने अपने गठबंधन-सहयोगी जद (एकी) के नेताओं को समझा-बुझा कर आयोग को अंतत: भंग करा दिया। अगर आयोग को पड़ताल करने दिया गया होता तो उच्च न्यायालय के समक्ष शायद साक्ष्यों की किल्लत न होती, जिसे कथित आधार बना कर न्यायालय ने सारे आरोपियों को बरी किया।

आयोग से भी ज्यादा जरूरी थी, मीडिया की निष्पक्षता और सक्रियता। लेकिन दलितों के मामले में मीडिया भी पूर्वग्रहों का शिकार दिखा। जिस समय नीतीश इस आयोग को भंग कर रहे थे, बिहार में मीडिया का बड़ा हिस्सा तत्कालीन जद (एकी)-भाजपा गठबंधन के सुशासन की तारीफों के पुल बांधने में जुटा रहता था। राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया को दूर-दराज और दलित-आदिवासियों के दुख-दर्द की चिंता करने के लिए वक्त ही कहां है!