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दलित विमर्श का हाशिए पर जाना-- बद्रीनारायण

स बार के संसदीय चुनाव में दलित विमर्श हाशिए पर जाता दिख रहा है। एक तो राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में दलित समाज को वंचित श्रेणी में रखकर महिलाओं और अन्य वंचित-शोषित समुदायों के साथ ही प्रस्तुत किया जा रहा है। लिखित और प्रकाशित घोषणापत्रों व प्रचार सामग्रियों में ‘दलित' शब्द की जगह ‘अनुसूचित जाति' और ‘वंचित' जैसे शब्द आने लगे हैं। दलितों के लिए भी अन्य के साथ कुछ वादे शामिल कर लिए गए हैं। पहले दलितों की जातीय अस्मिताओं को तुष्ट करने के लिए उनके गुरुओं, संतों, परंपराओं को महत्व देने के वादों से चुनावी विमर्श भरे रहते थे। ऐसे अस्मिता वाले प्रतीक इस बार के चुनावी विमर्श में न के बराबर दिख रहे हैं। उनके लिए अनेक राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में अगर थोड़ा-बहुत कुछ है भी, तो उनमें मध्य वर्ग और शहरी दलितों की चिंताओं का दबाव दिख रहा है। ग्रामीण दलितों की चिंताएं हाशिए पर हैं।

यह प्रवृत्ति चुनावी वृत्तांतों में एक नए बदलाव की कहानी कह रही है। कांग्रेस की चुनावी शब्दावली में 30-40 साल पहले की राजनीतिक शब्दावली लौटने लगी है। कांग्रेस ने जो चुनावी वृत्तांत खड़ा किया है, उसमें गरीब को फिर से एक वर्ग के रूप में पेश किया गया है। दलित उसी का हिस्सा बनकर, उसी में कहीं शामिल है। कांग्रेसी वृत्तांत में दलितों का दुख ग्रामीण बदहाली का हिस्सा बनकर आया है। भारतीय जातीय सामाजिक व्यवस्था के कारण उनके दुख की जातीय व्यवस्थापरक विशिष्टता और पड़ताल इसी नई भाषा में न के बराबर हैं। एक प्रकार से फिर वर्गीय और आर्थिकता केंद्रित शब्दावली की वापसी हो रही है, जो सत्तर के दशक की राजनीति के मूल में थी। किसान शब्द भारतीय राजनीति से गायब हो गया था। वह मात्र एक प्रतीकात्मक शब्द बनकर रह गया था। इस बार दलों के राजनीतिक वृत्तांत में किसान फिर से एक शक्तिवान शब्द और श्रेणी बनकर उभरा है। दलित या तो गरीब का हिस्सा है या भूमिहीन खेतिहर किसान का। माक्र्सवादी शब्दावलि और भारतीय राजनीति की मध्यमार्गी भाषा में दलित शब्द के लिए सही जगह नहीं थी, दलित शब्द को आंबेडकर ने एक नई शक्ल और पहचान दी थी। भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक वृत्तांत में भी मध्यवर्गीय वंचितों और आकांक्षापरक उद्यमियों की छवि में दलित वंचित के रूप में रहा है। अब यह अनुसूचित जाति के रूप में छिप जा रहा है। ऐसा भी लगता है कि हमारी राजनीति गरीब, वंचित और दो जून की रोटी के लिए जूझते दलित की छवि से मुक्त होना चाहती है। इस बीच विकसित और उद्यमी के रूप में परिवर्तित होते दलित की नई छवि भी गढ़ी जा रही है। इस नई छवि के लिए बहुत सारे आंकडे़ और सर्वेक्षण भी सामने आ रहे हैं।

कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस बदलाव को अस्मिता की राजनीति का खत्म होना भी मानते हैं। उनकी मान्यता है कि अब एक नई विकासपरक राजनीति विकसित हो रही है, जिसके केंद्रीय तत्व के रूप में समुदायों की तेजी से विकास करने की आकांक्षाएं हैं। वे मानते हैं कि इसी विकासपरक छवि के विस्तार ने अस्मिता वाले विमर्श को हाशिए पर धकेला है। नतीजा यह है कि इस बार चुनावी विमर्श में दलित शब्द लगभग गायब हो रहा है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती, महागठबंधन में शामिल समाजवादी पार्टी और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद दलित चिंताओं का इस्तेमाल कांशीराम द्वारा गढे़ गए शब्द बहुजन के रूप में कर रहे हैं। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के रामदास अठावले, जिनकी पूरी राजनीति दलित आंदोलन से उपजी है, भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल होकर अपने दलित विमर्श को कहीं न कहीं उसके विमर्श से जोड़ चुके हैं।

बहुजन समाज पार्टी हालांकि सर्वसमाज की बात करती है, लेकिन उसका राजनीतिक विमर्श अभी भी बहुजन गोलबंदी पर टिका हुआ है। अत: बहुजन दलित की बात करना उसकी राजनीतिक आवश्यकता है। भीम आर्मी के चंद्रशेखर भी अपनी राजनीति को बहुजन अवधारणा के इर्द-गिर्द ही संयोजित करने में लगे हैं, उनकी भी राजनीतिक जरूरत है- दलित-बहुजन भावों और चिंताओं को महत्व देना। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के लिए भी पिछड़ा-दलित गठबंधन बनाने के लिए बहुजन अस्मिता की बात करना जरूरी है। राजनीतिक जरूरतों की बात अगर छोड़ दें, तो दलित विमर्श 2019 की चुनावी चर्चा में हाशिए पर चला गया है। बिहार में दलित राजनीति के आधार पर खड़े रामविलास पासवान और उनके दल लोक जनशक्ति पार्टी के विमर्शों में तो दलित शब्द कब का हाशिये पर पहुंच चुका है। दक्षिण भारत और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के चुनावी समीकरण में दलित मौजूद तो है, पर वहां के चुनावी विमर्शों में वह सीमांत पर पहुंच चुका है।

ऐसा क्यों हो रहा है? दलित आबादी तो पहले से बढ़ी ही है। दलित मत भी बढ़ ही रहे हैं। उनके जीवन की स्थितियों और समस्याओं में कोई बदलाव आया हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। उनकी सोच या जनमानस में कोई बड़ा बदलाव आया हो, कोई ऐसा अध्ययन भी हमारे सामने नहीं है। क्या यह सिर्फ इसलिए हो गया कि देश के दो बडे़ राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी एजेंडे को नए ढंग से संयोजित कर दिया? या फिर पिछले कुछ समय में दलित राजनीति चुनावी रूप से कमजोर हुई है? क्या दलित बहुजन मतों में बिखराव बढ़ा है? क्या दलित नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा दलित बहुजन की स्वायत्त राजनीति बनाने का सपना देखना छोड़ बड़े राजनीतिक दलों में या तो समाहित हो गया है या उन पर निर्भर हो गया है? क्या दलित और बहुजन जातियों के बड़े राजनीतिक दलों के विमर्श से जुड़ जाने के कारण ऐसा हुआ? क्या नई बाजार व्यवस्था में इस तरह के वर्गों की राजनीति अप्रासंगिक होने लगी है? हालांकि सुहलदेव राजभर की पार्टी जैसे जातीय दल इसी दौर में सामने आए हैं और उन्होंने अपने लिए जगह भी बनाई है। ये सारे प्रश्न अपना उत्तर 2019 के चुनाव विमर्श में खोज रहे हैं। उत्तर का इंतजार है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)