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दलितों का दर्द- श्योराजसिंह बेचैन

उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न की घटनाएं चर्चा का विषय हैं। बहन मायावती के मुख्यमंत्री काल में इन घटनाओं का होना ज्यादा चिंताजनक है। राहुल गांधी का कहना है कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर दलित समस्या का समाधान हो जाएगा। सपा और भाजपा भी दलित समुदाय की बेहतरी के लिए अपनी-अपनी पार्टी का सत्ता में आना जरूरी बता रहे हैं। पर जनता क्या करे? इनमें से कौन-सी पार्टी है, जिसका शासन दलितों ने नहीं देखा?

आजादी के बाद पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं में कांग्रेस ने दलितों की हालत में सुधार लाकर सामाजिक समानता स्थापित करने का आश्वासन दिया था। पर हकीकत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। भाजपा और सपा के प्रयोग भी राज्य में देखे गए। फिर बहुजन समाज पार्टी ने देश के इस सबसे बड़े राज्य में अपनी मजबूत पैठ बनाई। बसपा एक ओर तो काडर आधारित जमीन से जुड़ी पार्टी है, फिर यह बाबा साहब अंबेडकर के लोकतांत्रिक दर्शन को लेकर आगे बढ़ी है। संविधान के प्रति आस्था के कारण कानून-व्यवस्था का राज कायम करने वाली इस पार्टी का नेतृत्व जमीनी सचाइयों से सर्वाधिक परिचित था। पर आखिरकार वे कौन-सी खामियां हैं, जो इसे कमजोर बना रही हैं? राज्य भर में दलित महिलाएं भला क्यों असुरक्षित हो उठी हैं?

यह कहना गलत होगा कि बसपा काम नहीं कर रही। काम हो रहे हैं। उनकी समीक्षाएं भी हो रही हैं। मौके पर मुख्यमंत्री खुद पहुंच रही हैं। औचक निरीक्षण हो रहे हैं। मुख्यमंत्री के दौरे के दबाव से कामकाज एकाएक निपटते जा रहे हैं। पर दबाव से नहीं, दिल से दायित्व निर्वाह करने की जरूरत है। सरकार ने हाल ही में अपना बजट विज्ञापित किया है। हर क्षेत्र में बजट बढ़ा है। राज्य में 1,126 नए प्राथमिक विद्यालयों के निर्माण के आदेश दिए जा चुके हैं। लेकिन हकीकत यह है कि प्रदेश के नगरों-महानगरों में आवास विकास कॉलोनियों के लाखों लोगों के बीच से सरकारी स्कूल, जिनमें दलित और कम आय वर्ग के बच्चे शिक्षा पा सकते थे, गायब हो गए हैं। दलितों को केवल कानून के जरिये आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता। शिक्षा ही किसी भी व्यक्ति के आत्मबल का साधन है।

पर विडंबना यह है कि बसपा के राज में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण पूरे शोषण चक्र की तरह चल रहा है। लाखों एकड़ सरकारी जमीनें स्कूल-कॉलेज खोलने के नाम पर कौड़ियों में कब्जा ली गई हैं। इन स्कूलों-संस्थानों का शुल्क इतना ज्यादा है कि दलित और अति पिछड़े वर्ग के बच्चे इनमें दाखिला लेने की कल्पना भी नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, जब निजी स्कूल-कॉलेजों के लिए जमीन दी गई, तो दलितों के लिए उनके प्रतिनिधित्व के अनुसार स्वामित्व दिलाने के कारगर उपाय नहीं हुए। अनपढ़ और गरीब रहकर बहुजन का राज नहीं चल सकता।

दलित समाज की दूसरी बड़ी कमजोरी है, स्तरहीन और दोयम दरजे की शिक्षा से पैदा हुई बेरोजगारी। यह दलित दासता का बेहद शर्मनाक रूप है। पिछले महीने शाहजहांपुर के पास ट्रेन की छत से गिरकर दर्जनों बेरोजगार युवकों की मौत क्या संदेश छोड़कर गई है? जहां तक अपराध के ग्राफ का सवाल है, तो बसपा के राज में इसमें भी कमी नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता, तो राहुल गांधी से लेकर मुलायम सिंह तक को इस सरकार के खिलाफ आवाज उठाने का अवसर कैसे मिल रहा है?

बसपा सरकार ने शिक्षा, बाल और महिला कल्याण पर भी बजट राशि बढ़ाई है, पर देखना यह है कि यह राशि जरूरतमंदों तक पहुंचती कितनी है और फतेहपुर जैसे कांडों की आग बुझती है या नहीं। उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले अचानक बढ़ गए हैं। मामला केवल उत्तर प्रदेश का या केवल दलित स्त्री का नहीं है। पीड़ित दलित नारी की प्रतिनिधि के रूप में राहुल गांधी को एक कलावती मिली थी, जिसकी व्यथा-कथा को वह संसद में ले गए थे। कितनी ही कलावतियों की कथाएं आज अनकही पड़ी हैं।

ऐसी ही एक कलावती बुलंदशहर के डिबाई क्षेत्र में भीमपुर नगला की रहने वाली है। उनके पास जमीन नहीं है, आय का कोई जरिया नहीं है और घर अधबना पड़ा है, क्योंकि इंदिरा आवास योजना से इसे आधा पैसा भी नहीं मिला। हाल ही में उनके दूसरे बेटे को गांव के दबंगों ने मार डाला। बड़ा बेटा दो साल पहले मर चुका है। कलावती पहले ही विधवा हैं और अब दो बहुएं भी विधवा हो गई हैं। घर में दो पिताओं के छोड़े हुए करीब डेढ़ दर्जन बच्चे हैं। ये सब के सब नाबालिग और स्कूल में पढ़ने के बजाय बाल श्रम शोषण में फंसने को अभिशप्त हैं। फिर भी इस दलित कलावती को मायावती से न जाने कितनी उम्मीदें हैं। मायावती सरकार ने प्रदेश में बाल और महिला कल्याण के लिए 587 करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य रखा है। क्या उसमें से थोड़ा-सा पैसा इस कलावती तक पहुंचेगा? क्या कलावती का घर बन पाएगा?

अगर दलितों के सिर पर छत नहीं है, तो सामाजिक सुरक्षा योजना का भी कोई औचित्य नहीं है। सबसे बड़ा काम है प्रदेश में ऐसा वातावरण निर्मित करना, जिससे दलितों पर अत्याचार करने को शान समझने वाले खुद पर शर्म करें। यह तभी होगा, जब दूसरी जाति को अपनी जाति जैसी समझने की समाज में समझ बढ़ेगी। आखिर दो सौ साल बाद अमेरिकी संसद ने रंगभेद और नस्लभेद के लिए क्षमा मांगी। करीब चार हजार साल बाद अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने यह रेखांकित किया है कि द्रोणाचार्य ने गुरु का फर्ज पूरा न कर एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा लेकर अन्याय किया। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में एक कहानी शंबूक की जवाहरलाल नेहरू भी लिख गए। इतने सारे सकारात्मक संदेश इस बिगड़ती समाज व्यवस्था में सुधार की आखिर कुछ उम्मीद तो जगाते ही हैं।