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दशकों के हासिल पर ग्रहण-- गौतम भाटिया

एक महिला अपने पुराने संस्थान के शक्तिशाली मुखिया पर उत्पीड़न और शोषण के आरोप लगाती है। आरोप ब्योरेवार हैं, ऑडियो और वीडियो प्रमाण के साथ। संस्थान के प्रमुख अगले ही दिन सुबह अपने दो सहयोगियों के साथ एक विशेष बैठक बुलाते हैं। वह शिकायतकर्ता के चरित्र हनन में लग जाते हैं और इसे संस्थान के विरुद्ध साजिश करार देते हैं। इस कार्य में उन्हें संस्थान के दो बहुत वरिष्ठ अधिकारियों का समर्थन मिल जाता है। कुछ दिन बाद, तीन अन्य सहयोगी एक और बैठक करते हैं, जहां वे अपने संस्थान प्रमुख को चरित्र के लिए जमानत देते हैं, और साजिश की जांच में पुलिस और जांच एजेंसियों को शामिल करने के संकेत देते हैं, और अंतत: एक रिटायर्ड वरिष्ठ सहयोगी द्वारा जांच करवाने पर सहमत हो जाते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी जोर देते हैं कि इसका उन आरोपों से कोई लेना-देना नहीं है।

साथ ही, संस्थान प्रमुख के तीन अन्य सहयोगी आंतरिक जांच के लिए स्वयं की समिति गठित कर लेते हैं। इनमें से एक सदस्य तत्काल समिति से हटने के लिए मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि यह पता चल जाता है कि उन्होंने पहले ही संस्थान प्रमुख के पक्ष में सार्वजनिक बयान दे रखा है। आंतरिक समिति एक स्थानापन्न सदस्य - एक और सहयोगी के साथ आगे बढ़ती है। सुनवाई में शिकायतकर्ता के बारे में कहा जाता है कि यह अनौपचारिक समिति है, जिसे नियत कानूनी प्रक्रिया या यौन उत्पीड़न शिकायत समाधान की श्रेष्ठ व्यवस्था को मानने की जरूरत नहीं है।

कार्यवाही की वीडियोग्राफी नहीं होती, शिकायतकर्ता को उसके बयान का रिकॉर्ड नहीं दिया जाता, उसे एक वकील की भी सुविधा नहीं दी जाती। शिकायतकर्ता यह बोलती हुई कार्यवाही से पीछे हट जाती है कि उसे न्याय मिलने पर विश्वास नहीं है। अनेक संगठनों ने उस संस्थान को लिखा कि न्याय करने के लिए कुछ आधारभूत प्रकियाओं का पालन जरूरी है। जैसे समिति में एक बाहरी सदस्य भी रखा जाए, सुबूत लेने की औपचारिक प्रक्रिया रहे। दलील दी गई कि मामला इसलिए भी विशेष महत्व का है, क्योंकि शिकायतकर्ता और आरोपी की शक्ति के बीच बहुत ज्यादा अंतर है। अनौपचारिक आंतरिक जांच समिति अपने अनौपचारिक तरीकों से आगे बढ़ी और संस्थान के प्रमुख को (अनौपचारिक?) क्लीन चिट प्रदान कर दी। रिपोर्ट उजागर नहीं है। शुरू से अंत तक, मामले ने तीन सप्ताह से भी कम समय लिया है।

हम सब यह क्या बना रहे हैं? एक बात स्पष्ट है, यदि इस प्रक्रिया को अदालत के सामने चुनौती दी जाए, तो अदालत इसे ठुकराने और जांच के नए आदेश देने में दस सेकंड से ज्यादा समय नहीं लगाएगी। अदालत के सामने जो चीजें होंगी, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं : संस्थान के प्रमुख (और उनके वरिष्ठ सहयोगियों) द्वारा शिकायतकर्ता के चरित्र और मंशा पर सार्वजनिक प्रश्न उठाना, जांच समिति का अनौपचारिक चरित्र (जो प्रतीत होता है कि नियत प्रक्रिया की सभी बाधाओं से ऊपर था), शिकायतकर्ता के मूलभूत अधिकारों से इनकार, और दोनों पक्षों के बीच मौजूद शक्ति असंतुलन को स्वीकार करने की मंशा का पूर्ण अभाव।

लेकिन हम तब क्या करें, जब आरोपी भारत के प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट में उनके सहयोगी न्यायाधीश, वरिष्ठ अधिकारी अटार्नी जनरल, सोलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया, और दिल्ली पुलिस, सीबीआई और आईबी जैसी जांच एजेंसियां हों? हम तब क्या करें, जब कानून का सर्वाेच्च अभिभावक ऐसा व्यवहार करे, मानो वह कानून से ऊपर हो? किससे अपील की जाए और दोषपूर्ण प्रक्रिया के विरुद्ध किसका सहारा लिया जाए?

यहीं आकर इन प्रक्रियाओं में सुप्रीम कोर्ट का व्यवहार कोरा या फीका हो जाता है, जब हम प्रधान न्यायाधीश और एक पूर्व कर्मचारी के बीच शक्ति असंतुलन देखते हैं। यह सच है, सुप्रीम कोर्ट किसी अपने के ही विरुद्ध जांच कर रहा था और इस प्रक्रिया में आगे कोई अपील नहीं हो सकेगी। ऐसे मजबूत कारण हैं, जब कोर्ट को नियत प्रक्रिया, समानता व शिकायतकर्ता के अधिकारों के प्रति और ज्यादा सावधान रहना चाहिए था। इस बात को सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने आतंरिक समिति को लिखे अपने पत्र में माना, उन्होंने विशेष रूप से कुछ मुद्दों की ओर इशारा किया, और कहा कि इन मुद्दों का ध्यान रखना चाहिए, जबकि अभी हमें जो मिला, उसे केवल एक दिखावे के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

जिस तरह से आतंरिक समिति की (गोपनीय) रिपोर्ट ने संस्थान प्रमुख को दोषमुक्त करार दिया है, उसका बहुत गहरा परिणाम होगा। पिछले 20 वर्षों में भारत में यौन उत्पीड़न संबंधी कानून ने बहुत धीमे कदम बढ़ाए हैं। वर्ष 1997 के विशाखा दिशानिर्देश से लेकर वर्ष 2013 के यौन उत्पीड़न निरोधक कानून तक - शक्ति असंतुलन, प्रक्रियागत न्याय, पीड़ित के अधिकारों के संरक्षण के लिए नियत आधारभूत सिद्धांतों पर जो लड़ाई लड़ी गई है, वह आंशिक रूप से ही सफल रही है। जैसे हाल ही में हमने मी-टू अभियान में मानहानि की शिकायतों की बौछार देखी है। लड़ाई समापन से बहुत दूर है, लेकिन अभी जो सुप्रीम कोर्ट ने किया है, उससे एक ही झटके में विगत दो दशकों की उपलब्धियां फीकी पड़ गई हैं।

उन्होंने यह बता दिया है कि जब अपने पर बात आती है, तो शक्ति असंतुलन मायने नहीं रखता, नियत प्रक्रिया मायने नहीं रखती, न्याय की मूलभूत परंपराएं मायने नहीं रखतीं। अब आगे इसका जो प्रभाव होगा, उसकी कल्पना हम कर सकते हैं। अगर कानून के शासन की अभिभावक संस्था, जिससे देश के सामने नैतिकता की मिसाल पेश करने की आशा की जाती है, वह इस तरह से काम करती है, तो किसी अन्य को दूसरी तरह से व्यवहार क्यों करना चाहिए? ऐसा व्यवहार दिखाने के बाद कोई अदालत अब किस मुंह से लोगों को अलग तरह से व्यवहार करने के लिए कहेगी?

इन सवालों के उत्तर किसी और दिन। आज तो केवल यही मायने रखता है कि यौन उत्पीड़न के दावे से जुड़े मामले में इस सर्वोच्च संस्था से न्याय की अपील की गई थी, जिसमें हर तरह से विफलता हाथ लगी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)