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दादरी कांड, 'भीड़-न्याय' और उसके खतरे! - एनके सिंह

पिछले 70 सालों में भारत में शायद ही कोई ऐसा नेतृत्व रहा हो, जिसे विदेशों में इतनी सकारात्मक उत्सुकता से देखा जा रहा हो, जितना नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को। इसमें दो-तरफा वाणिज्य भी है और उभरते भारत की तस्दीक भी। जुकरबर्ग, पिचाई, नडेला बेमतलब ही फोटो खिंचवाने नहीं आते। मोदी विरोधियों को यह समझना पड़ेगा कि जब से भारत की अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ समेकित हुई है, कोई भी राष्ट्र अलग-थलग रहकर नहीं चल सकता। और साथ ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी समझना पड़ेगा कि 'मेक इंडिया" का रास्ता 'मेक इन इंडिया" से ही होकर जाता है। ऐसा नहीं हो सकता कि पहले भारत का विकास कर लें, फिर विदेश से पूंजी निवेश की बात करें। अगर मोदी विदेश जाकर दुनिया के बड़े उद्योगों के सीईओ को भारत आने का निमंत्रण देते हैं तो यह कटोरा लेकर भीख मांगना नहीं है। हर देश के नेताओं ने यह किया है।

लेकिन जिस दिन मोदी विदेश में भारत के बदलते परिवेश का विश्वास दिलाकर वापस लौट रहे थे, उसी दिन देश की राजधानी से मात्र 45 किलोमीटर दूर दादरी के बिसड़ा गांव में बहुसंख्यकों ने एक मुसलमान परिवार के मुखिया अखलाक को घर से खींचकर मार डाला और पुत्र दानिश (22) को गंभीर रूप से घायल कर दिया, क्योंकि उन्हें शक था कि परिवार ने बछड़े को मारकर उसका मांस पकाया व खाया है। कानूनन गौहत्या करना और गोमांस का सेवन वर्जित है। लेकिन कानून यह भी वर्जित करता है कि शक के आधार पर कुछ लोग किसी परिवार पर हमला करें और हत्या कर दें। परिवार के सभी लोगों ने कहा कि बर्तन और फ्रीज में पड़ा गोश्त बकरे का है, लेकिन उन्मादी भीड़ ने विश्वास नहीं किया। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं। इधर हाल के दो महीनों में गोकशी को लेकर एक संप्रदाय-विशेष के लोगों को गोकशी के आरोप में मारने की कई घटनाएं देखने में आई हैं। इसके पहले पास के बुलंदशहर में कुछ लोगों को रोका गया इस आरोप के साथ कि ये गाय और बछड़े खरीदकर वध के लिए ले जा रहे हैं। थोड़ी ही देर में आसपास के लोग जुट गए और इन्हें पीट-पीटकर मार डाला। वहीं कानपुर में एक युवक को चोरी के शक में रोका गया और उसे पहले चोर और फिर पाकिस्तानी एजेंट बताकर इतना मारा गया कि वह मर गया।

1943 में एक हॉलीवुड फिल्म आई थी : द ऑक्स-बो इंसिडेंट। हेनरी फोंडा और एंथोनी क्विन अभिनीत यह फिल्म आज भी एक क्लासिक है। फिल्म भीड़ के न्याय या यूं कहें कि विजिलेंटी जस्टिस (समाज में सतर्कता के लिए स्वनियुक्त लोगों का न्याय) को बेहद संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती है। कथासार इस तरह है : दो घुमंतू यात्री एक पश्चिमी अमेरिकी प्रांत से गुजर रहे होते हैं। वे एक कस्बे की सराय में रुकते हैं। वहां कुछ दिनों से मवेशियों की चोरी की घटनाएं हो रही होती हैं। अचानक अफवाह फैलती है कि लैरी किनकेन नाम के एक कस्बाई किसान की हत्या हो गई है और उसके मवेशियों को चोर हांक ले गए हैं। कस्बे के कुछ अति-उत्साही नौजवान तुरंत एक भीड़-कमेटी बनाते हैं। ऐसी कमेटी को अमेरिका में पोसी कहा जाता था। यह पोसी चोरों को ढूंढ़ने निकलती है। वे न खबर का सत्यापन करते हैं, न पुलिस को सूचित करते हैं। रास्ते में कुछ जानवरों के साथ तीन लोग मिलते हैं। घृणा और उन्माद से भरी हुई भीड़ तीनों को वहीं पेड़ पर फांसी से लटका देती है। भीड़ न्याय!

देश में कुछ समय से उग्रता का नया स्वरूप देखने को मिल रहा है। डर यह है कि यह ग्रामीण उत्तर भारत में फैल रहा है। हर तीसरे दिन कोई किसी को पाकिस्तान भेजने की बात कहता है और हर दूसरे दिन कोई उसके खिलाफ उतना ही बढ़-चढ़कर कर विष-वमन करता है। प्रश्न यह है ये दोनों तरह के लोग आबाद रहें या बर्बाद, भारत के उन करोड़ों युवाओं का क्या होगा, जो लगातार कम होते रोजगार के अवसरों के कारण सड़कों पर हैं? क्या जब यह खबर किसी जुकरबर्ग या मर्डोक तक जाएगी (जो आज सेकंडों में संभव है) तो क्या वे भारत में निवेश करने की हिम्मत कर पाएंगे?

हिंदू धर्म में संश्लेष की अद्भुत क्षमता रही है। लेकिन क्या दादरी की घटना से हमारी छवि को चार चांद लगेंगे? क्या गोमांस के खिलाफ आंदोलन की परिणति इस रूप में होगी? दादरी की घटना लें। घटना के दिन रात साढ़े दस बजे दो युवकों ने स्थानीय मंदिर के पुजारी पर दबाव डाला कि वह लाउडस्पीकर से घोषित करे कि अखलाक को बछड़े के अवशेषों (पैर के खुर और आतंरिक भाग) को एक कपड़े में छुपाकर ले जाते देखा गया है। किसी ने तस्दीक नहीं की कि किसने देखा और कहां देखा या क्या देखा? भीड़ इकठ्ठा हो गई और अखलाक के घर पर हमला कर दिया गया। घरवालों ने घटना के बाद और पहले बताया कि फ्रीज में और बर्तन में पका मांस बकरे का है, लिहाजा इसे प्रशासन ने परीक्षण के लिए आगरा लेबोरेटरी भेज दिया।

यह सही है कि अगर गौवध या गोमांस सेवन कानूनन निषिद्ध है तो उसे हर संप्रदाय को मानना होगा। पर यह कैसे तय होगा कि घर में बना मांस किस जानवर का है? अगर कुछ स्थानीय नेता, जो आगामी चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे हैं, कुछ बेरोजगार लड़कों को लेकर यह तस्दीक कर दें कि फलां के यहां फलां जानवर का मांस पका है तो क्या उसकी परिणति यह होगी?

अगर अमेरिका में अच्छे वातावरण के वायदे पर कोई जुकरबर्ग विश्वास करता है और उसका श्रेय मोदी को जाता है तो इन घटनाओं का ठीकरा किसके सर फोड़ा जाए? यह किसकी जिम्मेदारी है कि उग्रता पर लगाम कसी जाए ताकि 'मेक इन इंडिया" सफल होने के पहले ही दम न तोड़ दे?

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।