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दाफ़्ने कैरूआना गज़ालिया की मौत के मायने-- सदफ नाज

दक्षिण यूरोप के द्वीपीय देश माल्टा की खोजी पत्रकार दाफ़्ने कैरूआना गज़ालिया, जिन्होंने अपने देश माल्टा में पनामा पेपर्स से जुड़े घोटाले को उजागर किया था, उनकी कार बम विस्फोट में मौत हो गयी है. उन्होंने जो सच सामने लाया उसकी चपेट में वहां के प्रधानमंत्री की पत्नी, चीफ अॅाफ स्टॉफ और तत्कालीन ऊर्जा मंत्री आ गये थे. पत्रकार की हत्या को एक राजैनितक हत्या माना जा रहा है. दाफ़्ने माल्टा में भ्रष्ट अधिकारियों और व्यापारियों के खिलाफ़ रिपोर्ट करने वाली खोजी पत्रकार के तौर पर जानी जाती थीं. माल्टा में पनामा पेपर्स से जुड़े खुलासे करने वाली वह पहली पत्रकार थीं. दाफ़्ने रनिंग कमेंट्री नाम का एक ब्लॉग भी चलाती थीं, जिसे माल्टा का सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग माना जाता है और कहा जाता है कि उसकी रीडरशिप स्थानीय अख़बारों से भी ज़्यादा है. दाफ़्ने एक निडर पत्रकार के रूप में पहचानी जाती थीं जो भ्रष्ट लोगों की वक़्त-वक़्त पर पोल-पट्टी खोलती रहती थीं.


दाफ्ने की हत्या के दूसरे दिन उनके बेटे मैथ्यू कैरूआना गज़ालिया ने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने सीधे-सीधे सत्ता में बैठे लोगों को अपनी मां की हत्या का ज़िम्मेवार बताया था. उस पोस्ट में मुझे सब से ज़्यादा जिस चीज़ ने विचलित किया वह उनके बेटे द्वारा यह बताया जाना कि किस तरह उनकी मां की हत्या की जांच करने वाले पुलिस आयुक्तों में से एक ने अपने फेसबुक पोस्ट में दाफ़्ने की मौत के बाद लिखा कि "जो जैसा करता है उसे वैसा ही मिलता है,काउ डंग, फ़ीलींग हैप्पी :)"

अचानक मुझे अपने देश में हाल में सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने वाली पत्रकार की मौत के बाद सोशल मीडिया पर की जाने वाली अभद्र टिप्पणियों की याद हो आयी. मुझे पड़ोसी देश पाकिस्तान के पत्रकारिता के छात्र मशाल की भी याद आयी, जिसे सामाजिक समानता और इंसानियत के हक में और धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ लिखने-बोलने के एवज में पागल भीड़ ने निर्ममता से मार दिया था. उसकी हत्या का भी बहुत सारे लोगों ने सोशल मीडिया पर जश्न मनाया था. उसकी हत्या को जायज ठहराया था. मुझे उन तमाम लेखकों-पत्रकारों और हक की आवाज़ उठाने वालों की याद आयी जिन्हें व्यापक इंसानी हक, न्याय, सच्चाई के पक्ष में बोलने और सत्ता के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लिखने पर ट्रोल किया जाता है. हत्या की धमकी दी जाती है या फिर हत्या कर दी जाती है.


ऐसा लगता है की यह पूरी दुनिया का मामला बन चुका है कि हर जगह अवाम के हक की बात करने वालों और भ्रष्टाचार-कट्टरता के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले पत्रकारों और समाज हितैषियों के साथ इस तरह का भयावह सलूक किया जा रहा है. यह लोग दो तरह से पिस रहे हैं एक तरफ तो सत्ता में या अन्य संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोगों की तरफ से धमकी तो दूसरी तरफ जिनके लिए जान को जोखिम में डाल रहे हैं, उनकी तरफ सहयोग की जगह मिलने वाली उदासीनता.


यूं लगता है जैसे दुनिया भर में इंसानियत और सच्चाई के कुएं में भांग पड़ चुकी है. देश अलग, समाज अलग, रहन-सहन अलग लेकिन एक तरह की भूख, एक तरह की बेईमानी, एक तरह का भ्रष्टाचार और एक तरह की सामाजिक बेहिसी.
ये कौन लोग हैं जो ऐसे बेईमानों को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाते हैं ? आख़िर इंसानी सभ्यता के इतने सोपानों पर चढ़ने के बावजूद लोगों ने सही-गलत में फर्क करना क्यों नहीं सीखा ? अवाम जिन लोगों के हाथों में सत्ता और अपनी ज़िंदगियों की रहनुमाई ख़ुशी-ख़ुशी सौंपती है वही अवाम की पीठ पर हर बार खंजर भोंक देते हैं.


क्या ऐसी अवाम पर अफ़सोस किया जाना चाहिए जो ख़ुद ही अपने पूर्वाग्रह और स्वार्थों की तुष्टि के लिए इस किस्म के भ्रष्ट लोगों को सत्ता सौंपती है? और सब से अफसोस की बात यह है कि इसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त अवाम की लड़ाई लड़ने और उनको न्याय दिलाने के नाम पर कोई सिरफिरा पत्रकार या समाज हितैषी अपना सुख चैन ख़त्म कर देता है,एक सतत बेचैनी में रहता है और आख़िर में जान गंवा बैठता है और बदले में उसे क्या मिलता है कुछ लोगों की झूठी सांत्वना और बेहिस लोगों की गालियां? अगर ऐसा ही रहा और लोग अपनी ज़िम्मेदारियां नहीं समझती तो शायद एक दिन पूर्वाग्रह की पट्टी बांधे, सोती हुई इस लापरवाह अवाम के हक़ में और भ्रष्ट बेईमान सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाला शायद पूरी दुनिया में कोई नहीं रहे. यह सोचना भी अपने आप में भयावह है.
दाफ़्ने कैरूआना गज़ालिया ने अपने ब्लॉग के आख़िरी पोस्ट में लिखा था "अब जहां देखो हर जगह धूर्त और बेईमान बैठे हैं स्थिति भयावाह है" सचमुच स्थिति भयावाह है, हर जगह...........हर तरफ़............शायद पूरी दुनिया में.
लेकिन इस स्थिति को यहां तक लाने वाला कौन है..............कौन है जो ऐसी स्थिति लाने वालों को चुन रहा है..........और भला क्यों???