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दीर्घकालिक राजनीति की मांग-- प्रो. योगेन्द्र यादव

एक शे'र है- किसी का नाम न लो, बेनाम अफसाने बहुत से हैं.' प्रधानमंत्री के लंदन उवाच को सुनकर बरबस यह शे'र याद आ गया. प्रधानमंत्री ने अपना मौन तोड़ा और कुछ कहा भी नहीं. न बच्ची का नाम लिया (वह तो शायद ठीक ही था), न कठुआ और उन्नाव का नाम लिया, न ही यह माना कि इन दोनाें जगह उनकी पार्टी की सरकार है, न ही यह स्वीकारा कि इन कांडों में उनकी अपनी पार्टी के लोगों का नाम है. मानो, कल के मौनी बाबा मनमोहन सिंह के चुप्पी वाले तंज और न्यूयार्क टाइम्स के संपादकीय का जवाब भर दे दिया. तुम कह रहे थे न बोलने को, तो लो सुन लो, कैसे बोलकर भी कुछ नहीं कहा जाता है.

साथ ही वे मासूमियत से कह गये कि ऐसे मसलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. बलात्कार पर राजनीति न हो, एसएससी परीक्षा की धांधलियों पर राजनीति न हो, ऑक्सीजन की कमी से बच्चों के मरने पर राजनीति न हो अौर गरीबी पर राजनीति न हो, किसान की आत्म्हत्या पर राजनीति न हो, तो आखिर राजनीति हो किस बात पर हो?

हिंदू और मुसलमान पर? जाति, बिरादरी और आरक्षण पर? यहां सवाल यह भी है कि क्या महिला सुरक्षा के सवाल पर राजनीति नहीं होनी चाहिए? क्या इस मामले पर टिप्पणी करते वक्त धार्मिक सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए? पूरे देश की तरह पिछले दिन उन्नाव और कठुआ की शर्मसार करनेवाली घटनाओं के बारे में सोचते हुए ये प्रश्न मेरे मन में उठे.

पिछले हफ्ते मेरे एक साधारण से ट्वीट पर काफी बवाल मचा. इस ट्वीट में मैंने एक कार्टून को पोस्ट किया था. इस ट्वीट को बहुत पसंद किया गया. इसे 5,100 लोगों ने लाइक किया 2,100 ने रीट्वीट किया.

इस पर 1,600 लोगों ने टिप्पणियां भी की. इनमें से कई टिप्पणियों में मुझे भद्दी गालियां दी गयी थीं. मुझे हिंदू धर्म, भगवान राम और रामभक्तों का दुश्मन बताया गया था. ये भी आरोप लगा कि में इस सवाल पर राजनीति कर रहा हूं. मैं सोचता रहा की मर्यादा पुरुषोत्तम के यह कैसे भक्त हैं, जिन्हें तनिक भी मर्यादा छू नहीं गयी है.

मैंने फिर ट्वीट करके प्यार से समझाया कि इसका क्या अर्थ था और क्या नहीं. समझनेवाले समझ गये, लेकिन जिन्हें नहीं समझना था उनका कोई क्या करे. मैं सोचता रहा, इसकी निंदा करते वक्त क्या मुझे धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करना नहीं चाहिए था? हमारे लिए श्रीराम मर्यादा के प्रतीक हैं, उनके नाम पर गुंडागर्दी करनेवालों के खिलाफ रामायण के प्रतीक का इस्तेमाल करने से मैं परहेज क्यों करूं?

दरअसल, कठुआ में हुआ कांड हिंदू बनाम मुसलमान का मामला था ही नहीं. इस नृशंस रेप और हत्या की शिकार बच्ची को निशाना इसलिए नहीं बनाया गया कि वह मुसलमान थी, बल्कि इसलिए कि वह बकरवाल समुदाय की थी. इस घुमंतू समुदाय को उस इलाके में बसने से रोकने की साजिश थी. सच यह है कि बकरवाल, गुज्जर जैसे समुदाय के साथ कश्मीर के मुसलमान की ज्यादा सहानुभूति नहीं रही है.

इसलिए तीन महीने पहले हुई इस घटना के खिलाफ कश्मीर घाटी में कोई आक्रोश प्रदर्शन नहीं हुआ. इस बर्बर हत्याकांड की जांच करने और रपट देनेवाले पुलिस अफसर भी हिंदू थे, और मामले को अदालत में उठानेवाली बहादुर वकील भी हिंदू हैं. इसलिए यह शिकायत सही है कि इस मामले को अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध अन्याय की तरह पेश करना गलत होगा.

लेकिन, सच यह भी है कि मानवता के खिलाफ हुई इस हिंसा को सांप्रदायिक रंग देने की शुरुआत कठुआ और जम्मू के तथाकथित हिंदू नेताओं ने की. उन्होंने जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा दायर चार्जशीट का विरोध किया, अपराधियों को निर्दोष बताया, अपराधियों के खिलाफ मुकदमा रोकने की मांग की और बच्ची के लिए लड़ रही वकील को धमकाया.

अब बीजेपी के नेता बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि मामले को राजनीतिक और सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है. जब सारा देश प्रधानमंत्री और बीजेपी के बड़े नेताओं की ओर देख रहा था, उन दो दिनों में वे सामान्य टिप्पणी करने से भी बचते रहे. इतना भी नहीं कहा कि बहुत बुरा हुआ. जब प्रधानमंत्री को मुंह खोलना पड़ा, तब भी उन्होंने एक अमूर्त सा वाक्य बोल दिया. ना किसी का नाम लिया, ना कोई ठोस कदम उठाया.
उन्नाव की घटना में न तो हिंदू-मुसलमान का मामला था, न ही जातीय विद्वेष का मुद्दा. सीधे-सीधे कानून व्यवस्था का मामला था. एक कमजोर घर की नाबालिग बच्ची गांव के प्रभावशाली लोगों के खिलाफ रेप का आरोप लगा रही थी.

लेकिन, पुलिस ने कार्रवाई तो दूर, इसकी रिपोर्ट भी नहीं लिखी. मांग सिर्फ इतनी थी की एफआईआर दर्ज हो और अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई शुरू हो. जब नहीं हुई, तो लड़की के परिवार ने प्रदर्शन किया. आत्मदाह की धमकी दी. ऐसे में दोषियों के खिलाफ एक्शन लेने के बजाय पुलिस ने लड़की के पिता को ही गिरफ्तार किया. फिर उसकी इतनी पिटाई हुई कि उसने दम तोड़ दिया. तब इस मुद्दे पर देश का ध्यान आकृष्ट हुआ.

सवाल है कि यह मामला राजनीतिक क्यों बना? क्योंकि आरोपियों में खुद शासक दल का एमएलए शामिल था. क्योंकि हाईकोर्ट को भी कहना पड़ा कि नीचे से ऊपर तक पुलिस-प्रशासन ने लड़की के बजाय आरोपियों की मदद की. क्योंकि लड़की के बाप को मारने की वारदात चश्मदीद गवाहों के अनुसार, विधायक के भाई ने की. क्योंकि डॉक्टर और पुलिस सबकी मिली-भगत से इस अपराध को छुपाया गया. क्योंकि अपराधियों और गुंडागर्दी के खिलाफ बड़े-बड़े बयान देनेवाले यूपी के मुख्यमंत्री इस मामले के सार्वजनिक होने के बाद भी चुप रहे.

ऐसे में, जब मैं लोगों को यह कहते सुनता हूं कि इस मामले का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए, तो मुझे बड़ी हैरानी होती है. अगर दोनों मामलों का राजनीतिकरण नहीं होता, तो क्या इन बेसहारा परिवारों को न्याय मिलने की कोई भी उम्मीद होती?

क्या उत्तर प्रदेश सरकार और जम्मू के मंत्रियों पर कोई लगाम लगती? अगर निर्भया कांड के बाद सड़कों पर राजनीति नहीं होती, तो क्या वर्मा आयोग बैठता? जब तक महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर राजनीति नहीं होगी, तब तक क्या वर्मा आयोग की सिफारिशों को लागू किया जायेगा?

जो कठुआ और उन्नाव की घटना से आहत हुए हैं, उन्हें अनुरोध करता हूं, आइए सब मिलकर राजनीति करें- सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति नहीं, सिर्फ तात्कालिक आक्रोश की राजनीति नहीं, सिर्फ टीवी कैमरा और तस्वीर की राजनीति नहीं. महिला सुरक्षा का सवाल एक गहरी और दीर्घकालिक राजनीति की मांग करता है.