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दुनिया को जलवायु परिवर्तन से बचाने का अगला पड़ाव-- मदन जैड़ा

अभी-अभी भारत ने केरल की बाढ़ और देश के अन्य हिस्सों में मानसून की तबाही के रूप में जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना किया है, तो अमेरिका और जापान में भयावह तूफान और बैंकॉक में समुद्र के जलस्तर की बढ़ोतरी के रूप में इसकी झलक को देखा गया। इन खतरों और चुनौतियों से निपटने की जिम्मेदारी संभालने वाली एजेंसियों के प्रमुख 12 सितंबर से अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में एकजुट हो रहे हैं। लेकिन अन्य जलवायु सम्मेलनों की तरह वहां भावी खतरों पर चर्चा नहीं होनी है। न ही आगे की रणनीति बनेगी। बल्कि यह चर्चा होगी कि तीन साल पूर्व हुए पेरिस समझौते के अनुरूप अब तक क्या-क्या हुआ है? इस पर भी मंथन होगा कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ये कार्य कितने पर्याप्त हैं?


बैठक को इसी साल दिसंबर में पोलैंड में होने वाली कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) की 24वीं बैठक की तैयारी भी माना जा रहा है। कॉप-24 में पेरिस समझौते की समीक्षा होनी है। संयुक्त राष्ट्र ने पोलैंड की बैठक को पेरिस 2.0 की संज्ञा दी है। यानी सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन पोलैंड की बैठक का भी आधार बनेगा। हो सकता है कि इस बैठक के बाद राष्ट्रों को अपने उर्त्सजन के लक्ष्यों को नए सिरे से निर्धारित करने के लिए कहा जाए। जो राष्ट्र अभी तक लक्ष्यों को घोषित करने या क्रियान्वयन में देरी कर रहे हैं, उन्हें आगाह किया जा सकता है। यह सम्मेलन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें चर्चा करने वाले राष्ट्राध्यक्ष या नीति-निर्माता नहीं हैं, बल्कि क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियों के प्रमुख हैं। इसमें स्थानीय प्रशाासनिक इकाइयों के प्रमुख, मेयर, स्वतंत्र सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों के मुखिया, उद्योग जगत के लीडर, प्रबुद्ध नागरिकों और गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच चर्चा होनी है। एजेंसियों को यह बताना है कि जमीनी स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्या हो रहा है? मसलन, सौर ऊर्जा बनाने वाली एजेंसियां अपनी बात रख सकती हैं, तो शहर प्रशासन जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के उपाय बता सकते हैं। मसलन, न्यूयॉर्क के शहर प्रशासन ने समुद्र का जलस्तर बढ़ने के खतरे से निपटने के लिए समुद्री किनारों पर पानी को रोकने और बढ़ने की स्थिति में उसकी निकासी के प्रयास शुरू किए हैं। बैंकॉक भी ऐसे कदम बढ़ा रहा है। लेकिन क्या मुंबई और चेन्नई ने इस दिशा में कदम बढ़ाए हैं? जलवायु परिवर्तन से जुड़े जिन पांच बड़े मुद्दों पर इस सम्मेलन में और आगे भी चर्चा होनी है, उनमें स्वच्छ ऊर्जा, समग्र आर्थिक विकास, सतत विकास, भूमि एवं समुद्र से जुड़े मुद्दे तथा जलवायु अर्थव्यवस्था का विस्तार शामिल है। लेकिन कई मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर अभी पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है।


कई अहम मुद्दों पर राष्ट्रों की नीतियां भी स्पष्ट नहीं हैं, जिससे उद्योग जगत अपने कदम तय नहीं कर पा रहा है। जैसे देश में आज स्वच्छ तकनीक में निवेश की बात करें, तो यह हरित ऊर्जा के क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है। यहां सरकार की नीति स्पष्ट है। लेकिन हरित परिवहन क्षेत्र में उतनी तेजी नहीं दिखी। इसी प्रकार, जलवायु परिवर्तन से सबसे बड़ी चुनौती कृषि क्षेत्र के सामने है। इससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित हो सकता है। लेकिन इस पर पूरी दुनिया में अपेक्षाकृत कम काम हो रहा है।


पेरिस समझौते को तीन साल हो चुके हैं। इसलिए यह भी तय होना है कि ये उपाय तापमान बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री तक रोकने में कारगर हैं या फिर नए उपायों या लक्ष्य निर्धारित करने की जरूरत है। कई रिपोर्ट कहती हैं कि जिस रफ्तार से काम हो रहा है, उससे तापमान बढ़ोतरी डेढ़ डिग्री तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि तीन डिग्री तक पहुंच जाएगी। एक चिंता यह है कि पेरिस समझौते से अमेरिका के बाहर होने के बाद धनी राष्ट्र वैश्विक हरित कोष के लिए धन देने में कोताही कर सकते हैं। पेरिस समझौते के अनुसार, 2020 तक इस कोष में प्रतिवर्ष सौ अरब डॉलर होना चाहिए। पेरिस समझौते पर निकरागुआ व सीरिया को छोड़ सभी 197 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। मोटा आकलन है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार 55 फीसदी देशों ने पेरिस समझौते के अनुरूप कार्य शुरू किया है, बाकी ने नहीं।