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दुनिया में देश की साख पर बट्टा क्यों? - मेघनाद देसाई

एक ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'सबका साथ, सबका विकास" की भावना के साथ देश-विदेश में भारत की छवि को चमकाने और देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने तथा उसमें सुधार की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं, तब दूसरी ओर देश में राष्ट्रीय मीडिया के एक बड़े हिस्से और खासकर टीवी चैनलों और कुछ अखबारों में नकारात्मक खबरों को न केवल अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है, बल्कि उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया और प्रस्तुत भी किया जा रहा है।

देश के कई साहित्यकारों, इतिहासकारों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों आदि ने इस आधार पर विरोधस्वरूप अपने पुरस्कार-सम्मान लौटा दिए अथवा लौटा रहे हैं कि जबसे मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई है, देश में असहिष्णुता बढ़ी है और भय का माहौल कायम हुआ है। इसके लिए कर्नाटक के कन्न्ड़ विद्वान और तर्कवादी विचारक एमएम कलबुर्गी, पुणे के समाजसेवी और तर्कवादी डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर और इस वर्ष फरवरी माह में मराठी लेखक गोविंद पनसारे की हत्या को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में ग्रेटर नोएडा के दादरी इलाके में स्थित बिसाहड़ा गांव में गोमांस रखने व खाने की अफवाह में एक मुस्लिम व्यक्ति इकलाख की हत्या को भी मोदी सरकार से जोड़कर देखा-दिखाया गया।

यदि इन घटनाओं पर तटस्थता से विचार किया जाए तो इनमें से एक भी मामला ऐसा नहीं है जो सीधे-सीधे मोदी सरकार से जुड़ा हुआ हो। कर्नाटक में जहां एमएम कलबुर्गी की हत्या की गई, वहां कांग्रेस की सरकार है। दाभोलकर की हत्या भी करीब दो वर्ष पहले कांग्रेस के शासनकाल में हुई थी। दादरी में जहां इकलाख की हत्या हुई, वह उत्तर प्रदेश का मामला है, जहां पर गैरभाजपा दल (समाजवादी पार्टी) की सरकार है। गोविंद पनसारे का मामला ही भाजपाशासित राज्य महाराष्ट्र के तहत आता है। ऐसे में इन तमाम घटनाओं के लिए मोदी सरकार को किस तरह जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन राष्ट्रीय टीवी चैनलों का रुख-रवैया कुछ ऐसा रहा, मानो ये सभी घटनाएं मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद और केवल भाजपाशासित राज्यों में हुई हों।

आश्चर्य की बात यह है कि जिन बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाए हैं, उन्होंने संबंधित राज्य सरकारों को न तो कोई पत्र लिखा और न ही उनसे कोई मांग की अथवा उनके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया। इससे साफ है कि पुरस्कार-सम्मान लौटाने वालों की नीयत साफ नहीं और वे किसी विशेष उद्देश्य से ऐसा कर रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें पुरस्कार वापसी के समय पर भी विचार करना होगा। यह सब ऐसे समय में किया गया, जबबिहार विधानसभा का चुनाव जोरों पर था और इस चुनाव को भाजपा के विस्तार से जोड़कर देखा जा रहा है। यह तो खैर सभी जानते हैं कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी समेत अन्य सभी दलों ने अपना बहुत कुछ दांव पर लगा रखा है और उनकी लड़ाई को मीडिया आर-पार की लड़ाई के रूप में दिखा-दर्शा रहा है।

बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान गोमांस के मुद्दे के साथ आरक्षण और जाति का मसला उछाला गया, असहिष्णुता और भय का वातावरण कायम होने का प्रचार किया गया और फिर बुद्धिजीवियों द्वारा पुरस्कार वापसी का दांव चला गया। लेकिन इस सबके मूल में कांग्रेस पार्टी का हाथ दिखता है। एक लंबे अरसे से सत्ता में रही कांग्रेस अब सत्ता से बाहर होने और देशभर में लगातार अपने सिकुड़ते जनाधार के चलते बेहद चिंतित नजर आ रही है। ऐसे में मोदी सरकार की विदेशों में उज्ज्वल होती छवि और कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली जीत से कांग्रेस खुद को हाशिये पर पा रही थी। यही कारण है कि मोदी सरकार की छवि को देश और विदेश में खराब करने की कोशिश के तहत कांग्रेस अपने सभी पक्षधर वर्गों और लोगों को सरकार के खिलाफ खड़ा कर रही है, ताकि सरकार की घेरेबंदी की जा सके और उसकी बढ़ती लोकप्रियता पर विराम लग सके।

पुरस्कार लौटाने वाले तमाम बुद्धिजीवी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि उनके इस कदम से देशी-विदेशी मीडिया में उन्हें चर्चा मिलेगी और ऐसा ही हो भी रहा है। यदि ब्रिटेन की ही बात करें तो यहां के मीडिया में इस वक्त भारत के बारे में केवल और केवल नकारात्मक खबरें ही दिख रही हैं और यह सब अचानक हुआ है। बिहार चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही पिछले दो महीने से अचानक मीडिया का रुख बदल गया और हर कहीं इस तरह की खबरें दिखने लगीं।

जाहिर है कि यह सब एक सुनियोजित कार्यक्रम के तहत किया जा रहा है। इसमें राष्ट्रीय मीडिया चैनलों की भूमिका काफी अहम है। कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी सत्ताधारी पार्टी है। उसके समर्थकों की संख्या हर कहीं अधिक हैं। देश में कई चैनल और अखबार कांग्रेसी पक्षधरता वाले हैं। भाजपा आज भले ही केंद्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत से आ गई हो, लेकिन हकीकत यही है कि उसके समर्थकों की संख्या मीडिया में कम हैं। मीडिया प्रबंधन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह उतने कुशल नहीं साबित हो सके हैं।

कुछ लोगों का तर्क है कि मीडिया जान-बूझकर नकारात्मक और सतही रिपोर्टिंग कर रही है, ताकि मोदी सरकार की घेरेबंदी की जा सके, लेकिन मेरे विचार से ऐसा नहीं है। ब्रिटेन में भी ऐसा होता है और बीबीसी व अन्य मीडिया घरानों पर भी इसी तरह के आरोप लगाए जाते हैं जो एक हद तक सही भी है, परंतु ब्रिटेन में मीडिया की विविधता-बहुलता के चलते चीजें संतुलित हो जाती हैं और सही बात अंतत: जनता तक पहुंच ही जाती है। दुर्भाग्य से, भारत में अभी ऐसा नहीं हो रहा है। भारत में मीडिया की विविधता-बहुलता का अभाव है, जिसकी वजह से बहुत सी चीजें एकतरफा लगने लगती हैं और जनता को भ्रमित कर दिया जाता है।

पुरस्कार लौटाने वालों अथवा कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों को यदि ऐसा लगता भी है कि केंद्र में मोदी सरकार के काबिज होने के बाद असहिष्णुता बढ़ रही है तो उन्हें इस बारे में सरकार के खिलाफ विचार मंचों पर आवाज उठानी चाहिए और संसद में चर्चा करनी चाहिए, न कि भारत की छवि को विदेशों में खराब करने की कोशिश करनी चाहिए। आज पूरी दुनिया में भारत की विशाल आबादी और सक्षम लोकतंत्र को एक ताकत के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में उसकी छवि को खराब नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि इससे भारत के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

(लेखक हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य और अकेदमी ऑफ इकोनॉमिक्स के चेयरमैन हैं)