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दूसरी हरित क्रांति एक और भ्रांति-- योगेन्द्र यादव

हमारे प्रधानमंत्री को जुमलों का शौक है. खासतौर पर उधार के जुमलों का. इस बार उन्होंने ‘दूसरी हरित क्रांति’ का आह्वान किया है. हजारीबाग के निकट बरही में 28 जून को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ (हर बूंद से ज्यादा दाने पैदावार) का नारा दिया.
 
नारों में कुछ बुराई नहीं है, बशर्ते उनके पीछे कोई नयी सोच हो, नीति हो या नीयत हो. प्रधानमंत्री की बातों के पीछे ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता. उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि यह दूसरी हरित क्रांति पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओड़िशा और बंगाल में आयेगी. लेकिन यह नहीं बताया कि उनके इस विश्वास का आधार क्या है? 
 
देश के गरीब, बदहाल किसानों का बड़ा हिस्सा इस इलाके में खेती करता है. प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि बारिश आधारित खेतीवाले इस इलाके के लिए उनके पास क्या योजना है. इन उद्बोधनों-आह्वानों को सुन कर बरबस साठ के दशक में लिखे गये उपन्यास ‘राग दरबारी’ की याद आ जाती है.
 
दिक्कत सिर्फ सरकारी भाषा की नहीं है, असली संकट उधारी भाषा का है. कृषि अनुसंधान पर बोलते वक्त प्रधानमंत्री ने वही सब बातें कही, जिन्हें सभी मंत्री-प्रधानमंत्री न जाने कब से दोहरा रहे हैं, जिन्हें सुन कर किसानों के कान पक चुके हैं. 
 
आधुनिक और वैज्ञानिक खेती, उत्पादकता बढ़ाने  के लिए एक समग्र योजना, शोध के साथ-साथ ट्रेनिंग, मिट्टी जांच केंद्र, यूरिया उत्पादन को प्रोत्साहन आदि-आदि. प्रधानमंत्री इस सवाल पर कुछ नहीं बोले कि भारत की कृषि के बारे में उनकी सरकार की स्वदेशी सोच क्या है? क्या भारतीय किसान अमेरिकी कृषि के इतिहास की नकल करने को अभिशप्त है?
 
‘दूसरी हरित क्रांति’ का मुहावरा इसी उधार की सोच का नमूना है. इस मुहावरे का इस्तेमाल करनेवाले अकसर यह जानते भी नहीं कि जिसे हम ‘हरित क्रांति’ कहते हैं, वह थी क्या. साठ के दशक के अंत में देश में खाद्यान का संकट था. अमेरिका से अन्न मांगने की मजबूरी बनी थी. बदले में अमेरिका का राष्ट्रपति अपमानजनक शर्ते लगा रहा था. 
 
ऐसे में किसी भी तरह खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ा कर विदेशी निर्भरता कम करने की एक रणनीति का नाम था ‘हरित क्रांति’. इसका पहला सफल प्रयोग मैक्सिको में हुआ था, फिर इसे भारत निर्यात किया गया था.
 
बेशक, इस ‘हरित क्रांति’ के चलते देश का खाद्यान्न उत्पादन तेजी से बढ़ गया. अन्न के लिए विदेशी निर्भरता खत्म हो गयी. 40 साल में गेहूं का उत्पादन तो सात गुना तक बढ़ गया.
 
लेकिन देश को इस रणनीति की भारी कीमत भी अदा करनी पड़ी. खेती में और पूरे देश की अर्थव्यवस्था में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ गया. पहले से ही खुशहाल इलाके और संपन्न हो गये, पिछड़े इलाकों को उठाने के लिए साधन नहीं बचे. गेहूं और चावल तो बढ़ा, लेकिन पौष्टिक मोटा अनाज हमारे खाने से गायब होने लगा. पहले कुछ साल तो पैदावार जादुई तरीके से बढ़ी, फिर आहिस्ता हुई, और अब पिछले दशक से जहां की तहां है. 
 
उलटे हरियाणा और पंजाब जैसे ‘हरित क्रांति’ के द्वीपों में अब इस क्रांति का नकारात्मक असर दिखने लगा है. जहरीले रसायनों से मिट्टी की उर्वरता घटने लगी है, कीटनाशक बेअसर होने लगे हैं, फसलों और इंसानों दोनों पर जहर की मार पड़ने लगी है, पानी के अत्यधिक इस्तेमाल से जमीन में सेम की समस्या होने लगी है, भूतल जल का स्तर गिरते-गिरते खतरे के निशान को पार कर चुका है. हरित क्रांति का सपना अब दु:स्वप्न बनने लगा है.
 
ऐसे में जब प्रधानमंत्री दूसरी ‘हरित क्रांति’ का आह्वान करते हैं, तो समझ नहीं आता की यह सरकार चाहती क्या है. क्या वो सचमुच सोचते हैं कि पूरे देश की खेती में उतनी पूंजी का निवेश हो सकता है, जितना कुछ समय के लिए कुछ इलाकों में हुआ था? जो सरकारें किसान को फसल के नुकसान का मुआवजा तक नहीं दे सकतीं, वो खेती में पूंजी निवेश करेंगी? अगर हां, तो वह योजना कहां है? क्या सरकार सोचती है कि रासायनिक खाद और कीटनाशक को और बढ़ावा देने की जरूरत है? तो इसके जहर से निपटने का क्या तरीका होगा? 
 
बारिश पर निर्भर खेती वाले इलाकों में ‘हरित क्रांति’ क्या स्वरूप लेगी? अत्यधिक पानी पर निर्भर फसलें देश भर में कैसे चलेंगी? आगामी पीढ़ियों के लिए भूजल कैसे बचेगा? खेती की सारी समझ विदेशी विशेषज्ञों और कृषि अनुसंधान केंद्रों से आयेगी या की किसान की परंपरागत देशज समझ के लिए कोई जगह है? इस क्रांति चर्चा के पीछे कहीं एक भ्रांति तो नहीं?
 
सवाल सिर्फ इस प्रधानमंत्री और इस सरकार का नहीं है. चाहे जो पार्टी सत्ता में हो, खेती किसी की चिंता नहीं है. बस इतनी चिंता है कि किसान इतना नाराज न हो जाये कि वह वोट न दे. इसीलिए किसान को जुमले सुनाये जाते हैं. ऐसे जुमले, जिसके पीछे कोई सोच नहीं है. जोर-जोर से बोले जाते हैं. चूंकि कहने को कुछ नहीं है.