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दूसरे देशों को स्किल दीजिए -- भरत झुनझुनवाला

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक विश्व शक्ति के रूप में उभर रहा है. जरूरत है कि इस प्रयास को ठोस नींव पर खड़ा किया जाये. इस दिशा में देश की आर्थिक हालत आड़े आ रही है. दूसरे देशों को पूर्व में दिये गये आश्वासनों को हम पूरा नहीं कर पा रहे हैं. संसद की विदेश मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी के समक्ष दिसंबर 2014 में बताया गया था कि नेपाल तथा बांग्लादेश में यातायात की योजनाएं आगे नहीं बढ़ पा रही हैं, चूंकि विदेश मंत्रालय के बजट में कटौती की गयी है. अफगानिस्तान में नयी पार्लियामेंट बिल्डिंग तथा अफ्रीका में शिक्षा की योजनाओं की भी यही स्थिति है. दिये गये आश्वासनों को हम पूरी नहीं कर पायेंगे, तो यह प्रयास नकारात्मक छवि ले लेगा.

चीन की समस्या हमारे सामने है. चीन का विदेशी मदद का वार्षिक बजट 200 अरब डाॅलर है. विकसित देशों के बजट इससे कई गुणा बड़े हैं. इन विशाल कार्यक्रमों के बीच भारत द्वारा दी गयी दो अरब डाॅलर की आर्थिक मदद शून्यप्राय दिखेगी. वित्तीय सहायता देने में दूसरी समस्याएं भी हैं. वैश्विक स्तर पर डोनरों पर आरोप लगते आये हैं कि मदद के नाम पर वे अपने आर्थिक हितों को बढ़ावा देते हैं. अथवा पावर प्रोजेक्ट में शर्त लगा दी जाती है कि टर्बाइन की खरीद डोनर देश से की जायेगी. भारत ने भूटान को हाइड्रोपावर के विकास के लिए आर्थिक मदद दी है. हम पर आरोप लग सकता है कि यह मदद भूटान के विकास के लिए नहीं, बल्कि भारत की अपनी बिजली की जरूरतों की पूर्ति के लिए की जा रही है. वित्तीय सहायता के कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार की भी समस्या रहती है.

भारत द्वारा दूसरे देशों को मदद करने में चार संकट हैं. एक, वित्तीय कठिनाइयों के कारण भारत अपने वायदों को पूरा नहीं कर पा रहा है. दो, दूसरे देशों के सामने हमारी मदद ऊंट के मुंह में जीरा समान है. तीन, हम पर अपने स्वार्थों को बढ़ाने का आरोप लगेगा. चार, मेजबान देश के भ्रष्टाचार में यह रकम स्वाहा हो जायेगी. इन समस्याओं को देखते हुए हमें दूसरी रणनीति पर विचार करना चाहिए. वित्तीय मदद के स्थान पर हमें स्किल के रूप में मदद मुहैया करानी चाहिए. कहावत है कि भूखे को मछली परोसने से अच्छा है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये. इसी प्रकार दूसरों को वित्तीय सहायता देने से अच्छा है कि उन्हें आर्थिक विकास के गुर सिखाये जायें.

अनेक विकासशील देशों के पास अच्छे शिक्षक नहीं हैं. इन देशों को न्यूनतम वेतन पर भारतीय शिक्षक उपलब्ध कराये जा सकते हैं. इनके वेतन पर सब्सिडी दी जा सकती है. इस कार्यक्रम को ‘विदेशी मदद' के नाम से चलायेंगे, तो आरोप लगेगा कि हम अपने नागरिकों को रोजगार देने के लिए ये कार्यक्रम चला रहे हैं. अतः इसको अपने लोगों को रोजगार देने के नाम से चलाना चाहिए. इसका परिणाम होगा कि अपने शिक्षकों के जरिये हम अपने विश्व दर्शन को मेजबान देश में डाल सकेंगे. आज से लगभग पांच हजार वर्ष पहले ऋग्वैदिक काल में हमारे मनीषी पश्चिम एशिया गये थे. रामायण काल में इंडोनेशिया एवं मलयेशिया जैसे देशों में हमारे साधु गये थे और वहां रामायण का प्रसार हुआ. बौद्ध काल में हम तिब्बत, चीन और जापान गये. इस परंपरा को आगे बढ़ाने की जरूरत है.

वर्तमान विश्व व्यवस्था में तमाम छोटे देश खुद को हेल्पलेस महसूस कर रहे हैं. विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अधिकाधिक मत विकसित देशों के पास हैं. वर्ल्ड इंटलेक्चुअल प्राॅपर्टी आॅर्गनाइजेशन के कानून जटिल हैं. छोटे देशों के पास समझ नहीं है कि इन कानूनों का उन पर क्या प्रभाव पड़ता है. इन संस्थाओं की अपीलीय व्यवस्थाओं में वाद दायर करना भी जटिल है. इसी प्रकार इंटरनेशनल कोर्ट आॅफ जस्टिस में वाद दायर करना या बचाव करना कठिन है. इन संस्थाओं की जानकारी भारत में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है. भारत को चाहिए कि सभी गरीब देशों में एक कार्यालय खोले, जो मेजबान देशों के द्वारा इन संस्थाओं के समक्ष अपना पक्ष रखने में इन देशों की मदद करे. ऐसा करने से भारत विकासशील देशों का नायक बन जायेगा.

समाज का संचालन जनमत से होता है. जनमत बनाने में अंततः न्यूज चैनलों की विशेष भूमिका रहती है. इन न्यूज चैनलों के द्वारा विकसित देशों के दृष्टिकोण को बढ़ाया जाता है. इन चैनलों के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए रूस ने रशिया टुडे चैनल शुरू किया है. चीन ने भी ऐसा चैनल बनाया है. भारत को चाहिए कि इन चैनलों के समकक्ष वैश्विक चैनल स्थापित करे. हमारे पास विभिन्न भाषाओं को जाननेवाले युवा हैं. इन चैनलों से स्थानीय भाषाओं में प्रसार करना चाहिए. हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि विकसित देशों के नागरिक तक अपनी बात पहुंचाएं. हमें स्किल के रूप में अन्य देशों को मदद पहुंचानी चाहिए.