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देश के मुद्दे और मीडिया की जंग -- मिहिर भोले

मीडिया की दो दिग्गज हस्तियों बरखा दत्त और अर्नब गोस्वामी के बीच छिड़ी घोषित-अघोषित जंग आज-कल चरचा में है. दोनों ही देश के एकसमान प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्रकार हैं.

दोनों की अपनी-अपनी फैन-फॉलोइंग है. बरखा लिख रही हैं और अपने लिए वैचारिक समर्थन जुटाने के लिए ट्वीट भी कर रही हैं. दूसरी ओर अर्नब बिना नाम उछाले अपने शो में बरखा की सोच का जोरदार प्रतिवाद करते जा रहे हैं. यह जंग अब सोशल मीडिया तक फैल चुकी है और गंभीर सामाजिक-राजनीतिक एवं राष्ट्रीय हितों से जुड़ी बहस महज कमेंट्स, लाइक्स और डिसलाइक्स का मोहताज हो कर रह गयी है.

मीडिया और सोशल-मीडिया एक नये किस्म के प्रजातंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसमें पत्रकार अपने विचारों और पूर्वाग्रहों को सही और दूसरों को गलत ठहराने के लिए प्रतिदिन एक प्रकार का रेफरेंडम करवाते हैं. आज इंटरऐक्टिव मीडिया ने लोगों को मुखर बनाया है, जिसके अपने खतरे भी हैं. इस मुखरता में समझदारी भी है और नासमझी भी. त्वरित कमेंट्स, लाइक्स और डिसलाइक्स के सहारे न तो देश के मुद्दे सुलझाये जा सकते हैं और न ही ठीक-ठीक उसके मूड समझा जा सकता है.

जल्दीबाजी में पूर्वाग्रहों से ग्रसित कुछ चुनिंदा लोगों से कुछ सवाल पूछ कर अपने मनमाने जवाब पाकर क्या देश के मिजाज को सही से समझा जा सकता है? बरखा का कहना कि उन्होंने श्रीनगर के अस्पतालों और आर्मी बेस कैंप से रिपोर्टिंग की. यह अपने प्रोफेशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दिखलाता है.

पर, क्या महज चंद लोगों से अपने मन की बात कर उसे पूरी सामाजिक सच्चाई बता देना सही होगा? इस पर हमें गहराई से सोचना होगा. अगर बरखा की श्रीनगर की रिपोर्ट कश्मीर की एक सच्ची तसवीर दिखाती है, तो फिर जी न्यूज पर गुरेज के महबूब बेग का कैमरे के सामने ‘भारत माता की जय' का नारा लगाने को क्या कहेंगे- कोरी बकवास?

इस बात का क्या औचित्य है कि आज देश के लगभग सारे टीवी चैनल बार-बार सिर्फ उन्हीं गिने-चुने पार्टी प्रवक्ताओं, नेताओं, मौलवियों, साधुओं, ऐक्टिविस्टों, सोशलाइटो को अपने चैनलों पर बुलाते रहें, जिनके विचारों को समझने के लिए उनको सुनने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ उनके दर्शन ही काफी हैं? क्या देश की सारी समस्याओं की जानकारी और उनके समाधान चंद एंकरों और पैनलिस्ट‍ों के पास है? ये किसकी अभिव्यक्ति है, किसके विचार हैं- एंकरों की, पैनलिस्ट‍ों या दर्शकों की? इस तरीके का इस्तेमाल करना बरखा बखूबी जानती हैं और बाकी एंकर भी. मीडियम के मैसेज बन जाने के अपने खतरे भी हैं.

यह इस बात से स्पष्ट है कि आज आप अखबार, मैगजीन और चैनलों का नाम सुन कर ही यह बता सकते हैं कि किसी खास विषय पर उसके विचार क्या होंगे. ऐसे में प्रेस की आजादी और निष्पक्षता के क्या मायने रह जाते हैं?

तो क्या मीडिया की नजर में दर्शक या पाठक का रुतबा महज उसके ‘कैप्टिव ऑडिएंस' का रह गया है? जनता के सोचने का नजरिया मीडिया क्यों तय करे? वह तो सिर्फ पूरी निष्पक्षता से सच्चाइयों को सबके सामने रखे, यही काफी है. हम सामाजिक सच्चाइयों को अन्य माध्यमों से भी परखते हैं.

लोग अगर अर्नब के तर्क और बिना लाग-लपेट के प्रहार करने की शैली को पसंद करते हैं, तो उनके इकतरफा प्रलाप और दूसरे पक्ष को सुनने का संयम न रखने की शैली की भी उतनी ही आलोचना करते हैं. मीडिया के अपने पूर्वाग्रह और वैचारिक रुझान तो स्पष्ट हैं, लेकिन जनता तो सही-गलत दोनों समझती है. ठीक वैसे ही, जैसे गोरक्षा में आस्था रखते हुए भी गोरक्षकों की गैरकानूनी हरकतों को ज्यादातर लोग पसंद नहीं करते. हमें मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था पसंद है, पर उससे उभरा पूंजीवादी शोषण पसंद नहीं. अगर मुजफ्फरनगर जैसे कांड की निंदा करनी है, तो फिर सेक्यूलर माहौल बनाये रखने के नाम पर मालदा में हुई हिंसा पर मीडिया की चुप्पी को कतई सही नहीं ठहराया जा सकता.

प्रश्न यह नहीं है कि बरखा सही हैं या अर्नब या उनके पैनलिस्ट. प्रश्न है कि राजनीतिक दलों की तरह क्या इस देश का मीडिया भी देश और समाज के हित में आम सहमति के मुद्दे ढूंढ़ने में असफल हो गया है? हमारा विरोध राजनीतिक विचारधारा से हो सकता है, पर क्या उसे नफरत की उस सीमा तक ले जाना ठीक है, जहां से लौटना मुश्किल हो? दुर्भाग्यवश सेक्यूलर-कम्युनल, सहिष्णु-असहिष्णु, राष्ट्रभक्ति-राष्ट्रद्रोह जैसी बहस को मीडिया ने अपनी राजनीतिक विचारधारा के रंग में रंग दिया है. मीडिया और पत्रकार अपनी ही बनायी इमेज के शिकार हैं.

नये विचारों को जगह देने को वे तैयार ही नहीं, खास कर उन्हें, जो उनकी अपनी विचारधारा से मेल न खाते हों. यह चलन मीडिया को राजनीति का पैरासाइट बना कर रख देगा और तब इस ‘फोर्थ इस्टेट' की मजबूत दीवारों के ढहते देर नहीं लगेगी.