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देश में गरीबी और आंकड़ों का मकडज़ाल- अनंत विजय काला

उलटबांसी : सरकारी अनुमानों और आंकड़ों के विपरीत देश में गरीबों की वास्तविक संख्या सामने नहीं आती

केंद्र सरकार ने कुछ समय पहले गरीब लोगों की संख्या के आंकड़े जारी किए। इसमें एक अच्छी खबर दिखाई दी। सरकारी विचार-मंच योजना आयोग ने कहा कि पिछले वर्ष में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की तादाद 269.3 मिलियन,आबादी का 21.9 फीसदी थी।

निश्चित तौर पर ये एक बड़ी संख्या है, लेकिन ये 2005 के अंत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 407.1 मिलियन लोगों से कहीं कम है। उस दौरान योजना आयोग के अनुमान के मुताबिक देश की 37.2 फीसदी आबादी गरीब थी। ताज़ा अनुमानों ने गरीबी में दो दशकों में आई महत्वपूर्ण कमी को भी दिखाया।

2004 के अंत में 403.7 मिलियन या आबादी का 45.3 फीसदी हिस्सा गरीब था। मीडिया की सुर्खियों में गरीबों की घटती तादाद का जश्न मनाया गया। लेकिन ये आंकड़े कितने सटीक हैं और क्या इनकी आर्थिक पड़ताल की जा सकती है? भारत में गरीबी के आंकड़ों के मक्कडज़ाल कुछ ज्यादा ही हैं।

विशेषज्ञ गरीबी की सरकारी परिभाषा पर सवाल उठाते हैं और दलील देते हैं कि ये शायद भारत में गरीबी स्तर को सकल न्यूनानुमान की तरफ ले जाएगी।

सरकारी अनुमानों और आंकड़ों के आधार पर देश में गरीबों की वास्तविक संख्या शायद ही कभी  प्रकाश में आ पाती हो। योजना आयोग के आंकड़े दिवंगत अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञों के एक पैनल द्वारा 2005 में सुझाई पद्धति पर आधारित हैं। ये पद्धति गरीबी को एक विशिष्ट समय में एक व्यक्ति के उपभोग अथवा व्यय के संदर्भ में परिभाषित करती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़ाना करीब 27 रुपए, 45 पैसे और शहरी इलाकों में 33 रुपए,55 पैसे खर्च करने वाले ही सरकारी अनुमान के मुताबिक गरीब हैं। आयोग की रिपोर्ट गरीबी शब्द की परिभाषा नहीं बताती। आलोचक कहते हैं  कि खर्च की सीमा रेखा काफी नीचे है। गरीबी रेखा जितनी नीचे होगी, गरीबों संख्या उतनी ही कम होगी।

कुछ अर्थशास्त्री कहते है कि भारत में आर्थिक वास्तविकताओं,जैसे उच्च और लगातार बढ़ रही अनाज की कीमत, किराए और असबाब का अर्थ हुआ कि इतने कम पैसे में कम से कम खाना खरीदना भी असंभव है। उदाहरण के लिए सरकारी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के तहत सब्सिडी दामों पर बेचे जाने वाले एक किलो चावल का औसत दाम 18 से 20 रुपए है।

आलोचकों का कहना है कि अनुमान बेहद गरीबी में रहने वालों की सही संख्या नहीं बताता। सुप्रीम कोर्ट की ओर से देश के खाद्य कार्यक्रमों पर नजऱ रखने वाले पूर्व ब्यूरोक्रेट एन.सी.सक्सेना कहते हैं कि गरीबों की संख्या का अनुमान वर्तमान आर्थिक वातावरण में बेतुका है। उनका कहना है कि पहले से ही भारत में गरीबी रेखा कुछ ज़्यादा ही निम्न स्तर पर तय की जाती रही है।

ताज़ा परिभाषा के तहत गरीबी रेखा को विश्व बैंक द्वारा तयशुदा निम्नतम स्तर से थोड़ा नीचे ही रखा गया है। विश्व बैंक की परिभाषा निम्नतम में गुजऱ-बसर करने वालों को गरीब मानती है। विश्व बैंक की अत्यधिक गरीबी रेखा 1.25 डॉलर की क्रय-शक्ति क्षमता या पीपीपी (पर्चेजि़ंग पावर पैरिटी) पर आधारित है।

पीपीपी विभिन्न देशों में एक ही चीज़ खरीदने के लिए खर्च की गई मुद्रा की तुलना करती है। अगर मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए विश्व बैंक की तयशुदा प्रतिदिन 2 डॉलर वाली उच्च गरीबी रेखा की बात की जाए, तो भारत में गरीबी रेखा 44 रुपए निर्धारित होगी।

हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले दशक में समाज के सबसे कमज़ोर तबकों की खपत काफी बड़ी है, जो जीवन-यापन में सुधार का एक सातवां देने वाला सूचक है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन की एक इकाई द्वारा 2010-11 में पारिवारिक व्यय पर किए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 2004-05 से व्यय में सालाना 4.0 फीसदी 4.2 फीसदी की वृद्धि हुई।

इससे पहले के दस वर्षों में ये दर 2.0 फीसदी से 2.5 तक थी। दिल्ली स्थित विचार मंच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के अर्थशास्त्री एन.आर.भानुमूर्ति कहते हैं कि हमेशा गरीबी रेखा को उठाना ही मकसद होना चाहिए क्योंकि ये जीवन-यापन के मापदंडों में सुधार का सूचक होगी।

उनका मानना है कि गरीबी कोष्ठक में ज़्यादा लोगों के होने का अर्थ होगा सरकार पर ज़्यादा वित्तीय दबाव, जिसे वहन करने की स्थिति में वो नहीं है, एक निम्न गरीबी रेखा से सरकार समाज के सबसे कमज़ोर तबके के लिए कल्याणकारी नीतियों को लक्षित कर पाएगी।

हालांकि गरीबी के आंकड़े पेश करने के समय को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। आलोचक कहते हैं कि सरकार गरीबी पर आंकड़ों की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शीर्ष आर्थिक सलाहकार सी.रंगराजन की अध्यक्षता वाले एक दूसरे पैनल के सुझावों का इंतजार कर सकती थी।

रंगराजन पैनल का गठन पिछले वर्ष जून में गरीबी के आकलन के लिए प्रयुक्त पद्धति की समीक्षा के लिए किया गया था। तेंदुलकर कमेटी के सुझावों पर सरकार ने गरीबी रेखा को इतना नीचे कैसे रखा, इस पर व्यापक आलोचना के बाद ही रंगराजन पैनल का गठन किया गया था।

मंगलवार को सरकार ने कहा कि रंगराजन पैनल की रिपोर्ट 2014 के मध्य में ही आ पाएगी, लेकिन चूंकि एनएसएसओ द्वारा किया व्यय सर्वेक्षण पूरा हो चुका है, इसलिए सरकार ने रंगराजन पैनल की रिपोर्ट से पहले गरीबी का अपडेटेड अनुमान जारी करने का फैसला किया।

योजना आयोग ने कहा कि गरीबी रेखा का स्तर बमुश्किल इसके नीचे रहने वालों की संख्या की गिरती दर में अंतर ला पाएगा। हालांकि आयोग की रिपोर्ट ने स्वीकार किया कि अगर गरीबी को आंकने वाली रेखा को उठा दिया जाए तो गरीबी का पूर्ण स्तर ज्यादा होगा।

इन आंकड़ों ने सुझाया कि गरीबी रेखा दर में 1993.94 और 2004.05 के बीच सालाना 0.74 फीसदी की गिरावट देखी गई, जबकि 2004-05 और 2011-12 के बीच ये 2.18 फीसदी रही।
रिपोर्ट के दूसरे परिणामों में शामिल हैं - शहरी इलाकों में, 1993-94 से 2004-05 के 0.55 फीसदी की तुलना में गरीबी सालाना 1.69 फीसदी की दर से कम हुई।

ग्रामीण इलाकों में ये 1993-94 से 2004-05 के 0.75 फीसदी की तुलना में सालाना 2.32 फीसदी दर से गिरी।आयोग के मुताबिक 2011-12 में भारत के ज्यादातर गरीब ग्रामीण इलाकों में रह रहे थे। उन वर्षों में ग्रामीण भारत में करीब 216.5 मिलियन गरीब थे,जबकि शहरी इलाकों में 52.8 मिलियन।  (वाल स्ट्रीट जर्नल से साभार)

अनंत विजय काला  
लेखक आर्थिक विषयों के जानकार हैं, इन विषयों पर नियमित लेखन।
प्रस्तुत आलेख में देश में गरीब की परिभाषा समझने का प्रयास है।