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देश में नया श्रम कानून लागू, मगर मजदूरों के हाथ खाली

"नये श्रम कानून में सरकार अगर देश में मजदूरों की 178 रुपए कम से कम मजदूरी तय कर रही है, तो सीमेंट की बोरी ढोने वाले हम जैसे मजदूरों को दिन भर काम के बाद 250 रुपए मजदूरी मिलती है, अब आप बताइये इतनी महंगाई में 250 रुपए दिहाड़ी पर घर चलता है क्या?, तो 178 रुपए पर क्या कहेंगे," यह कहना है मजदूर दल्ला मीना का, जो राजस्थान के उदयपुर जिले के एक छोटे से शहर सलुम्बर के चौकी नाका क्षेत्र में मजदूरी करते हैं। हमारे देश में मजदूरों के लिए पुराने चार श्रम कानूनों की जगह पर नया श्रम कानून 'वेजस कोड बिल' लागू हो चुका है मगर नया कानून लागू होने के पांच महीने बाद भी मजदूरों के हाथ पहले की ही तरह खाली हैं। नये श्रम कानून में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 178 रुपए प्रति दिन और 4628 रुपए प्रति माह दिया जाना तय किया गया है। ऐसे में देश के कई राष्ट्रीय मजदूर संगठन और ट्रेड यूनियन सरकार की इस न्यूनतम मजदूरी के खिलाफ विरोध जता रहे हैं और 08 जनवरी को मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी के साथ नए श्रम कानून में अपनी मांगों को लेकर देशव्यापी प्रदर्शन करेंगे। इस कानून में न्यूनतम मजदूरी के साथ ही देश के मजदूरों को एक समान वेतन देने, निर्धारित सीमा से अधिक काम करने पर दोगुनी दर पर मजदूरी देने और तय समय में मजदूरी देने की सीमा भी तय की गई है। ऐसे में 'गांव कनेक्शन' ने नये श्रम कानून पर अलग-अलग राज्यों के मजदूरों और मजदूर संगठन के लोगों से बातचीत की जिस पर न्यूनतम मजदूरी को लेकर उन्होंने अपनी बात सामने रखी। मजदूर दल्ला मीना कहते हैं, "मेरे साथ मेरी पत्नी भी मजदूरी करती है। वो बोरी ढोने और गारा बनाने का काम करती है तब जाकर दोनों के 350 से 400 रुपए बनते हैं और परिवार किसी तरह चल पाता है। कभी अगर ज्यादा पैसों की जरूरत होती है तो कुछ न कुछ गिरवी रख कर ही पैसा मिलता है, मगर ठेकेदार उधार तक नहीं देते, बहाने बनाते हैं।"

 
'कभी तय मजदूरी नहीं होती'
महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले के तरायबाड़ी ग्राम पंचायत में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के मजदूर सहायक शेख मलंग 'गांव कनेक्शन' से बताते हैं, "कभी मजदूर 200 रुपए में मिल गया तो कभी 250 रुपए में, कभी तय मजदूरी नहीं होती। काम के आधार पर भी मजदूरी तय होती है। जैसे मिस्त्री के काम में यहां 200 रुपए मजदूरी मिलती है तो महिलाओं को 150 रुपए तक। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को हमेशा से ही कम मजदूरी मिलती रही है। मजदूरों को कम से कम इतना पैसा मिलना ही चाहिए कि उनका परिवार ठीक से पल सके।" संगठन सरकार से मांग कर रहे हैं कि 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन में देश के मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी को लेकर एक मानक तय किया गया है। इसमें तय किया गया कि एक मजदूर की मजदूरी उसके परिवार में शामिल तीन इकाइयों के भोजन के बराबर होनी चाहिए। ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की महासचिव अमरजीत कौर 'गांव कनेक्शन' से फोन पर बताती हैं, "देश के सभी मजदूर संगठनों ने इस भारतीय श्रम सम्मेलन में न्यूनतम मजदूरी के मानकों ने सर्वसम्मति से अपनाया था। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट और सरकार ने भी न्यूनतम मजदूरी के इन मानकों पर अपनी सहमति जताई थी, तो फिर 178 रुपए न्यूनतम मजदूरी क्यों?"

 
'न्यूनतम मजदूरी 375 रुपए देने की सिफारिश की'
अमरजीत कहती हैं, "प्रधानमंत्री मोदी सरकार ने भी न्यूनतम मजदूरी के लिए एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया था, जिसने मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 375 रुपए प्रति दिन दिए जाने की सिफारिश की थी, लेकिन सरकार अब अपने ही बात से मुकर रही है।" श्रम मंत्रालय के अनुसार देश में 50 करोड़ संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। वहीं आर्थिक सर्वेक्षण 2019 के अनुसार देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या 93 प्रतिशत है। इनमें 77.3 प्रतिशत को सही समय पर मजदूरी और छुट्टी नहीं मिलती और 69 फीसदी को कोई सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं मिलता है। नए श्रम कानून में न्यूनतम मजदूरी के साथ सरकार ने निर्धारित समय से ज्यादा काम करने पर दोगुनी दर पर मजदूरी देने का भी प्रावधान किया है। मगर ज्यादा समय तक काम करने पर भी मजदूरों के हाथ ज्यादा पैसे नहीं लगते। गुजरात के अरावल्ली जिले के मेघराज गांव में भवन निर्माण से जुड़े मजदूर सुरेश कुमार बताते हैं, "अगर सरकार कहती है कि मजदूर ओवरटाइम काम करता है तो मजदूरी दोगुनी मिलनी चाहिए, अब हमें 300 रुपए दिहाड़ी मिलती है, हमारे काम में कभी-कभी ऐसा होता है कि काम उसी दिन ही पूरा करना पड़ता है, तो ज्यादा देर काम करना पड़ता है, मगर ज्यादा से ज्यादा मालिक से चाय-पानी मिल जाता है या खाना खिला दिया, इससे ज्यादा कुछ नहीं।"

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