Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/देशप्रेम-और-देशद्रोह-के-बीच-बजट-पुष्पेश-पंत-9753.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | देशप्रेम और देशद्रोह के बीच बजट-- पुष्पेश पंत | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

देशप्रेम और देशद्रोह के बीच बजट-- पुष्पेश पंत

किसी भी सरकार के लिए बजट बनाना अौर उसे पास कराना एक बड़ी चुनौती होती है. यदि यह वित्तीय विधेयक पास नहीं होता, तो इसे सदन के विश्वास का अभाव समझा जाता है अौर सरकार गिर सकती है. 

अगर बजट पास भी हो जाये अौर उसके प्रावधानों से जनता में असंतोष फैलता है, तब भी किसी सरकार के लिए अपने जनाधार को बरकरार रखना कठिन होता जाता है. हर नयी सरकार से बजट के समय समाज के विभिन्न तबकों की तरह-तरह की आशाएं-अपेक्षाएं होती हैं- बजट बनानेवाले वित्त मंत्री को चाहत तथा राहत को संतुलित रखने का पराक्रम साधना पड़ता है. इस वर्ष भी बजट को लेकर जो अटकलबाजी शुरू हो चुकी है, वह स्वाभाविक है. 

जो फर्क है, वह यह कि मोदी सरकार का यह तीसरा बजट है- पहला अंतरिमनुमा, फिर पिछले वर्ष का पूरा बजट अौर अब यह जिसे लगभग मध्यावधि कह सकते हैं. यों, मोदी सरकार का दूसरा साल पूरा नहीं हुआ है, पर यह माना जाता है कि चुनाव के पहले वाला बजट लोकलुभावन अधिक होता है, आर्थिक यथार्थ से कम प्रभावित. इसीलिए यह सुझाया जा रहा है कि यह बजट खास अहमियत रखता है.

जब नरेंद्र मोदी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ अपने दल को स्पष्ट बहुमत दिलाने में कामयाब हुए थे, तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं. आलोचकों को लगता है कि विकास का मुद्दा कब का पटरी से उतर चुका है अौर समावेशी विकास का नारा भले मोदी बुलंद करते रहे हैं, संघ परिवार के उग्र-आक्रामक सदस्यों की बकैती-लठैती ने सांप्रदायिक एजेंडे को ही सुर्खियों में रखा है. 

चूंकि प्रधानमंत्री इन बेलगाम गैरजिम्मेवार तत्वों को अनुशासित करने के अनिच्छुक दिखलाई देते रहे हैं, इसलिए इनका दुस्साहस बढ़ता ही जा रहा है अौर इसके विरोध में पूरा विभाजित विपक्ष एकजुट होकर संसद के कामकाज को बाधित करने पर आमादा रहा है. खुद इसी रणनीति का आचरण करनेवाले अौर इसे विरोध का संवैधानिक अधिकार करार देनेवाले जेटली के लिए इस तर्क को नकारना कठिन रहा है. यह संकट काल्पनिक नहीं, वास्तविक है कि संसद का बजट सत्र भी बिना किसी सार्थक बहस के बरबाद हो जाये.

यहां यह जोड़ने की जरूरत है कि बजट पास होने का कोई संकट नहीं, क्योंकि लोकसभा में एनडीए को बहुमत हासिल है. राज्यसभा बजट पास होने की राह में रोड़ा नहीं अटका सकती. पर आज यही सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं. कई ऐसे विधेयक हैं जीएसटी जैसे, जिनके अभाव में अर्थव्यवस्था का भविष्य अधर में लटका है अौर विदेशी पूंजी निवेश पर बुरा असर डाल रहा है.

इसके अलावा जिस ‘बढ़ती असहिष्णुता के माहौल' का उदाहरण हैदराबाद से लेकर जेएनयू तथा जाधवपुर विवि के परिसरों में देखने को मिलता रहा है, उसके मद्देनजर इस बारे में आश्वस्त रहना कठिन होता जा रहा है कि हम अपनी 7-8 प्रतिशत की महत्वाकांक्षी आर्थिक विकास दर को निरापद रख सकेंगे. विदेशों में हमारी छवि निश्चय ही उन घटनाअों से गंदलाई है, जो पटियाला हाउस की अदालत में देखने को मिलीं. 

बजट सत्र में आम तौर पर सार्वजनिक बहस इस पर केंद्रित रहा करती थी कि क्या आयकर की दर में कटौती होगी या कि सामाजिक क्षेत्र में सरकारी व्यय बढ़ाने के लिए राजस्व का बड़ा हिस्सा आरक्षित होगा? कृषि तथा उद्योग धंधों के पारंपरिक ‘बैर' का क्या समाधान यह बजट पेश करेगा? आधारभूत ढांचे में सुधार के बिना कुछ भी संभव नहीं. क्या इसको सामरिक खर्च पर तरजीह दी जायेगी? पिछले कई वर्षों से पीठासीन वित्त मंत्री यह बहाने बनाते रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मंदी को देखते हुए उनके हाथ बंधे रहे हैं. हालांकि, तेल की कीमतें निरंतर गिर रही हैं, जिससे सरकार को खासी राहत मिली है. 

प्रधानमंत्री का जोर ‘मेक इन इंडिया' वाले अभियान पर रहा है अर्थात् यह स्पष्ट है कि मेन्युफैक्चरिंग-अौद्योगिक उत्पादन को प्राथमिकता दी जायेगी. आम आदमी के मन में यह आशंका नाजायज नहीं कि अत्याधुनिक निर्माण प्रणाली में बुद्धिमान मशीनें हीं अधिकतर काम निबटाती हैं, फिर इस अभियान से रोजगार कैसे पैदा होगा? शायद इसी सवाल का जवाब देने के लिए ‘कौशल भारत' वाले पूरक अभियान का सूत्रपात किया गया है. जब तक बजट में संसाधनों का आवंटन जगजाहिर नहीं होता, तब तक यह समझ पाना असंभव है कि बदलाव वाले अंतराल में साधारण साधनहीन विपन्न तबके को राहत कैसे मिलेगी? 

क्या आत्महत्या के लिए मजबूर किसानों को कुछ सहारा सरकार देगी? दीर्घकालीन दृष्टि से देश की खाद्य सुरक्षा के बारे में क्या हम निश्चिंत हो सकते हैं? 

देशद्रोह बनाम देशप्रेम वाली बहस ने इस बात को असंभव बना दिया है कि सैनिक-सामरिक खर्च के बारे में ठंडे दिमाग से बहस कर असहमति या मतभेद का स्वर मुखर किया जा सके. सरहद पर संकट अौर देश की अखंडता के जोखिम को कोई भी नहीं नकारता अौर यह भी सच है कि इस संकट के लिए सिर्फ मुट्ठी भर अलगाववादी अतिवामपंथी ‘पेशेवर' छात्र नेता ही जिम्मेवार नहीं. 

अमेरिका द्वारा हाल ही में पाकिस्तान को एफ-16 विमानों की सप्लाई के कारण भारत सरकार की चिंता नाजायज नहीं. इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि ‘भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार को कमजोर करने की साजिश' में मात्र अब तक लुटे-पिटे देशी राजनीतिक दल ही नहीं, वरन् भारत के उदय को अस्त में बदलने के लिए सक्रिय अनेक बाहरी ताकतें भी सक्रिय हैं. 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार के समर्थन में अौर राजद्रोह विषयक कानून के उन्मूलन के पक्ष में नारे बुलंद करनेवाले स्वयं दोहरे मानदंडों का अनुसरण करने के कारण बहुत विश्वसनीय नहीं समझे जा सकते. यहां विस्तार से इस विषय की चर्चा नहीं की जा सकती, पर इसका उल्लेख परमावश्यक है, क्योंकि इसी कारण बजट से हमारा ध्यान हटा कर बुनियादी अधिकारों के उल्लंघन की तरफ भटकाया जा रहा है.

या कुल चर्चा वित्तीय घाटे को कम करने की अकादमिक कवायद तक सिमट जाती रही है. इसके लिए ‘प्रगतिशील-उदार-आधुनिक' अंगरेजीदां अल्पसंख्यक बौद्धिकों को दोष देना गलत है. तथाकथित ‘देशद्रोहियों' से कम बड़ा खतरा उन लंपट स्वयंभू ‘देशप्रेमियों' से नहीं है, जो आज कानून के राज की धज्जियां उड़ाने पर आमादा हैं अौर जिनके प्रति दलगत पक्षधरता के कारण बरती जा रही नरमी केंद्र सरकार की विश्वसनीयता को कम कर रही है. ऐसी स्थिति में बजट को पेश करना या उसे पारित करा लेना महज रस्म अदायगी लगने लगा है.