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दौलत के साथ ही बढ़ी गैर-बराबरी- सत्येंद्र रंजन

शायद यह अतिरंजना हो, लेकिन पश्चिमी मीडिया में थॉमस पिकेटी को नया कार्ल मार्क्स कहा गया है। ऐसा उनके प्रशंसकों ने तो संभवतः कम कहा है, लेकिन उन लोगों को उनमें मार्क्स की छाया ज्यादा नजर आई है, जो गैर-बराबरी का मुद्दा उठते ही खलबला जाते हैं।

उनकी परेशानी का सबब यह है कि पिकेटी ने अपनी बहुचर्चित किताब 'कैपिटल इन ट्‌वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' में आमदनी और धन की विषमता को तथ्यात्मक एवं तार्किक ढंग से पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम सिद्ध कर दिया है। उन्होंने इन दावों को निराधार ठहरा दिया है कि यह व्यवस्था उद्यम और प्रतिभा को प्रतिस्पर्धा के समान अवसर उपलब्ध कराती है। अगर यह धारणा टूट जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था का औचित्य जनमत के कठघरे में खड़ा हो जाएगा।

आखिर पिकेटी के निष्कर्ष क्या हैं? इसे खुद उनके शब्दों में समझते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा - 'मेरी किताब औद्योगिक क्रांति के बाद से 20 से ज्यादा देशों में आमदनी और धन के वितरण के इतिहास से संबंधित है। इतिहास हमें बताता है किशक्तिशाली ताकतें दोनों ही दिशाओं (समता और विषमता) में जाती हैं। उनमें कौन मजबूत पड़ेगा, यह मौजूद संस्थाओं और उन नीतियों पर निर्भर करता है, जिन्हें हम सामूहिक रूप से अपनाते हैं।

ऐतिहासिक रूप से देशों के अंदर और देशों के बीच समता लाने वाली मुख्य शक्ति ज्ञान एवं कौशल का प्रसार रही है। लेकिन समावेशी शिक्षण संस्थाओं और कौशल विकास में निरंतर निवेश के बगैर यह प्रक्रिया ठीक ढंग से काम नहीं कर सकती।'

पिकेटी ने बताया है कि ज्यादा शक्तिशाली ताकतें इस प्रक्रिया को रोक देती हैं। नतीजतन पूंजी पर मुनाफा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर से अधिक हो जाता है। इससे विषमता बढ़ती है। ऊपरी वर्ग के लोगों के हाथ में धन अधिक पहुंचता है और उत्तराधिकार के रूप में उनके परिवार में सिमटा रहता है। पिकेटी के मुताबिक 1987-2013 की अवधि में पूंजी पर मुनाफा विकास दर की तुलना में बढ़ता गया है।

पिकेटी ने इसकी व्याख्या की है कि 1914 से 1945 के बीच पूंजीवादी दुनिया में विषतमा क्यों घटी। खुले बाजार की नीतियों के समर्थक इस दौर को ही पूंजीवाद के तहत उद्यम भावना और हुनर के फलने-फूलने का दौर बताते हैं। मगर पिकेटी कहते हैं किऐसा उस काल में पूंजी को लगे झटकों की वजह से हुआ। वो दो विश्वयुद्धों का काल था, जिस दौरान महंगाई दर तेज रही और अमेरिका महामंदी का शिकार हुआ।

इस वजह से अमेरिका व यूरोप में नई वित्तीय एवं सामाजिक संस्थाएं बनाना पड़ीं। विश्वयुद्धों से हुए नुकसान के बाद नवनिर्माण के कार्य में सार्वजनिक निवेश बड़े पैमाने पर हुआ, जिससे रोजगार के लाभकारी अवसर पैदा हुए। इससे आर्थिक विकास के लाभ अधिक लोगों के हाथ में पहुंचे और गैर-बराबरी घटी।

लेकिन जैसे ही पूंजीवाद स्थिर हुआ, पूंजी पर मुनाफे का अनुपात बढ़ने लगा और अब यह आर्थिक विकास से लगभग स्वतंत्र हो गया है। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका में कुछ साल पूर्व आई मंदी के बाद भी बड़ी कंपनियों के कार्यकारी अधिकारियों के वेतन-भत्तों व बोनस में इजाफा होता गया, जबकि लाखों लोगों की नौकरियां गईं और उनकी तनख्वाह में कटौती हुई। यह पूरी परिघटना यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी दोहराई गई है।

इनमें हमारा देश भी है। वास्तव में भारत की कथा तो और जटिल है। विकसित देशों में तो कम से कम इस बात के विश्वसनीय आंकड़े मौजूद हैं कि कितना राष्ट्रीय धनपैदा हो रहा है और उसमें कितना किस वर्ग के हाथ में जा रहा है।

भारत का हाल क्या है? इस बारे में पिकेटी की राय जानना उपयोगी होगा। उन्होंने कहा है - 'भारत में आमदनी की गैर-बराबरी को मापने में बड़ी समस्याएं हैं। बेशक आंकड़ों की समस्या हर देश में है। लेकिन सभी लोकतांत्रिक देशों में भारत संभवतः अकेला देश है, जहां के आंकड़े पाने में हमें सबसे ज्यादा दिक्कत हुई। खासकर भारत के आयकर प्रशासन ने आयकर के आंकड़ों को विस्तृत रूप से तैयार करने का काम लगभग छोड़ ही दिया है।

पारदर्शिता का यह अभाव समस्यामूलक है, क्योंकि इस वजह से खुद दी गई जानकारियों पर आधारित सर्वेक्षण रिपोर्टों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो संतोषजनक नहीं हैं। आयकर के आंकड़े हर देश में सूचना के मुख्य अतिरिक्त स्रोत हैं। परिणाम यह है कि भारत में पिछले कुछ दशकों में जीडीपी का विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच वास्तविक बंटवारा कैसे हुआ है, इस बारे में बहुत कम जानकारी है।'

यह जानकारी सामने हो, तो भयावह तस्वीर सामने आ सकती है। आखिर क्रोनी (याराना) पूंजीवाद का जितना खुला खेल अपने देश में हुआ है, उतना शायद ही किसी लोकतांत्रिक देशमें हुआ हो। इस वर्ष अपने स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि बढ़ती गैर-बराबरी स्वीकार्य नहीं है और वे इसे नियंत्रित करने की नीतियां अपनाएंगे।

किंतु अपने देश में अभी इस समस्या की चर्चा तक नहीं है। ऐसा सवाल उठाने वालों को समाजवाद की घिसी-पिटी विचारधारा का पैरोकार बताकर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन ऐसा करना अब शायद संभव न हो। इसलिए कि थॉमस पिकेटी की किताब ने दुनिया में बहस का रुख मोड़ दिया है। हमारे देश के हुक्मरानों को भी आमदनी एवं संसाधनों के न्यायपूर्ण पुनर्वितरण पर अब सोचना होगा। वरना, वे देश में अशांति को न्योता देंगे।