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धान खरीद योजना के नाम पर लूट

महालेखाकार की जांच में हुआ है भारी गड़बड़ी का खुलासा, सीबीआइ ने एफसीआइ के गोदामों में की है छापामारी

राज्य में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद की योजना वित्तीय वर्ष 2011-12 में शुरू हुई थी, जो अब तक चल रही है. इस बीच वित्तीय वर्ष 2013-14 में सिर्फ दो जिले रामगढ़ व हजारीबाग तथा 2014-15 के सुखाड़ में भी हजारीबाग जिले में धान की खरीद हुई थी. इस दौरान इस योजना में सर्वाधिक गड़बड़ी वित्तीय वर्ष वर्ष 2011-12 तथा 2012-13 में हुई है. राज्य सरकार के धान खरीद योजना शुरू करने से पहले भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) अपने स्तर से किसानों से धान खरीदता था. गत दो वर्षों से एफसीआइ फिर से धान खरीद में शामिल किया गया है. शुरुआत से ही इस योजना को लूट की योजना बना दिया गया. 'प्रभात खबर' वर्ष 2009 से ही धान खरीद योजना में गड़बड़ी की खबर प्रकाशित करता रहा है.

इस बीच खाद्य आपूर्ति तथा सहकारिता विभाग के वरीय अधिकारियों ने योजना में पारदर्शिता बढ़ाने तथा लूट कम करने के संबंध में ढेरों बातें कहीं, पर हुआ कुछ नहीं. यहां तक कि धान खरीद से पहले किसानों का निबंधन (नाम, पता, लगान रसीद व खेत के रकबा के साथ) करने की पहल आज तक नहीं हो सकी है. अब महालेखाकार की जांच में धान खरीद योजना में भारी गड़बड़ी का खुलासा हुआ है. वहीं सीबीआइ ने भी एजी की रिपोर्ट के आधार पर एफसीआइ के गोदामों में छापामारी की है.

संजय

रांची : देश भर में चावल, गेहूं अौर गन्ना सहित कुछ अन्य फसलें हर वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर खरीदी जाती हैं. यह कीमत केंद्र सरकार तय करती है. इसका मकसद किसान को उसकी फसल की वाजिब कीमत दिलाना है. पर झारखंड में होने वाली धान खरीद योजना को राज्य सरकार के अधिकारियों, चावल मिला मालिकों तथा भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के भी अधिकारियों ने अपनी कमाई का जरिया बना लिया. राज्य में धान खरीद का रिकॉर्ड वित्तीय वर्ष 2004-05 से उपलब्ध है. तब एफसीआइ ही धान खरीदता था. राज्य सरकार के जरिये यह खरीद वित्तीय वर्ष 2011-12 से शुरू हुई. दरअसल वर्ष 2008-09 से ही धान खरीद में गड़बड़ी शुरू हुई थी.

ये है योजना

सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदती है. सहकारिता विभाग के लार्ज एरिया मल्टीपरपस सोसाइटी (लैंपस) तथा प्राइमरी एग्रिकल्चरल क्रेडिट सोसाइटी (पैक्स) के जरिये किसानों से धान खरीदे जाते हैं. यह धान मीलिंग (कुटाई) के लिए चावल मिलों में भेजा जाता है. मिल से चावल (लेवी चावल) निकलने पर इसे एफसीआइ को भेजा जाता है.

इसका बिल देने पर एफसीआइ सरकार को चावल की कीमत अदा करता है. इस तरह से किसानों से धान खरीद का एक रिवॉल्विंग फंड चलता रहता है. लैंप्स-पैक्स से मिलों को धान तथा मिलों से निकला चावल एफसीआइ तक भेजने का काम सरकार का है. इस परिवहन शुल्क के लिए लैंपस-पैक्स को एडवांस दिये जाते हैं. वहीं, गत वर्ष से धान खरीद में शामिल एफसीआइ अपने खरीद वाले जिलों में धान व चावल का परिवहन खुद किया है.

झारखंड में किसान हित की योजना का ये हाल!

खरीफ मौसम 2011-12 में धान खरीद में करीब 20 करोड़ के हेरफेर का अनुमान था. दरअसल राज्य के कुल 81 चावल मिलों की क्षमता से अधिक लेवी चावल का उठाव भारतीय खाद्य निगम ने अपने गोदामों के लिए किया था. मिल मालिकों ने जहां-तहां से बोरे जुगाड़ कर चावल बेचा था.

किसानों को लाभ पहुंचाने के नाम पर उनसे सिर्फ 30 हजार टन धान की ही खरीद हुई थी. पर इससे पांच गुना अधिक लेवी चावल (1.5 लाख टन) तथाकथित मिलों से एफसीआइ के गोदामों में पहुंचा दिये गये. कुल धान का 68 फीसदी चावल ही निकलता है. यानी डेढ़ लाख टन चावल के लिए करीब 30 लाख टन धान चाहिए.

दरअसल निगम व राज्य सरकार के कुछ वरीय अधिकारियों ने आपसी सहमति से इस घोटाले को अंजाम दिया था. पड़ोसी राज्यों से निम्न स्तरीय (टुकड़ा या खुदी सहित घटिया) चावल मंगाये व मिलों के जरिये लेवी चावल के नाम पर इसे उठा लिया था. 'प्रभात खबर' को सूचना मिली थी कि 900 से 1150 रुपये प्रति क्विंटल वाला चावल एफसीआइ ने मिल मालिकों से 1452 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर लिया था. इसमें अधिकारियों को प्रति क्विंटल 160 रुपये कमीशन मिलने की सूचना थी. इस तरह 1.5 लाख मिट्रिक टन (15 लाख क्विंटल) की लेवी राइस में करीब 20 करोड़ कमीशन की लेनदेन की संभावना जतायी गयी थी.

सबसे पहली गड़बड़ी 20 करोड़ की

घोटाले में शामिल रहे हैं चावल मिल

सूत्रों के अनुसार राइस मिल के नाम पर राज्य के कई मिल सिर्फ गोरखधंधा करते हैं. पाकुड़, देवघर और चाकुलिया सहित कुछ अन्य स्थानों पर किसी चहारदीवारी के अंदर कुछ उपकरण लगाकर इसे राइस मिल बताया जाता है. ऐसे मिल धान की खरीद नहीं करते. असली धंधा तो पहले राज्य के अंदर के चावल (एफसीआइ से एसएफसी भेजे जाने वाले व पीडीएस के) की ही रीसाइक्लिंग थी. वहीं, पड़ोसी राज्यों से सीधे चावल मंगाकर अपना चावल बताया जाता है. रांची जिले की भी एक मिल पर यही आरोप लगाये जाते हैं. एफसीआइ ने इस वर्ष 'प्रभात खबर' को बताया था कि कुल 81 मिलों को मीलिंग के लिए टैग किया गया है.

पर इन मिलों की क्षमता नहीं बतायी गयी थी. गौरतलब है कि वर्ष 2008-09 में झारखंड के राइस मिलों ने कुल 33 लाख क्विंटल धान की मिलिंग (कुटाई) की थी. अभी एजी की जांच में पाया गया कि खरीफ मौसम 2011 से 13 के बीच चावल मिलों को मिलिंग के लिए टैग करने में भारी गड़बड़ी. उद्योग विभाग में निबंधन के बगैर देवघर की मिलों को टैग किया गया. जमशेदपुर की तीन मिल निरीक्षण के क्रम में अभी बंद मिली. हजारीबाग, गिरिडीह, लोहरदगा व दुमका की कई मिलों को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कंसेंट टू अॉपरेट (सीटीओ) तथा कंसेंट यू इस्टैब्लिस (सीटीइ) के बगैर या इसके पहले ही टैग किया गया.

खरीद में शर्तों का पालन नहीं

किसानों के नाम, पते व रकबा का पूरा ब्योरा लेना

किसानों को दो-तीन दिनों के अंदर एकाउंट पेयी चेक से भुगतान

तीन-चार दिनों के अंदर इन्हें सरकार द्वारा सूचीबद्ध राइस मिलों में भेजना

किसान के बोरे में धान नहीं खरीदना

लैंपस-पैक्स को उपलब्ध कराये गये बोरों पर स्टेनसिल से बोरों पर लैंपस-पैक्स का नाम अंकित करना