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न बीतनेवाला दिसंबर-- सुजाता

दिसंबर बीतते हुए पिछले कई वर्षों का लेखा-जोखा आप से आप करने लगता है. ब्रेक्जिट, अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव, सीरिया का गृहयुद्ध, नोटबंदी, राष्ट्रगान, राष्ट्रभक्ति, इन सबका हिसाब लगाने के बाद भी एक दिसंबर बचा रहता है, जो कई वर्षों से नहीं बीता. न वह नया होता है न पुराना. वह बस टंग गया है दीवार पर. उसकी तारीखें बदलती हैं, लेकिन उसकी तासीर नहीं बदलती. यह हमेशा उतना ठंडा रहता है, जितना बलात्कार के बाद चलती बस से फेंक दिये नग्न शरीर महसूस करते होंगे. 

यह उतना ही सफेद रहता है; जितना कि बलात्कार के दौरान बर्बरता से लड़की के गुप्तांग में लोहे की रॉड डालते हुए उसकी अंतड़ियां बाहर कर देने के ब्यौरे सुन कर हम सबके चेहरे सफेद पड़ जाते हैं. इसके जख्म इतने हरे रहते हैं कि 2016 में भी ठीक 16 दिसंबर को ही एक गैंग रेप दिल्ली की सड़कों पर होता है और फिर 17 दिसंबर को दिल्ली के किसी और इलाके में उसका रिपीट टेलीकास्ट भी. यह उतना ही गीला रहता है, जितना राष्ट्रपति भवन के बाहर नारे लगाते, निर्भया के लिए न्याय की गुहार लगाते लड़के-लड़कियां पुलिस की पानी की बैछार से और अपने आंसुओं से गीले थे. 

बलात्कार को देखने का एक कोण यह है कि इसे किसी भी अन्य दुर्घटना की तरह माना जाये, ताकि स्त्री के लिए एक कम दर्दनाक अनुभव हो. जैसे एक पुरुष बल-प्रदर्शन कर दूसरे पुरुष को लूटता है या हिंसा करता है, वैसे ही स्त्री के साथ बलात्कार करता है. इसके लिए यह भी जरूरी है कि यौन शुचिता की अवधारणा से मुक्ति पायी जाये. 

जब तक इसे इज्जत खोने के अर्थ में लिया जायेगा, यह स्त्री के लिए अपमान और बलात्कारी के लिए गर्व का विषय रहेगा और तब बलत्कृत के सामान्य हो पाने की संभावनाएं कमतर होंगी. बावजूद इसके, क्या वाकई बलात्कार को एक सामान्य दुर्घटना की तरह देखा जा सकता है? क्या सिर्फ यह माना जा सकता है कि अपने मर्दाने बल का इस्तेमाल करके कोई पुरुष अपने यौन आवेग को शांत करता है? पिछले कई वर्षों में बलात्कार के इतने प्रकार हम देख-सुन और अखबारों में पढ़ चुके हैं कि बलात्कार सिर्फ इतना भर मामला नहीं लगता कि इसे एक दुर्घटना कहा जा सके. 

किसी दलित स्त्री पर गांव के सवर्णों द्वारा की गयी यौन हिंसा या वर्गीय और नस्लीय भेदभाव के चलते की गयी यौन हिंसा सिर्फ यौन आवेग की शांति के लिए स्त्री पर किया बल-प्रदर्शन नहीं है. यह सीधा-सीधा उस व्यवस्था का मामला है, जो अपने मूल चरित्र में मर्दाना है. यह उस सामाजिक अनुकूलन का मामला है, जिसके अनुसार स्त्री 'सेकेंड सेक्स' है, दोयम दर्जे की नागरिक है, एक वस्तु है. खुला हुआ खजाना है, जिसे मौका मिलते ही लूटा जा सकता है.

इसलिए स्त्री पर किसी भी किस्म की हिंसा दरअसल उसकी देह, उसकी यौनिकता पर ही हमला होती है. लड़की की जाति के लिए सबक सिखाना है, तो यौन हिंसा. उसकी स्कर्ट से चमकती टांगे उसके अच्छे परिवार से होने की गवाह हैं, तो वर्गीय हिंसा. यह सब अंतत: यौन हिंसा का ही रूप लेती है. गरीब है, तो भी यौन वस्तु के रूप में वह उपलब्ध समझी जाती है. स्त्री की यौनिकता का दमन करके ही उसकी हिम्मत को तोड़ा जा सकता है, यह सोच हमारी सामाजिकता की नींव में ही है. वाचिक हिंसा (मौखिक बलात्कार) में भी स्त्री जननांग और यौन-क्रियाएं ही निशाना बनती हैं. 

इसलिए बलात्कारी सिर्फ एक बीमार व्यक्ति या सामान्य अपराधी है, तो इसका अर्थ है एक भयानक लैंगिक गैरबराबरी भी सामान्य बात है. 
अगर यह सामान्य है, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि हर उस व्यक्ति में बलात्कारी होने की संभावना छिपी है, जो स्त्री के प्रति मानसिक-वाचिक हिंसा में केवल उसकी यौनिकता को लक्ष्य करता है. इस हिसाब से यह एक पूरी सभ्यता का रोग है. पुरानी बीमारी है. शत्रु की स्त्री को नग्न देखने का हिंसक खयाल रीतिकालीन कवि भूषण के काव्य की उस पंक्ति में देखा जा सकता है, जिसमें अपने आश्रयदाता की प्रशंसा के लिए वे शत्रु की दुर्दशा बयान करते हुए शत्रु पक्ष की स्त्री के जंगल-जंगल नग्न फिरने की बात कहते हैं- ‘नगन जड़ाती थी वे नगन जड़ाती हैं'. 

कविता की लय बांधने के लिए, अलंकार का चमत्कार दिखाने के लिए वन में जाड़ा खाती शत्रु पक्ष की नग्न स्त्रियां, जो ट्रेजडी का समां बांधेंगी, वह किसी अन्य प्रकार से क्यों संभव नहीं होता. ‘थ्री इडियट्स' की बलात्कार और चमत्कार वाली स्पीच सुन कर धन का स्तन हमें गुदगुदाता क्यों है? तमाम कॉमेडी शो ऐसी लैंगिक हिंसा और स्त्री देह को वस्तु में बदल देने की बुरी बीमारी से ग्रस्त हैं. निर्भया केस के बाद अगर कोई वकील खुलेआम समाचार चैनलों पर यह कह सकता है कि- 'मेरी बेटी ऐसी होती, तो मैं उसे जला देता'- तो यह सुन कर दहशत होनी चाहिए कि हम एक समाज के रूप में कितनी बुरी तरह भीतर तक दीमक से खोखले किये जा चुके हैं. 

हमारे शहर में सब कुछ है, तरह-तरह के मोबाइल एप हैं, लेकिन स्त्री के लिए वह फिर भी सुरक्षित जगह नहीं है. सामाजिक विषमताएं इतनी अधिक हैं कि लैंगिक भेद के साथ मिल कर वे स्त्री के लिए एक हिंसक माहौल रचती हैं. हम एक शहर में एक साथ अलग-अलग तरह के समाज अलग-अलग युगों में जीते हैं. 

इन सभी सामाजिक परिस्थितियों से अलगाकर स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा को रोकने के बहुत कारगर उपाय होना संभव नहीं है. निर्भया के पास अपनी कार होती, तो उस दर्दनाक अनुभव से गुजरने की संभावना लगभग शून्य होती. यानी आम आदमी के यातायात का साधन एकदम सुरक्षित नहीं है, जो इस केस के बाद सबसे पहले सुधार किया जाना चाहिए था. आप आम स्त्री हैं, उस पर से अशिक्षित-आर्थिक रूप से निर्भर भी, तो आपके लिए शहर में रहने के नियम और शर्तें मर्दाने वक्त और स्पेस में और भी ज्यादा कड़ी होंगी. 

हफ्ता पहले बिहार से दिल्ली आयी पंद्रह साल की लड़की अगर बलात्कारियों का शिकार हो जाती है, तो समझा जा सकता है कि यह सिर्फ आत्मरक्षा प्रशिक्षण कैंप और मोबाइल एप जैसे उपायों (हालांकि वे भी बेहद जरूरी हैं) से निबटनेवाली समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे सामाजिक ढांचे की ओवरहॉलिंग का मामला है, ताकि ऐसे दिसंबरों में भी लड़कियां अप्रैल और मई की तरह खिली रहें.