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नई व्‍यवस्‍था से कितनी बदलेगी रेल? - अरविंद कुमार सिंह

रेलवे की रफ्तार और तेज करने व कायाकल्प के इरादे से रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसा हासिल कर रेल बजट का आम बजट में विलय कराने में सफलता हासिल कर ली है। 1924 से लगातार जो रेल बजट आम बजट से अलग पेश होता रहा है, वह अब इतिहास का अंग बन गया है। किंतु इसे लेकर कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं। अब रेलवे क्या वाकई तेज रफ्तार के साथ जनाकांक्षाओं पर खरी उतर सकेगी और उसे तमाम चुनौतियों और आर्थिक संकटों से निजात मिल सकेगी? या फिर यह नौकरशाही और लालफीते के जाल में फंस जाएगी? वित्त मंत्रालय के साथ अन्य मंत्रालयों का तजुर्बा बहुत सहज नहीं रहा है। संसदीय समितियों की तमाम रिपोर्ट्स इसका संकेत देती हैं।

हालांकि केंद्रीय वित्त व कॉरपोरेट मामलों के मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया कि नई व्यवस्था के बाद भी रेलवे की स्वतंत्र हैसियत, स्वायत्तता और पहचान बरकरार रहेगी और उसे मिलने वाली सहायता में कमी नहीं होगी। वैसे तो नए फैसले पर बहुत से दावे किए जा रहे हैं, किंतु हकीकत यह है कि अब भारतीय रेल विभाग करीब-करीब भारतीय डाक जैसा बनने जा रहा है। दोनों का प्रशासनिक ढांचा करीब एक-सा ही है और रेलवे बोर्ड की तरह वहां डाक सेवा बोर्ड फैसले लेता है। बेशक रेल बजट के विलय के बाद रेलवे बाकी सरकारी विभागों में अपनी अलग हैसियत बनाए रख सकेगा, किंतु वह आज जैसी कतई नहीं होगी। वास्तव में अब रेलवे बोर्ड को नए सिरे से पुनर्गठित कर और ताकतवर बनाने की जरूरत है। आज रेलवे की चिंताओं में सबसे बड़ी चिंता यह है कि उसका वेतन बिल बढ़ता जा रहा है। यह तब है, जब रेलवे में कर्मचारियों की संख्या लगातार घट रही है। 1991 में 18.7 लाख रेल कर्मचारी थे, जो अब 13 लाख से कम हैं। बड़ी संख्या में पद खाली पड़े हैं, जिसमें से डेढ़ लाख से अधिक संरक्षा श्रेणी और रेलवे सुरक्षा बल के हैं। रेलगाड़ियां बढ़ रही हैं और स्टाफ घट रहा है। इस नाते एक अलग किस्म की अराजकता पैदा हो रही है। वहीं रेलवे का सामाजिक दायित्व बढ़ता जा रहा है। सातवें वेतन आयोग ने रेलवे पर 40,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त दबाव डाला है, जबकि यात्री सेवाओं का घाटा बढ़कर सालाना 33,000 करोड़ रुपए हो गया है।

भारतीय रेल अपनी यात्री सेवाओं के घाटे को माल सेवाओं की कमाई से पूरा करती है। अलोकप्रिय हो जाने के डर से रेल मंत्री किराया बढ़ाने से डरते हैं। भारतीय रेल की तुलना में चीन में यात्री किराए 2.7 गुना, जर्मनी में 6.2 गुना और जापान में 9.4 गुना अधिक हैं। अब नई व्यवस्था के तहत कहा यही जा रही है कि रेलवे सरकार के विभागीय वाणिज्यिक उपक्रम के तौर पर काम करती रहेगी और उसे वित्तीय स्वायत्तता होगी। वह सभी राजस्व व्यय, कार्यकारी व्यय, वेतन-भत्ते और पेंशन आदि पर व्यय अपने राजस्व प्राप्तियों से करेगी। अलबत्ता 2017-18 से उसे सालाना करीब 9700 करोड़ रुपए का लाभांश देने से राहत मिल जाएगी। यही एक प्रमुख बात इस सारी कसरत में दिख रही है। अब एक बजट ही होगा, जिसमें रेलवे से जुड़े सभी प्रावधान आम बजट में शामिल होगें और विनियोग विधेयक भी एक ही होगा। यात्री किराया और माल भाड़ा रेलवे ही तय करेगा, लेकिन कमाई और व्यय का हिसाब वित्त मंत्री संसद में रखेंगे।

वास्तविकता यह है कि रेल मंत्री के तौर पर सुरेश प्रभु तमाम कोशिशों के बाद भी वह कायाकल्प नहीं कर सके जिसका सपना उन्होंने दिखाया था। आज रेलवे की चालू परियोजनाओं के लिए पांच लाख करोड़ रुपए की जरूरत है। सार्वजनिक परिवहन का साधन होने के नाते रेलवे के पास दो ही रास्ते हैं। सरकार मदद करे या फिर निजी क्षेत्र से हाथ मिलाया जाए। 2019 तक 1.99 लाख करोड़ रुपए व्यय कर सालाना माल वहन क्षमता डेढ़ अरब टन करने की फौरी चुनौती रेलवे के समक्ष है। इसके लिए बहुत कुछ करने व संसाधन जुटाने की जरूरत होगी। सातवें वेतन आयोग के चलते रेलवे का परिचानल अनुपात बिगड़कर 92 फीसदी पर आ गया। साधारण संचालन व्यय भी तेजी से बढ़ा है। इसे रोकने की ठोस रणनीति रेलवे नहीं बना पाया है।

भारतीय रेल रोज ढाई करोड़ से अधिक मुसाफिरों को कम कीमत पर गंतव्य तक पहुंचा रही है। यह रोज औसतन 19,710 गाड़ियां चलाती है, जिसमें 12,335 सवारी गाड़ियां हैं। यात्री दबाव बढ़ने से सेवाओं का स्तर गिर रहा है। माल ढुलाई में वैसे तो भारतीय रेल अमेरिका, चीन और रूस के साथ एक बिलियन टन के विशिष्ट क्लब में शामिल हो चुकी है। लेकिन सवारी गाड़ियों का हर साल बढ़ता घाटा उसका गणित बिगाड़ रहा है। रेलवे में एक दशक तक किराए बढ़े नहीं। अगर सालाना कम से कम सात फीसदी किराया भी बढ़ता तो रेलवे एक लाख 29 हजार 786 करोड़ रूपए कमा सकती थी और बहुत-सी योजनाओं को अमलीजामा पहना सकती थी।

भारतीय रेल की 27.19 फीसदी आमदनी यात्री परिवहन से होती है। यात्री सेवाओं में भी 76 फीसदी आय लंबी दूरी की एक्सप्रेस ट्रेनों से होती है। आम पैसेंजर गाड़ियों व उपनगरीय सेवाओं से 7 फीसदी से भी कम आय होती है। माल ढुलाई में भी करीब 88 फीसदी आय चुनिंदा क्षेत्रों से व 10 फीसदी सामान्य माल से होती है। यदि तमाम सेवाएं घाटे में जा रही हैं और संचालन व्यय बढ़ रहा है तो नई व्यवस्था से कैसे कायाकल्प संभव होगा?

आज भारतीय रेल के जिम्मे सामाजिक सेवा दायित्व और राजस्व कमाना दोनों शामिल है। लेकिन उसे वित्त मंत्रालय का बजटीय समर्थन चुनौतियों के हिसाब से कम मिलता है। दूसरे रास्तो की तलाश में भी रेलवे बहुत सफल नहीं रही है। भारतीय रेल आज भारी वित्तीय तंगी से गुजर रही है और परिसंपत्तियों को बदलने से लेकर आधुनिकीकरण के लिए इसे भारीभरकम धन चाहिए। चौतरफा ओवरहॉलिंग के साथ आधुनिकीकरण के लिए उसे ठोस प्रयास करने की जरूरत है। इसके लिए संसाधन बढ़ाना होंगे।

हम इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि कुल परिवहन व्यय में रेलवे का हिस्सा सिकुड़ रहा है। सातवीं योजना के दौरान इसका व्यय 56 फीसदी था, जो 11वीं योजना में घटकर 2012 तक 30 फीसदी हो गया। बीते दो दशकों में भारतीय रेल पर निवेश में कमी आई और जीडीपी मे रेल का हिस्सा 1 फीसदी तक रहने के बाद 2012-13 में घट कर 0.9 फीसदी हो गया। दूसरे संकट अलग हैं।

भारतीय रेल का यह भी दुर्भाग्य रहा कि यह बीते कई सालों से तमाम रेलमंत्रियों की प्रयोगशाला बनता रहा। जो भी नए मंत्री आते हैं, इसमें अपने तरीके से नए प्रयोग करते हैं। कुछ लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं तो कुछ यह जानते हुए भी नई रेलगाड़ियां चला देते हैं कि इससे रेलवे पर बोझ और बढ़ेगा। अब तो प्रधानमंत्री की ड्रीम प्रोजेक्ट बुलेट ट्रेन के लिए भी रेलवे को 98,000 करोड़ रुपए जुटाने की जरूरत सामने है।

(लेखक रेल मंत्रालय के पूर्व सलाहकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)