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नकदी : कुछ किल्लत, कुछ हल्ला-- राजीव रंजन झा

पिछले कुछ दिनों से फेसबुक और ट्विटर जैसे लोक-माध्यमों पर यह हल्ला मचा हुआ है कि बैंकों के एटीएम खाली हैं और बैंक शाखाओं में जाने पर भी नकदी नहीं मिल पा रही है. ऐसे मुद्दे पर राजनीति तो गरमानी ही थी.

राहुल गांधी ने आरोप मढ़ डाला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के बैंकिंग तंत्र को तबाह कर डाला है. कांग्रेस ने ट्वीट करके सवाल उठाया कि देश भर में एटीएम में पैसे नहीं होने की खबरें आना मोदी सरकार का कुप्रबंधन है, या इरादतन ऐसा किया जा रहा है?


वहीं दूसरी ओर, सरकार ने दावा किया है कि देश में नकदी का कोई संकट नहीं है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक ट्वीट करके कहा कि हमने देश में मुद्रा की स्थिति की समीक्षा की है. कुल मिलाकर पर्याप्त मुद्रा प्रचलन में है और बैंकों के पास नकदी उपलब्ध भी है. कुछ क्षेत्रों में मांग में अचानक और असामान्य वृद्धि के कारण आयी तात्कालिक कमी का तत्काल समाधान किया जा रहा है.

आरबीआई ने भी बयान जारी करके बताया कि बीते छह अप्रैल को देश में कुल 18.17 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में थी, जो नोटबंदी के समय प्रचलन में मौजूद मुद्रा के आसपास ही है. आरबीआई का यह भी तर्क है कि डिजिटल लेन-देन काफी बढ़ जाने के चलते अब नकदी की जरूरत पहले जितनी नहीं रह गयी है, उसके बाद भी प्रचलन में मौजूद मुद्रा का स्तर पहले जितना रखा गया है.

फिर आगे और ब्योरा देने के लिए आर्थिक कार्य सचिव सुभाष गर्ग भी सामने आये. उन्होंने बताया कि पिछले दो-तीन महीनों में जनवरी से मार्च के बीच में तकरीबन 40-45 हजार करोड़ रुपये प्रति माह की मांग रही थी, जिसकी तुलना में इस महीने के पहले 12-13 दिनों में ही करीब 45 हजार करोड़ रुपये की मांग आयी.

उन्होंने सरकार और आरबीआई की तैयारियों का जिक्र किया और बताया कि लगभग पौने दो लाख करोड़ रुपये के नोट अब भी हमारे पास सुरक्षित भंडार में हैं. पिछले कुछ दिनों में हमने नोटों की छपाई का कार्यक्रम भी बहुत बढ़ा दिया है. अंदाजन 10-15 दिनों पहले तक हम 500 रुपये के नोटों की एक दिन में करीब 500 करोड़ रुपये की छपाई कर रहे थे. लेकिन अब हमने उसको बढ़ा दिया है.

अब जल्दी ही हम 2,500 करोड़ रुपये के नोट एक दिन में छापने लगेंगे. इसका मतलब यह है कि एक महीने में हम करीब 70-75 हजार करोड़ रुपये के नोट छाप सकेंगे, वह भी अकेले 500 रुपये के नोटों में. बाकी और जो नोट छपते हैं, वे अलग हैं.
बहरहाल, इन आंकड़ों और सरकारी दावों का तालमेल जमीनी हकीकत से पूरी तरह नहीं बैठ रहा है. देश के काफी हिस्सों से लोग बता रहे हैं कि एटीएम से पैसे नहीं मिल रहे हैं और बहुत जगहों पर बैंक शाखाओं में निकासी पर सीमाएं लगी हुई हैं.

आरबीआई का तर्क अपनी जगह वाजिब है कि कुल प्रचलित मुद्रा में कमी नहीं आयी है और डिजिटल लेन-देन के चलते नकदी की जरूरत पहले जितनी नहीं रह गयी है. तो सवाल उठता है कि आखिर जमीनी स्तर पर यह कमी क्यों बन गयी है?

बैंकों का कहना है कि वास्तव में कमी उतनी भी नहीं है, जितना हौव्वा यह बन गया है. बैंकिंग सूत्रों के अनुसार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के कुछ-कुछ इलाकों में वास्तव में पैसों की कुछ कमी हो गयी. और बैंकिंग सूत्र इसके लिए कुछ हद तक आरबीआई से नोटों की कम आपूर्ति को ही जिम्मेदार ठहराते हैं.

एसबीआई के सूत्र बताते हैं कि औसतन आम दिनों में बैंक के 92 प्रतिशत एटीएम में नकदी होती है. बीते मंगलवार, 17 अप्रैल की स्थिति के अनुसार, एसबीआई के लगभग 87-88 प्रतिशत एटीएम में नकदी मौजूद थी. यानी सामान्य से कुछ कमी तो जरूर है. मगर सारे एटीएम खाली हैं का हल्ला भी महज अफवाह ही है.

यहां गौरतलब है कि अगर नकदी की किल्लत का हल्ला मच जाये, तो इस हल्ले से ही वास्तव में किल्लत पैदा हो सकती है, क्योंकि फिर हर कोई ज्यादा-से-ज्यादा नकदी जमा करने लगता है. फिर उस किल्लत की खबरें चलने से यह संकट और व्यापक हो सकता है.

वहीं एक दिलचस्प बात यह जानने को मिल रही है कि 2,000 के नोटों की जमाखोरी चल रही है. बैंकिंग क्षेत्र के सूत्र बता रहे हैं कि आजकल बैंकों से 2,000 के जितने नोट निकलते हैं, उसकी तुलना में बहुत कम नोट वापस जमा होते हैं.
यह जमाखोरी कहां हो रही है और यह किस तरह के लोग कर रहे हैं, इस बारे में केवल कयास ही लगाये जा सकते हैं, इसका कोई ठोस आधार तलाश पाना कुछ मुश्किल है.

आम आदमी तो ज्यादा नोट जमा करके रख ही नहीं सकता. आम आदी के खर्चे ही इतने ज्यादा हैं कि खर्चों के बोझ से उसके नोट तो खुद ही जल्दी बाजार में लौट आयेंगे. इसलिए सरकार को उन पर नजर रखनी चाहिए, जिन्हें बहुत काली नकदी की जरूरत पड़ती है.

जल्दी ही कई राज्यों में और फिर करीब साल भर बाद पूरे देश में चुनाव आनेवाले हैं. हम सब जानते हैं कि चुनावों में काले धन का कितना व्यापक खर्च होता है. इसलिए यह सवाल स्वाभाविक है कि नकदी का संकट कहीं चुनावों की तैयारी तो नहीं है?