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नकली अकल की असल चुनौती-- हरजिंदर

यह हमेशा ही होता रहा है। बदलाव जब दरवाजा खटखटाता है, तो उम्मीदें कम बनती हैं, आशंकाएं ज्यादा घेरती हैं। उम्मीद बांधने वाले कम होते हैं, परेशान होने वाले ज्यादा। हालांकि यह कहना भी सही नहीं है कि कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस या एआई हमारा दरवाजा खटखटा रही है। दरअसल, वह बहुत चुपके से हमारे जीवन में प्रवेश कर चुकी है। यह उसका शैशव काल है, इसलिए फिलहाल हम उसकी सक्रियता खिलौनों में ही देख रहे हैं। जैसे स्मार्टफोन में, हमारे कंप्यूटरों के छोटे-मोटे एप्लीकेशंस में या कॉल सेंटर वगैरह में। इसके औद्योगिक इस्तेमाल भी शुरू हो गए हैं, लेकिन वे अभी अपनी शुरुआती अवस्था में हैं। लेकिन इस पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगे हैं, इसलिए इसे लेकर भविष्य का खाका अभी से खींचा जाने लगा है। उनके द्वारा भी, जिनके पास इसकी परीकथाएं हैं और उनके द्वारा भी, जो भविष्य की प्रेतगाथाओं को रचने के लिए जाने जाते हैं। और हां, इसे लेकर तरह-तरह के चुटकले भी बनने लगे हैं। भविष्य का स्वागत हम एक साथ अपनी आशाओं, अपने डर और अपने हास्य बोध के साथ करें, यह एक तरह से अच्छा भी है। लेकिन अर्थशास्त्री और योजनाविद कहते हैं कि इससे बेहतर यही रहेगा कि हम भविष्य की आहट को पहचानें और उसी हिसाब से अपनी तैयारियां करें। हालांकि यह उतना आसान भी नहीं है, जितना कि सुनने में लगता है।


कोई भी नई तकनीक जब आती है, तो सबसे पहली चिंता रोजगार को लेकर उभरती है, जो कि स्वाभाविक भी है। यही औद्योगिक क्रांति के समय हुआ था और कंप्यूटर क्रांति के समय में भी। उद्योगों में रोबोट का जब इस्तेमाल शुरू हुआ, तब भी यही कहा गया। यह सच है कि ऐसी तकनीक के आगमन पर कुछ क्षेत्रों में लोग बेरोजगार भी हुए, लेकिन कई दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर भी बने। बल्कि कुल मिलाकर जितने रोजगार गए, उनसे कहीं ज्यादा इसके अवसर बढ़े। इन सभी तकनीक का इस्तेमाल उत्पादकता बढ़ाने में हुआ। उत्पादकता जब बढ़ती है, तो रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और कुछ हद तक संपन्नता भी। इतनी ही उम्मीद हम कृत्रिम बुद्धि से भी पाल सकते हैं। अभी तक के बदलावों से हमारी शिकायत यही रही है कि इसने न तो सभी को रोजगार दिया और न सभी को संपन्न बनाया। हो सकता है कि यह शिकायत फिर भी बनी रहे, लेकिन यह अलग मामला है।


इन दिनों कहा जा रहा है कि जल्द ही हमें अनुवादकों की जरूरत नहीं रहेगी, या सेक्रेटरी और क्लर्क के पद अब हमारे दफ्तरों से हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। लेकिन कृत्रिम बुद्धि जब जीवन के हर क्षेत्र में तैनात होगी, तब क्या होगा? कृत्रिम बुद्धि से लैस रोबोट कई मामलों में हमारे हमारे डॉक्टरों, इंजीनियरों या शायद वैज्ञानिकों से भी बेहतर साबित हो सकते हैं। वे कंपनियों के ज्यादा अच्छे डायरेक्टर हो सकते हैं, शेयर बाजार के ज्यादा अच्छे सटोरिए बन सकते हैं, ज्यादा अच्छे प्रशासक हो सकते हैं। हो सकता है कि आगे चलकर विचारक, समाजशास्त्री, दार्शनिक भी वही हों और लेखक-संपादक भी। सच यही है कि हमें नहीं पता कि यह कृत्रिम बुद्धि कहां तक पहुंचेगी? उसकी इस यात्रा में हमारे लिए रोजगार के अवसर कहां-कहां और कितने पैदा होंगे? इसलिए रोजगार के मामले में यह मसला हमें न बहुत उम्मीद के तर्क देता है, न बहुत परेशान होने के।


हालांकि कुछ ऐसे तर्क हैं, जिन्हें हम नजरंदाज नहीं कर सकते। जैसे महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग के तर्क। उन्हें लगता है कि यह कृत्रिम बुद्धि आगे चलकर मानव सभ्यता के लिए खतरा साबित हो सकती है। दार्शनिक निक बासट्राम मानते हैं कि इस कृत्रिम बुद्धि में इतनी क्षमता है कि आगे चलकर यह मानव सभ्यता का ही सफाया कर सकती है। जो इस अति तक नहीं सोच रहे, वे भी मानते हैं कि यह रास्ता हमें पोस्ट ह्यूमन उत्तर मानव युग की ओर ले जा सकता है। यानी एक ऐसा युग, जब मानव तो होगा, लेकिन उसका बोलबाला वैसा नहीं रहेगा, जैसा अब है। खासकर इसलिए भी कि हम पिछले कुछ समय से अपनी जिंदगी के बड़े फैसले करने का अधिकार कंप्यूटरों को देते जा रहे हैं। कुछ लोग अगर कृत्रिम बुद्धि के युद्धों में इस्तेमाल की आशंका को लेकर चिंतित हैं, तो कुछ इस बात से कि यह हमारी निजी जिंदगी तक में दखल देने लगेगा।


इन तरह-तरह के विचारों के बीच एक बात पर सबमें सहमति है कि हम एक ऐसे युग में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहां बदलाव की गति, या शायद हर चीज की गति काफी तेज होगी। हम जिस भी भविष्य की ओर बढ़ेंगे, काफी तेजी से बढ़ेंगे। लेकिन यहीं एक अंतर्विरोध भी है। पिछले कुछ समय में हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं, जहां अपने भविष्य की ओर देखने वाले कम होते जा रहे हैं और अपने अतीत पर इठलाने वाले बढ़ते जा रहे हैं। यह हमारे देश में ही नहीं, दुनिया भर में हो रहा है। अपने देश में बहुत सी चीजों का महिमा-मंडन अगर आपको परेशान करता हो, तो वहां देखिए, जहां खिलाफत की रचना के लिए न जाने कितने लोग जान दे रहे हैं या जान ले रहे हैं। इन सबको कुछ देर के लिए अनदेखा भी कर दें, तो हमारी मानसिकता में वर्तमान या भविष्य का बहुत कुछ नहीं बचा है। हम अभी भी उन सीमाओं को लेकर लड़ रहे हैं, जो अतीत के किसी घटनाक्रम में खींची गई थीं। धर्म, जाति व जातीयता के सदियों पुराने वैमनस्य अभी भी हमारे बीच अपनी पूरी धमक के साथ मौजूद हैं। ऐसे में, अगर ढेर सारी संभावनाओं और आशंकाओं वाली तकनीक हमारे बीच आई, तो खतरा यह है कि वह भी देर-सबेर ऐसे वैमनस्य बढ़ाने का औजार बन जाएगी। हम अगर अपने कृत्रिम तर्कों को छोड़कर सभ्य नहीं बने, तो कृत्रिम बुद्धि के असली तर्क हो सकता है कि हमें ही असभ्य घोषित कर दें। हम ऐसे दौर में हैं , जहां समाज को सुधारने, उसे बदलने के सपने हमारा साथ छोड़ चुके हैं। ऐसे में, कहीं कृत्रिम बुद्धि ही हमें सुधारने में जुट गई, तो चीजें हाथ से निकल भी सकती हैं।