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नदी का कोप या नीति में खोट-- चंदन श्रीवास्तव

बारिश, उमस और गरमी के इन दिनों में बदन पर मोटी बंडी कौन पहनेगा भला? लेकिन, मुख्यमंत्री की बात और है! उसे अपने हर क्षण को राजनीतिक मौके में तब्दील करने के लिए उमस में भी सीने पर बंडी बांधनी होती है. हमारे मीडियामुखी समय में कोई क्षण मौके में तब्दील होता है सुर्खियों और तसवीरों में बदल कर. सुर्खियों और तसवीरों के लिए कंट्रास्ट चाहिए, कैमरा और कलम कंट्रास्ट की ओर लपकते हैं.

यही ख्याल होगा, जो बाढ़ प्रभावित इलाके के निरीक्षण को निकले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने कुर्ते-पायजामे से कंट्रास्ट बनाने के लिए बंडी पहनी. बाढ़ की मार से परेशान साधारण लोगों के बीच मुख्यमंत्री के पहुंचने का प्रसंग खुद ही में एक फोटोजेनिक कंट्रास्ट है.

इस दोहरे कंट्रास्ट को पत्रकार के कैमरे ने पकड़ा जरूर, लेकिन बात एकदम बदल गयी. रास्ते में बाढ़ के पानी से उफनता एक नाला मिला. उस नाले को पार करते समय पहिरावे की चमक को बचाने के फेर में मुख्यमंत्री साथ चलते सुरक्षाकर्मियों के हाथ से बने सिंहासन पर चढ़ कर बैठ गये. फोटो तो खिंच गयी, लेकिन लोग उस फोटो की चुटकी ले रहे हैं. किसी ने कहा ‘गोदी की सरकार' तो किसी को याद आया सिंहासन पर चढ़ाने-गिराने का छुटपन का वह खेल, जिसमें गाते हैं- ‘हाथी घोड़ा पालकी/जय कन्हैया लाल की!'
उपहास का विषय का बनी शिवराज सिंह की यह तसवीर बाढ़ पर होनेवाले सार्वजनिक सोच-विचार का पता देती है. यह सोच है कि बाढ़ आये तो सिर्फ यह देखा जाये कि सरकार ने लोगों की सुध-बुध ली या नहीं. बाढ़-पीड़ितों का हाल-चाल पूछने मुख्यमंत्री खुद चल कर आयें, सरकारी अमले राहत और बचाव के काम में मुस्तैद हों, केंद्र बाढ़-पीड़ित राज्यों के लिए विशेष राहत-राशि का एलान करे, तो मान लिया जाता है कि सरकार ने बाढ़ में फंसी अपनी जनता को बिसारा नहीं. बाढ़ का सवाल राहत और बचाव में दिखायी गयी सरकारी मुस्तैदी का मामला भर बन कर रह जाता है. सोच की इस बनावट के भीतर सबको आसानी है.

जनता का हमदर्द होकर मीडिया प्रदेश सरकार को कोस सकती है कि राहत और बचाव के पुख्ता इंतजाम नहीं हुए. सूबे की सरकार केंद्र पर दोष मढ़ सकती है कि आड़े वक्त में सहायता नहीं मिली. और, केंद्र सरकार अपने को सबका तारणहार सिद्ध कर सकती है कि हम ही हैं, जो लोगों को संकट से उबारते हैं, वरना कहने को तो सूबों में भी सरकारें हैं!

हाल के विकासमुखी दौर में बाढ़ को राहत और बचाव के तटबंध में बांधनेवाली राजनीति खूब पसरी है. बिहार विधानसभा के ही चुनाव याद कीजिये, जब सहरसा की अपनी परिवर्तन रैली में प्रधानमंत्री ने लोगों को याद दिलाया कि ‘हमारी कोशिशों की करामात है, जो इस बार कोसी नदी के कोप से पूरा इलाका बच गया. वक्त रहते बराज की मरम्मती के लिए हमने मनाया नेपाल को.'

बिहार को बाढ़ से बचाने का श्रेय केंद्र ने लिया. सुषमा स्वराज ने संसद में कहा ‘कई सालों में पहली बार हुआ है कि कोसी में बाढ़ नहीं आयी. यह प्रधानमंत्री की नेपाल-यात्रा का कमाल है, बिहार अब सुरक्षित है!' 2014 की कश्मीर की बाढ़ हो या 2015 के चेन्नई की बाढ़, केंद्र को बचावनहार साबित करनेवाला यही पैटर्न सबमें दिखता है.

राहत, बचाव और पुनर्निर्माण पर जोर देकर किसी एक नेता को संकटमोचक साबित करनेवाली विकासमुंही राजनीति बाढ़ से जुड़े असल सवाल को ढक देती है. इसमें योजना और नीति की खोट छुप जाती है. हम पूछते ही नहीं कि बाढ़ बार-बार क्यों आती है, उसके आने पर अंकुश क्यों नहीं लगता और यह भी कि क्या बाढ़ पर अंकुश लगाने के विचार ही में कोई खोट है?

देश से जब अंगरेज गये, तो नदियों पर बने कुल तटबंध की लंबाई 5,280 किलोमीटर थी. तटबंध तब भी टूटते थे, बाढ़ तब भी आती थी. पहली पंचवर्षीय योजना में सोचा गया कि तटबंध बाढ़ से मुक्ति दिलाने में सहायक नहीं. जोर बड़े बांध बनाने पर आया. आज देश में 4,525 छोटे-बड़े बांध हैं, तटबंधों की लंबाई बढ़ कर 15,675 किलोमीटर पहुंच गयी है. इस इंतजाम को मुंह बिराते हुए बाढ़ अब भी आती है और कहीं ज्यादा भयावहता के साथ आती है.

नदी से लड़ा नहीं जाता, बंगाल और बिहार के पुराने समाज को यह पता था. उसने इंतजाम किया कि बाढ़ का पानी आये, ज्यादा से ज्यादा इलाके में फैले. कुएं-तालाब भर कर और मिट्टी को उपजाऊ बना कर लौट जाये.

बाढ़ को इस समाज ने अपने लिए वरदान में बदला था. गुजरा जमाना लौटता नहीं, लेकिन उससे सीखा जा सकता है. लेकिन, सीखने के लिए जरूरी है कि हम बाढ़ को राहत और बचाव के मुहावरे में कैद करनेवाली राजनीति से उबरें!