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नदी के प्रवाह को बचाने के लिए-- विजय कुमार चौधरी

पिछले दिनों केंद्र सरकार के जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवीकरण मंत्रालय द्वारा विभिन्न नदियों में गाद और कटाव की समस्या के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई। यह समिति गाद जमा होने और कटाव के कारणों का अध्ययन करेगी, और इनसे जुड़ी समस्याओं के निदान के सुझाव देगी। वैसे तो यह नदियों से जुड़ी आम समस्या है, पर यह समिति गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी का विशेष रूप से अध्ययन करेगी। सही मायने में देखा जाए, तो यह सही दिशा में देर से उठाया गया एक प्रारंभिक कदम है।

इसके पहले भी बाढ़ प्रबंधन और नदियों के कटाव व गाद की समस्या के अध्ययन व निदान के कई प्रयास हुए, पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका और न ही कोई ठोस नीति बन सकी। भारत सरकार द्वारा साल 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग और 2004 में भी केंद्र द्वारा बाढ़ प्रबंधन व कटाव नियंत्रण के संबंध में एक टास्क फोर्स बनाया गया था। फिर साल 2006 में केंद्र सरकार ने बी के मित्तल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई, जिसने नदियों में गाद की समस्या का अध्ययन करके उस पर अपनी राय दी। इन सभी ने गाद प्रबंधन के लिए कोई ठोस उपाय नहीं बताया।

यह बात सही है कि गाद बनने या गाद जमा होने के कारणों का विश्लेषण किया गया और गाद जमा होने की दर को नियंत्रित करने के कुछ उपाय बताए गए। कार्रवाई भी की गई, लेकिन नदी तल में जमा हो चुके गाद और इसके कारण तल के उथला होते जाने के बारे में कुछ नहीं किया जा सका।

गाद की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है। यूं तो यह समस्या पूरे विश्व की है, पर भारत में और विशेषकर बिहार में यह समस्या अब सुरसा रूप लेती जा रही है। बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भूभाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है। पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है। उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियां, जैसे घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ वे अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं। बहाव की गति में परिवर्तन के कारण विभिन्न स्थानों पर गाद जमा होती जा रही है। कभी-कभी अत्यधिक गाद के एक स्थान पर जमा होने पर वहां गाद का शोल (टीला) बन जाता है। नदी के बहाव के बीच में शोल बन जाने से उसकी धारा विचलित होती है, जो तिरछे रूप में अधिक वेग से पहुंचने के कारण बांध और किनारों पर कटाव का दबाव बनाती है। अगर गाद प्रबंधन की व्यवस्था सही हो जाए, तो यह नहीं होगा।

आज दुनिया भर में गाद प्रबंधन को एक उच्चस्तरीय गतिशील मुद्दा माना जाता है। यह सीधे-सीधे कई चीजों से जुड़ा है, जिनमें बाढ़ नियंत्रण, नेविगेशन और प्रकृति संरक्षण आदि महत्वपूर्ण हैं। कई देशों में गाद का प्रबंधन आज नदी प्रबंधन कार्यक्रम का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। जब नदी प्रबंधन की बात आती है, तो इसके सबसे प्रमुख अवयव के रूप में गाद प्रबंधन की बात होती है। हमारे लिए यह चिंता का विषय है कि आज तक अपने देश में राष्ट्रीय स्तर पर गाद प्रबंधन की कोई स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है। वर्ष 2011-12 से ही लगातार बिहार सरकार इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाती रही है कि अगर गाद प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई, तो स्थिति अत्यंत भयंकर हो सकती है।

नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है और अगर इसका प्रवाह रुक गया या टूट गया, तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है। नदी तल में अनियंत्रित गाद जमा होने के कारण इस स्थिति की आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है। अगर गंगा को देखा जाए, तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होनी चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है। धीरे-धीरे अगर उस उथलेपन का विस्तार नदी की चौड़ाई में फैलता है, तो नदी का स्वाभाविक प्रवाह ही अवरुद्ध हो जाता है। तब नदी टुकड़े-टुकड़े में पोखर या तालाब जैसा दिखने लगती है। गंगा नदी के मामले में तो स्वाभाविक गाद जमा होने की क्रिया पुराने समय से चल ही रही थी, फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई। धीरे-धीरे नदी का पूरा पाट समतल दिखने लगा है, इससे नदी में जल भंडारण की क्षमता का ह्रास होता है और अगर यह प्रक्रिया निरंतर जारी रही, तो नदी का रूप सपाट हो जाएगा और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

जहां तक गाद के प्रबंधन का प्रश्न है, तो गाद बनने की दर को जितना नियंत्रित किया जा सके, यही वांछनीय है। इसके संबंध में कई उपाय भी किए गए हैं, जैसे ‘कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट प्लान'। इसके तहत जल ग्रहण वाले क्षेत्र में वृक्षारोपण करके भूक्षरण की क्रिया को रोका जाता है। पर सबसे बड़ी आवश्यकता अभी जमा हो चुके गाद के प्रबंधन की है। इसका दो ही तरीका है। पहला ड्रेजिंग है, जिसके तहत नदी तल से गाद को निकालकर बाहर किया जाता है और नदी के मुख्य प्रवाह को जीवित रखा जाता है। दूसरा, फ्लशिंग से गाद को नदी के प्रवाह के साथ बाहर खाड़ी या समुद्र में पहुंचा दिया जाए। ड्रेजिंग के पश्चात इसके निष्पादन की भी समस्या आती है और इसका सबसे प्रभावकारी उपाय के रूप में वैज्ञानिक शोध के आधार पर इसके व्यावसायिक उपयोग का रास्ता ढूंढ़ना होगा।

दुनिया भर में नदियों को जीवंत रखने के लिए आज ड्रेजिंग और डिसिल्टिंग की निरंतर व्यवस्था की जाती है। चाहे चीन में ‘बंद' का इलाका हो या फिर लंदन में टेम्स नदी का सवाल हो, पर्यटक के रूप में इसे किसी समय देखा जा सकता है। यूरोप में तो अब गाद की गुणवत्ता के संबंध में भी शोध व प्रयोग किए जा रहे हैं। विभिन्न नदियों की गादों की गुणवत्ता अलग-अलग प्रकार की होती है। इनमें अलग-अलग किस्म के दूषणकारी और अलग तरह के पोषक तत्व भी पाए गए हैं। गाद की गुणवत्ता इससे भी निर्धारित होती है कि नदी के प्रवाह में किस इलाके के भू-क्षरण से उसका निर्माण हुआ है। उसकी गुणवत्ता के आधार पर ही उसके व्यावसायिक उपयोग की नीति बन सकती है। गाद प्रबंधन के लिए हर नदी को एक अलग मामला मानना होगा, क्योंकि हर नदी की अपनी अलग गाद बनाने की क्षमता और गुणवत्ता होती है।

आज समय रहते अगर गाद प्रबंधन की सही नीति बनाकर उसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं किया गया, तो फिर हम इन नदियों को बचा नहीं सकते हैं। ये विलुप्त हो जाएंगी। इसलिए भारत सरकार ने जो विशेषज्ञों की समिति बनाई है, उसे निर्धारित समय में अपना अध्ययन पूरा करके विभिन्न उपायों की अनुशंसा करनी चाहिए और केंद्र सरकार को भी इस दिशा में और अधिक तेजी से कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)