Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/नदी-जल-विवाद-और-राजनीति-चंदन-श्रीवास्तव-10714.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | नदी जल विवाद और राजनीति-- चंदन श्रीवास्तव | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

नदी जल विवाद और राजनीति-- चंदन श्रीवास्तव

हिंसा तुरंत दिख जाती है, लेकिन हिंसा को पालने-पोसनेवाली संरचनाएं अक्सर अलक्षित रह जाती हैं. कावेरी नदी के पानी के बंटवारे के मसले पर फिलहाल कर्नाटक में यही हो रहा है. टीवी के पर्दे और अखबार के पन्ने पर कर्नाटक के किसानों का गुस्सा दिख रहा है.
उनके उग्र प्रदर्शन के बीच बेंगलुरु-मैसूर हाइवे जाम है. बसें नहीं चल रहीं, दुकानें बंद हैं. हालात को बेकाबू होने से बचाने के लिए सिद्धरमैया की सरकार सर्वदलीय बैठक से लेकर सड़कों और बांधों पर रैपिड एक्शन फोर्स की तैनाती तक हर किस्म के कवायद कर रही है.

दूर से देखो तो लगेगा कर्नाटक के किसानों का यह गुस्सा नाजायज है. लगेगा, उसमें पड़ोसी राज्य के किसानों के दुख-दर्द के प्रति उपेक्षा का भाव है और स्वार्थ से वशीभूत किंचित मनमानी का पुट भी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार आखिर मनमानी ही कहलायेगा. बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कर्नाटक अगले दस रोज तक अपने पड़ोसी तमिलनाडु के लिए कावेरी नदी का 15 हजार क्यूसेक पानी रोजाना छोड़े. कोर्ट का आदेश तमिलनाडु के किसानों के त्राहिमाम पर आया. लेकिन, कर्नाटक के किसानों को यह मंजूर नहीं है.

वे जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानने का मतलब है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना. मॉनसून ने कुछ दगा किया है, इसलिए कावेरी नदी के चार बांधों में केवल 47 टीएमसी फीट पानी है, जबकि सामान्य तौर पर इससे तीन गुना ज्यादा पानी होना चाहिए. कर्नाटक के किसान या फिर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मानें, तो उनके सामने फसलों की सिंचाई से लेकर नगरों की जलापूर्ति तक की समस्या आन खड़ी होगी.

कावेरी कर्नाटक में 2.5 लाख एकड़ कृषि-भूमि की जीवनधारा है और तमिलनाडु में 15 लाख एकड़ खेतिहर इलाका इसी नदी के पानी के भरोसे जीवन-जीविका चलाता है. जरूरत दोनों राज्यों की है, तो फिर जरूरत भर का पानी दोनों को मिलना चाहिए, लेकिन नदी में पानी की इफरात ना हो, तो कोई क्या करे?

यहीं आती है बात संघीय ढांचे के भीतर संसाधनों के बंटवारे को लेकर खड़ी की गयी उस अलक्षित संरचना की, जिसे राजनीतिक स्वार्थसाधन के चलते जान-बूझ कर कुछ इस तरह उलझा कर रखा गया है कि समस्या का हल कभी ना निकले. यह संरचना बारंबार दो राज्यों की जनता को संसाधनों पर दावेदारी के मामले में एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ी करती है. उग्र प्रदर्शन होते हैं, कानून-व्यवस्था का सवाल उठ खड़ा होता है और राज्यों के बीच चलनेवाली संसाधनों की प्रतिस्पर्धा वाली राजनीति के बीच मध्यस्थता करने के बहाने केंद्र को अपने गोट लाल करने का मौका मिलता है.

केंद्र कभी किसी को उपकृत करता दिख सकता है, तो कभी किसी के तारनहार की भूमिका निभा सकता है. और, अकेले केंद्र को ही क्यों दोष दें. संसाधनों की प्रतिस्पर्धा वाली यह राजनीति राज्यों के राजनीतिक रहनुमाओं को भी भरपूर मौका देती है कि वे खुद को अपनी जनता का मसीहा साबित करें.

कावेरी नदी के पानी को लेकर जो तनातनी कर्नाटक और तमिलनाडु में दिखती है, वैसी ही तनातनी बहुत से अन्य राज्यों में भी है. पंजाब, राजस्थान और हरियाणा के बीच नदी-जल के बंटवारे को लेकर हाल में मची कलह की यादें अभी पुरानी नहीं पड़ी हैं. नदियां एक से ज्यादा राज्यों से गुजरती हैं और यह तथ्य भारत जैसे विशाल देश के भीतर नदी-जल के बंटवारे को लेकर एक कारगर नीति की अपेक्षा रखता है.

हमारे नीति-नियंताओं ने इस नीति को ही उलझा कर रखा है. संवैधानिक व्यवस्था कुछ ऐसी है कि राज्यसूची की प्रविष्टि 17 के हिसाब से नदी-जल राज्य का विषय तो है, लेकिन संघीय सूची की प्रविष्टि 56 नदी घाटी के नियमन और विकास को केंद्र का विषय बना देती है.

फिर संविधान के अनुच्छेद 262 के प्रावधान नदी-जल के उपयोग, बंटवारे और नियंत्रण संबंधी किसी भी शिकायत के निपटारे के लिए अंतिम शरणस्थल संसद को बताते हैं यानी सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य अदालतों या प्राधिकरणों को ऐसे विवाद की स्थिति में तब तक फैसले लेने का अधिकार नहीं जब तक संसद ना चाहे. नदी बोर्ड एक्ट और अंतरराज्यीय नदी-जल विवाद अधिनियम इसी संवैधानिक व्यवस्था की देन है, जो अमल के बावजूद नदी-जल विवाद के प्रकरणों का समाधान करने में असफल रहे हैं.
अगर एक पंक्ति में कहें, तो नदी-जल विवाद के निपटारे के लिए हम कोई स्वायत्त सांस्थानिक ढांचा नहीं खड़ा कर पाये हैं और पूरा मामला संसद के विवेक का बना चला आ रहा है.

व्यवहार के धरातल पर यह अक्सर केंद्र और राज्य में जमी पार्टियों के आपसी समीकरण और राजनीतिक लाभ-हानि के सोच से तय होता है. जब तक हम संघीय ढांचे के अनुकूल नदी-जल के उपयोग, बंटवारे और इससे जुड़े विवादों के लिए अलग से कोई सर्वमान्य संस्था नहीं बना लेते, तब तक मामले पहले की तरह ही उलझने को अभिशप्त रहेंगे.