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नदी जोड़ने पर क्यों आमादा हैं हम- ज्ञानेन्द्र रावत

देश भर की नदियों को जोड़ने की बात फिर तेज हो गई है। इसे समय की जरूरत बताते हुए कहा जा रहा है कि इससे देश की 90 फीसदी खेती योग्य जमीन को सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हो सकेंगी। पिछली सरकार के समय यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया था। हालांकि यह भी सच है कि योजना आयोग इस पूरी योजना को अदूरदर्शी व अव्यावहारिक बता चुका है। पर्यावरण की समझ रखने वाले तो इसे शुरू से ही खतरनाक कह रहे हैं। कहा जा रहा है कि इससे जिन इलाकों में पानी की कमी है, उनकी ओर बाढ़ के पानी को मोड़ा जा सकेगा। इसके दूरगामी परिणामों-लाभों के बारे में ढेर सारे दावे किए जा रहे हैं। इसे जल संकट से मुक्ति का अचूक नुस्खा बताया जा रहा है। केन और बेतवा को जोड़ने के साथ इसकी शुरुआत की घोषणा भी कर दी गई है। लेकिन जल संकट के लिए ज्यादा जरूरी यह होता कि सरकार भूजल के अंधाधुंध दोहन के खिलाफ कानून बनाती, उनका सही ढंग से क्रियान्वयन कराती, वर्षा जल को बेकार समुद्र में बहकर जाने से रोकने, उसके संरक्षण के उपाय करती और पानी की बर्बादी रोकने की दिशा में जन-चेतना जागृत करती। इससे होने वाली समस्याओं को छोड़ भी दें तो नदी जोड़ो परियोजना जल संकट के समाधान में पहली प्राथमिकता वाला कदम नहीं हो सकता। और फिर सिंचाई व बिजली परियोजनाओं के लिए नदियों के रुख मोड़ने के अनुभव देश की जनता के लिए बहुत अच्छे नहीं रहे हैं।

इन परियोजनाओं के विस्थापितों को कहीं भी पूरी तरह ठीक से बसाया तक नहीं जा सका है। देश के नदी तंत्र को देखें तो यह सवाल जरूर उठता है कि गंगा और यमुना आसपास से ही निकल कर अलग-अलग क्यों बहती हैं? एक ही उद्गम से निकलकर नदियां अलग-अलग क्यों बहती हैं? जिस कुदरत ने इतनी सारी नदियां बनाईं, उसने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक नदीं क्यों नहीं निकाली? नदी सिर्फ बहता हुआ पानी नहीं होती, इसके भीतर उसका अपना एक ईकोसिस्टम होता है। हर नदी का एक अलग ईकोसिस्टम। इन सारे ईकोसिस्टम को एक साथ जोड़ने का अर्थ होगा बहुत सारी बेशकीमती जैव विविधता से हाथ धो बैठना। यह असर सिर्फ नदी तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि इनके किनारों पर बसे जंगलों, बस्तियों और जीव जगत तक पर अपना असर डालेगा। कुछ प्रदूषित नदियों का पानी उन नदियों तक पहुंच जाएगा जो अभी कि इसके प्रकोप से बची हुई हैं। इसके चलते कई राज्यों के बीच पानी को लेकर चलने वाले आपसी विवाद और बढ़ सकते हैं। कुछ मामलों में पड़ोसी देश भी इसे मुद्दा बना सकते हैं। जबकि कम लागत में स्थानीय स्तर पर जन सहयोग से जोहड़ और तालाब बनाकर समाज की पानी की जरूरत पूरी की जा सकती है। नदी जोड़ने से बहुत सी उन चीजों के टूटने का खतरा जरूर है जो सदियों से हमारे साथ हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)