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नमक सेजुड़े नए सवाल- अनिल चमड़िया

जनसत्ता 11 अक्तूबर, 2013 : कई गंभीर घटनाएं हो रही हैं, लेकिन लोगों का मानस इस तरह का बना दिया गया है कि वे किसी विषय के इतिहास को लेकर तो बोलते हैं, उसके मौजूदा हालात पर कुछ सुनने को तैयार नहीं होते।
कई बार लगता है कि सुनने की शारीरिक प्रक्रिया को भी एक खास तरह के ढांचे में ढाल देने में बाजारवादी विचारों को कामयाबी मिली है। तात्कालिक संदर्भ नमक का है। नमक अकेला ऐसा खाद्य पदार्थ है, जिसने भारतीयों के लिए औपनिवेशिक शासनकाल से मुक्ति का रास्ता तैयार किया था। पर आज उसी को लेकर घोर उदासीनता दिखती है।
चार जुलाई, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने आम लोगों से नमक छीनने के कानून को गलत बताया था। सरकार ने खाद्य पदार्थों में मिलावट की रोकथाम संबंधी कानून में 44-आइ की एक नई धारा जोड़ कर आयोडीनयुक्त नमक को अनिवार्य किया था। इसके एक महीने बाद सरकार ने इस कानून को ही खत्म कर दिया था। लेकिन न्यायालय ने सरकार को एक मौका दिया था कि अगर नमक की जगह आयोडीन वाले नमक को लोगों के लिए अनिवार्य बनाना है तो वह उसके बारे में शोध करे, ताकि उस नए कानून की जरूरत को जायज ठहराया जा सके। इसके लिए सर्वोच्च अदालत ने छह महीने का समय दिया था। पिछले साल सात फरवरी तक नया कानून बनाने की प्रक्रिया सरकार पूरी नहीं कर सकी तो फिर सर्वोच्च अदालत ने नया आदेश जारी किया। लेकिन सरकार उससे बचती रही। आखिरकार दो विद्वान वकीलों, अशोक पांडा और अरविंद घोष, ने सर्वोच्च अदालत के कहने पर स्वास्थ्य विभाग के सचिव के खिलाफ न्यायालय की अवमानना का मामला चलाने के लिए आवेदन दिया। बीते महीने की बीस तारीख को सर्वोच्च अदालत ने स्वास्थ्य सचिव के खिलाफ न्यायालय की अवमानना का नोटिस जारी किया है।
मुद््दा यह नहीं है कि स्वास्थ्य सचिव के खिलाफ सबसे बड़ी अदालत ने यह नोटिस जारी किया है। बल्कि मुद्दा यह है कि नमक के साथ इस देश का सामान्य तौर पर क्या संबंध रह गया है। संसद, सरकार, संसदीय पार्टियां, सामाजिक संगठन, नागरिक मंच और खासतौर से देश का मध्यवर्ग नमक की लड़ाई को इतिहास के एक गौरवशाली अध्याय के तौर पर याद करता है, लेकिन जबरन अपने से नमक को अलग किए जाने की पूरी प्रक्रिया से वह अनजान भी दिखता है। जबकि अंग्रेजों के लिए नमक ही वह रास्ता था, जिससे उन्होंने भारत में अपना कब्जा जमाया। इस इतिहास की जानकारी देते हुए रॉय मॉक्सहम अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट हेज आॅफ इंडिया’ में बताते हैं कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा अविभाजित भारत में ढाई हजार मील लंबी बाड़ लगाने के प्रमाण मिले हैं। ये वे रास्ते हैं, जहां नमक तैयार किया जाता था। 1857 की पहली सशस्त्र क्रांति से पहले भी गुजरात में नमक मुक्ति के लिए आंदोलन हो रहे थे। गुजरात के इतिहासकार बताते हैं कि 1844 में इसे लेकर इतनी बड़ी हड़ताल हुई थी कि उसके समर्थन में सभी दुकानें बंद कर दी गई थीं। उस समय अंग्रेजों ने प्रति मन नमक पर एक रुपए कर लगा दिया था।
दरअसल, आम लोगों से नमक के रिश्ते को खत्म करने का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य है। यह स्वास्थ्य से जुड़ा मसला नहीं रहा है। सामान्य तौर पर लोग इस कदर असुरक्षा-बोध से घिरे हुए हैं कि वे सेहत बिगड़ने का डर सामने आते ही अपनी तर्क-शक्ति खो देते हैं। बाजारवाद के राजनीतिक विचार ने यही किया है कि उसने तमाम तरह के आधारहीन प्रचारों को इस तरह प्रस्तुत किया है कि तर्क-शक्ति उसके सामने लाचार हो गई है। आधारहीन प्रचारों को स्थापित करने के लिए उसने उन तमाम माध्यमों का उपयोग किया है, जिनकी विश्वसनीयता लोगों के बीच आस्था की हद तक रही है। इसीलिए मीडिया में भी इस नमक के छीने जाने और इसके परिणाम पर न के बराबर सामग्री दिखती है।
असल में केवल नमक विज्ञापन का रूप नहीं लेता, लेकिन जैसे ही उसमें आयोडीन और अब आयरन जैसे तत्त्वों की मिलावट हो जाती है तो वह विज्ञापन और ब्रांड की शक्ल अख्तियार कर लेता और राजनीति को भी समाज-हितैषी बनने का कार्यक्रम दे देता है। विभिन्न सरकारों ने समाज के प्रति अपनी संवेदनशीलता दिखाने के लिए एक रुपए पैकेट आयोडीन नमक देने का कार्यक्रम चलाया है। जबकि पूछा यह जाना चाहिए कि आयोडीन की मिलावट वाले नमक के पहले महज पचीस और पचास पैसे किलो मिलने वाला नमक बीस-पच्चीस रुपए किलो कैसे हो गया।
आगे की बात करने से पहले नमक की कीमत के इस खेल को भी समझ लें तो बेहतर होगा। पहली बात, महंगाई की किसी भी बहस में नमक की कीमत पर कभी बात नहीं होती है। दस जुलाई, 1998 को राज्यसभा में सरकार से कहा गया कि सामान्य नमक की कीमत की तुलना में आयोडीनयुक्त नमक की कीमत दस गुना ज्यादा है तो सरकार ने सदन को बताया कि बाजार में सामान्य नमक की कीमत दो से चार रुपए प्रति किलो है और आयोडीनयुक्त नमक छह रुपए प्रति किलो। नौ अगस्त, 2005 को सरकार ने लोकसभा में जानकारी दी कि आयोडीनयुक्त नमक ढाई रुपए से लेकर साढ़े आठ रुपए किलो मिल रहा है।
दरअसल, नमक को महंगा करने का एक स्वास्थ्यपरकतर्क तैयार करने और उसके पक्ष में मीडिया के सहयोग से जनमत तैयार करने के बाद उसकी कीमत निर्धारित करने का काम सरकार ने बाजार के हवाले छोड़ दिया। नमक लगभग दो हजार प्रतिशत महंगा हुआ है। फिर, यह कोई मौसमी महंगाई नहीं है।
इसका दूसरा पक्ष भी जानना जरूरी है। सात अप्रैल, 2003 को राज्यसभा में सरकार ने एक प्रश्न के जवाब में बताया कि प्रति सौ किलो साधारण नमक के उत्पादन की लागत ग्यारह से चालीस रुपए के बीच आती है। आयोडीनयुक्त नमक की उत्पादन लागत बाईस से इक्यावन रुपए प्रति क्विंटल है। चौदह मार्च, 2006 को लोकसभा में सरकार का जवाब था कि नमक को आयोडीनयुक्त बनाने में प्रति टन मात्र सौ रुपए की लागत आती है।
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने अप्रैल 2010 में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि ब्रांड वाले आयोडीनयुक्त नमक की कीमत बिना ब्रांड वाले नमक की तुलना में बहुत अधिक है। जबकि सरकार द्वारा गठित शुल्क आयोग से जून 2008 में ही कहा गया था कि वह ब्रांड और बिना ब्रांड वाले नमक के मूल्य-निर्धारण के संबंध में अध्ययन करे। लेकिन आयोग ने दो वर्ष बाद तक इस तरह का कोई अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया। देश में 2005 में ही आयोडीनयुक्त नमक की जितनी खपत थी उसकी कीमत 2055 करोड़ रुपए थी।
सर्वोच्च अदालत में सामान्य नमक की बिक्री पर रोक के आदेश के खिलाफ दायर याचिका और उस पर आए फैसले और उसके बाद न्यायालय की अवमानना का यह मामला बताता है कि नमक का पूरा मसला कुछ लोगों की चिंता और कुछ खास लोगों द्वारा सामान्य नमक की बिक्री पर पाबंदी लगाने के फैसले को किसी भी हद तक जाकर लागू करने की योजना तक सीमित हो गया है। समय-समय पर इस तरह का कोई अध्ययन भी नहीं कराया गया कि आखिर आयोडीनयुक्त नमक को अनिवार्य करने से लोगों की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है।
इक्कीस अक्तूबर को सरकार आयोडीन दिवस मनाती है और आयोडीन को आरोग्य की एक शर्त के रूप में पेश किया जाता है। जबकि रक्षा मंत्रालय से जुड़े एक संस्थान ने आयोडीनयुक्त नमक के असर का अध्ययन किया तो पता चला कि बीस वर्ष पूर्व आयोडीन से जिन बीमारियों के खत्म हो जाने का दावा किया जा रहा था वे अब भी बनी हुई हैं।
इस अध्ययन के मुताबिक शहरी इलाकों में स्कूल जाने वाले साढ़े पंद्रह प्रतिशत बच्चों में घेंघा की समस्या है। अनेक राज्यों के कुल सोलह शहरों में उनतालीस हजार बच्चों पर यह अध्ययन कराया गया। आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों में घेंघा को ही प्रमुख रूप से प्रचारित किया गया है। सरकारी विज्ञापनों में घेंघा से विकृत चेहरे की तस्वीर इस तरह पेश की जाती थी कि वह लोगों को सचेत नहीं बनाती, बल्कि डर पैदा करती थी। दरअसल, भारत सरकार के एक संस्थान की ओर से कराए गए अध्ययन का हवाला यहां यह रेखांकित करने के लिए भी दिया जा रहा है कि नमक का पूरा मसला कैसे यहां की सरकार और राजनीतिक सरोकार से दूर होते हुए भूमंडलीकरण की राजनीति और उसके सत्ता-केंद्रों के अधीन चला गया।
जिस समय हरित क्रांति से लाभ के दावे किए जा रहे थे, उस समय इसके दीर्घकालीन दुष्प्रभावों पर बात करने से कोई भी घबराता था। लोगों को लगता है कि विज्ञान की आड़ में होने वाले किसी भी तरह के प्रयोग पर सवाल खड़े करने से उन्हें अवैज्ञानिक करार दिया जा सकता है। लेकिन आज दुष्प्रभाव सामने हैं और अब प्राकृतिक खेती पर जोर दिया जा रहा है। पानी तक हाथ से चला गया और वह कॉरपोरेटी बाजार का हिस्सा हो गया। डॉ मीरा शिवा ने साधारण नमक बचाओ अभियान समिति के कार्यक्रमों के दौरान बताया कि उन्हें यह एक अनुभवी डॉक्टर और वैज्ञानिक ने बताया था कि पंद्रह-बीस वर्षों के बाद कई खतरनाक बीमारियां यहां आम हो जाएंगी, लेकिन लोग उनके कारणों पर विश्वास नहीं करेंगे।
सरकार केवल कुछ हजार लोगों में आयोडीन की कमी होने का तथ्य पेश करती है। फिर इतनी विशाल आबादी पर आयोडीन की अनिवार्यता क्यों थोपती रही है? आयोडीन एक तरह की दवा है तो उसकी जरूरत उन तमाम लोगों को क्यों होनी चाहिए, जिन्हें उसकी तनिक जरूरत नहीं है? अब तो नमक में आयरन भी मिले होने के विज्ञापन आने लगे हैं। आयोडीन की कमी जिन कारणों से पैदा हुई है उनकी खोज बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन कारणों की तलाश करने के बजाय आयोडीन को एक अतिरिक्त उत्पाद की तरह खिलाए जाने की अनिवार्यता लागू कर दी गई। इसका औचित्य संदेहास्पद है। आयोडीनयुक्त नमक की अनिवार्यता इस बात का एक प्रतीक है कि लोकतंत्र के बावजूद नीतिगत निर्णय की प्रक्रिया किस कदर सिकुड़ गई और उस पर बाजार के हित हावी हो गए हैं।