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नये साल में विकास की चुनौतियां-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के सामने आनेवाले साल में क्या चुनौतियां हैं? विडंबना यह है कि प्राकृतिक संपदा और उपजाऊ जमीन के बावजूद ये राज्य भारत के सबसे गरीब राज्यों में आते हैं. कमाल की बात यह है कि यहां के मानव संसाधन का लोहा दुनिया मानती है. कई विद्वानों के लिए यह एक पहेली है. मुझे याद है कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनाॅमिक्स के प्रो जॉन हैरिस ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया था. उन्हें बिहार में अपने शोध प्रोजेक्ट को इसलिए रोकना पड़ा कि वहां युवा शोधकर्ताओं की कमी थी.

जबकि दिल्ली में चल रहे शोध प्रोजेक्ट को चलानेवाले लगभग सभी छात्र बिहार से थे. मुझे आश्चर्य तब और हुआ, जब लंदन से उन्होंने फोन कर बताया कि उनकी पत्नी की ऑपरेशन की करीब पूरी टीम बिहार के डाॅक्टरों की है और वहां उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है. बिहार के इतिहास की गौरवगाथा सुनाने के बाद यह सवाल उठता है कि हम वहां से यहां कैसे पहुंच गये.

इन राज्यों के लिए एक बड़ी चुनौती तो यही है कि हम यह समझ सकें कि आखिर समस्या क्या है. हमें यह समझ होगी भी कैसे, जब हमने उच्च शिक्षा को लगभग चौपट कर दिया है.

शोध संस्थाएं चरमरा गयी हैं. कुछ दिनों पहले पटना के कुछ बड़े अधिकारी से बातचीत में एक ने मुझसे पूछा कि आखिर समाजशास्त्र के विषयों को पढ़ने का फायदा ही क्या है और दूसरे ने सवाल किया कि विश्वविद्यालयों पर खर्च ही क्यों किया जाये. यकीन मानें कि ये बिहार के नवरत्न पदाधिकारियों में दो थे. यदि नीति निर्धारक अधिकारियों की यह हालत है, तो आप समझ सकते हैं कि राजनेताओं का क्या होगा. इसलिए बड़ी समस्या ही यही है कि कोई शोध करके इन राज्यों को बताये कि इनकी समस्या क्या है और उसका समाधान क्या हो सकता है. आप और किसी भी राज्य के अधिकारियों और नेताओं से बात करें, तो आपको लग जायेगा कि हमारे राज्यों की तुलना में उनकी समझ ज्यादा व्यापक है.

यूरोपियन यूनियन के दिल्ली स्थित कार्यालय के अधिकारियों ने मुझे एक बार बाताया कि कुछ ऐसे भी राज्य हैं, जिनके मुख्यमंत्री जब दिल्ली आते हैं, तो अपने अधिकारियों और बुद्धिजीवियों के साथ उनसे मिलने आते हैं और विकास की संभावनाओं पर विमर्श करते हैं. इसलिए विकसित राज्यों और इन राज्यों के दृष्टिकोण का अंतर आपको समझ में आ जायेगा. अतः एक बड़ी समस्या है यह समझना कि इस समस्या से निजात पाने के लिए इन्हें अपनी उच्च शिक्षा की संस्थाओं को पुनर्जीवित करना होगा. राज्य के महान इतिहास की गौरव गाथा कहते आजकल लोग नहीं अघाते हैं कि उस समय यहां विश्व का ज्ञान-केंद्र होता था. विकास और ज्ञान का सीधा संबंध है, इसे लोग समझ नहीं पा रहे हैं.

इन राज्यों में विकास के लिए पैसा खर्च करने के साथ ही विकास की संस्कृति को रचना पड़ेगा. विकास की संस्कृति में सहयोग के प्रति आस्था होती है. आज के युग में पूंजी और मानव संसाधनों को मिलाकर एक संस्था का स्वरूप देना जरूरी होता है. इस मामले में आप आश्वस्त हो सकते हैं कि बिहार में औद्योगिक संस्थाओं का बन पाना मुश्किल ही होता है.

जापान के बड़े दार्शनिक कोजिन कारातानी ने वहां आये भूकंप के बाद के जनसहयोग की भावना का अध्ययन करते हुए बताया कि अभाव के उस समय में पूंजीवादी से आगे की व्यवस्था का जन्म हो सकता है. लेकिन, जहां सामान्य समय में हमारे बीच सहयोग का अभाव है, तो फिर क्या होगा. इस संस्कृति को बदलने का प्रयास करना होगा.

जिस तरह बिहार में विकास के वादों ने लोगों में उपभोक्ता की चाहत को बढ़ा दिया है, यदि अभाव की स्थिति आयेगी, तो शायद हिंसा और अपराध और बढ़ जाये.

इन राज्यों के पास बहुत बड़ी संपदा है यहां की ज्ञान परंपराएं. उसका गौरव गाथा गाने के बदले यदि उसके आधुनिकीकरण और पुनर्जागरण का उपाय खोजें, तो शायद बेहतर होगा. झारखंड के लोगों को प्राकृतिक संपदाओं की जो समझ है और उसके रखरखाव का जो ज्ञान है, उसे संकलित करने की जरूरत है, ताकि उसे उपयोग में लाया जा सके. बिहार जिन दर्शनों का केंद्र रहा है, उन पर विदेशों में तो खूब अध्ययन हो रहा है, लेकिन बिहार के लोगों को मालूम ही नहीं है.

क्या यह संभव है कि आज के सॉफ्ट पावर और नॉलेज सोसाइटी के युग में इन्हें पुनर्जीवित किया जा सके. इसके लिए जरूरी है कि जनता में इसके प्रति सम्मान हो और नीति-निर्धारक इसके महत्व को समझें.

लेकिन, इन सब की जड़ में बिहार का जातिवादी समाज का होना है. जाति, वर्ग, धर्म, लिंग आदि के आधार पर बंटे हमारे समाज को और व्यापक सोच विकसित करना होगा. राज्य में अस्मिता की राजनीति को जो कुछ सकारात्मक करना था, कर दिया. एक सामाजिक परिवर्तन का बीजारोपण तो हुआ, लेकिन अब उससे आगे जाने की सोच कैसे हो, यह हमारी समस्या है.

बिहार के महान कवि दिनकर ने कहा था कि ‘शांति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो. नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो..' उस महाकवि का यह सूत्र हमें याद रखना होगा. किसी भी आधार पर हो रहे बिखराव को समेटकर यदि समाज में विकास की नयी ऊर्जा पैदा की जाये, तो ही हमारा एक बेहतर भविष्य हो सकता है.

एक और समस्या है, जिस पर आनेवाले समय में ध्यान देने की जरूरत है. विकास के नाम पर इन राज्यों में विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जोर बढ़ता जा रहा है. इस बारे में सचेत होने की जरूरत है कि कहीं हमारी हालत ‘बनाना रिपब्लिक' जैसी न हो जाये. सरकारों को श्वेत पत्र जारी करके जनता को इस बात की सूचना देनी चाहिए कि हमारे ऊपर विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का कितना कर्ज है, उस पर कितना सूद देना पड़ता है और उसे वापस करने का हमारा क्या तरीका है.

अन्यथा इन बैंकों और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों का चलन यह है कि विकास के नाम पर कर्ज देने के बाद फिर विकास का मतलब भी वही बताते हैं. उनके विकास के मतलब में जनता का हित धीर-धीरे गायब हो जाता है.

हमें महात्मा गांधी की इस बात को याद रखना चाहिए कि सरकार, संपत्तिवान लोग और पूरी पीढ़ी प्राकृतिक संपदाओं के केवल ट्रस्टी मात्र हैं. जनता और अगली पीढ़ी के प्रति हमारी जिम्मेदारी बनती है कि इन संपदाओं का संवर्धन भी करें, न कि केवल उपभोग करें. हमें नये साल में यही संकल्प लेना चाहिए कि हम जिम्मेदारी को निभायेंगे.