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नरेंद्र मोदी और व्हार्टन स्कूल ।। अश्वनी कुमार ।।

गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को व्हार्टन इंडिया इकोनॉमिक फोरम द्वारा यूनिवर्सिटी ऑफ पेनिसिलवेनिया में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित किये जाने पर पूरे विश्व में उदारवादियों और प्रगतिशील लोगों के मन में सवाल उठना जायज है.

हिंदुत्व राजनीति के ‘पोस्टर ब्वाय’ को मिला विवादित आमंत्रण वापस लेने से यूनिवर्सिटी ऑफ पेनिसिलवेनिया के संस्थापक और संयुक्त राज्य अमेरिका के निर्माण में अहम भूमिका निभानेवाले बेंजामिन फ्रैंकलिन को अवश्य ही शांति मिली होगी.

बोलने की स्वतंत्रता खास कर विरोध के अधिकार की दुहाई देते हुए और ‘विकास के जादूगर’ की उनकी साख की आलोचना करते हुए पेनिसिलवेनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफसरों की तिकड़ी अनिया लुंबा, तोरजो घोष और सुबीर कौल ने नरेंद्र मोदी का विरोध किया. उन्होंने हिंदू-मुसलिम संबंधों के नामी चिंतक आशीष वाष्ण्रेय द्वारा ‘आजाद भारत में पहले पूर्ण खूनी नरसंहार के संचालक’ बताये गये मोदी का विरोध किया.

हालांकि भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच दल ने गोधरा दंगे के बाद हुए गुलबर्ग नरसंहार में नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है, लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य और कई दंगा पीड़ितों के बयान 2002 के गुजरात दंगों में मुसलिम विरोधी हिंसा को बढ़ावा देने में उनकी सरकार की भूमिका की ओर इशारा करते हैं.

गुजरात में अल्पसंख्यक मुसलिमों की रक्षा करने में उनकी नाकामी की ओर इशारा करते हुए तब के प्रधानमंत्री और आरएसएस के सहयोगी अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे ‘राजधर्म का पालन करने में असफलता’ करार दिया था.

चुनावी लोकतंत्र के बहुमतवादी स्वभाव को देखते हुए इस बात में हैरानी नहीं है कि नरेंद्र मोदी गुजरात में लगातार चुनाव जीत रहे हैं और अब प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखते हैं. हिदुत्व की ध्रुवीकृत राजनीति, व्यक्ति केंद्रित आर्थिक विकास मॉडल और सांप्रदायिक विचारधारा ने बार-बार चुनाव जीतने में मदद की है.

अमेरिकी यूनिवर्सिटी के छात्र लोकतंत्र के बहुमतवादी स्वभाव के काले पक्ष के बारे में एलेक्सि टॉकविले की चेतावनी अक्सर याद करते हैं. यह विडंबना ही है कि नरेंद्र मोदी गुजरात नरसंहार के लिए क्रिमिनल जस्टिस ऑफ इंटरनेशनल कोर्ट के फंदे से बच गये, जबकि रवांडा के लिए बने इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल ने नरसंहार में शामिल राजनेताओं को रवांडा में मानवता के खिलाफ अपराध का दोषी ठहराया.

स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय विरोध के दबाव में आमंत्रण वापस लेकर व्हार्टन स्कूल ने बेंजामिन फ्रैंकलिन के सार्वजनिक शिक्षा, नागरिकता और न्याय के सिद्धांतों का सम्मान किया है. अगर नरेंद्र मोदी अपने आप को व्हार्टन में प्रस्तुत करते तो बोलने की अभिव्यक्ति, जो सार्वजनिक जगहों पर बोलने की अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता के बीच भेद नहीं करती है, की सर्वसम्मति से ‘नरहिंसा’ होती.

अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट तीन जगहों पर बोलने की अभिव्यक्ति को मान्यता देता है, परंपरागत सार्वजनिक स्थल, सीमित सार्वजनिक स्थल व गैर सार्वजनिक स्थल. यूनिवर्सिटी और व्हार्टन जैसे स्कूल सीमित सार्वजनिक स्थल के दायरे में आते हैं. अभिव्यक्ति की आजादी के सभी जगहों को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और मौजूदा खतरे के तय मानकों को मानना जरूरी है.

नरेंद्र मोदी विश्व में कहीं भी अपनी पूर्व की गलतियों के लिए माफी मांग सकते हैं, लेकिन उनके समर्थक व्हार्टन स्कूल में उन्हें भारत के विचार के तौर पर प्रस्तुत करने का दावा न केवल खरतनाक गैरउदारवादी है, बल्कि आजादी की अभिव्यक्ति के स्पष्ट और मौजूदा खतरे, जो उनकी राजनीतिक विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते, की बुराई को भी सामने ला रहा था.

यूनिवर्सिटी ऑफ ओकलोहोमा, जो अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन से पहले रंगभेद के लिए बदनाम थी, से डिग्री हासिल करने के दिनों से आज तक मैं नहीं मानता कि नरेंद्र मोदी और उनके चाहनेवाले कभी अमेरिकी कैंपसों में नरसंहार की राजनीति और कट्टरता की विचारधारा को अभिव्यक्ति की आजादी के तौर पर मान्यता दिला पायेंगे. अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन में केवल अभिव्यक्ति की आजादी की बात है, इसमें कुछ भी बोलने की आजादी नहीं है, जो ‘हेट स्पीच’ में बदल सकती है.

कई कैंपसों में, खास कर अमेरिका के दक्षिणी कैंपसों में जहां जिम क्रो लॉ की विरासत, गोरों का प्रभुत्व या नव नाजी गंठबंधन आज भी काफी मजबूत है, कुछ भी बोलने की आजादी काले, जातीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ अक्सर हेट स्पीच बन जाती है. कई फैसलों, जैसे 2007 में मोरसे फेड्रिक मामले में, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहला संशोधन शिक्षाविदों को छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी दबाने से नहीं रोकता है.

संक्षेप में व्हार्टन द्वारा आमंत्रण वापस लेना न केवल कानूनी तौर पर जायज है, बल्कि राजनीतिक और नैतिक तौर पर भी प्रगतिशील कदम है. यूनिवर्सिटी तानाशाहों और कुछ भी बोलने व करनेवालों की जगह नहीं है. यह नैतिक ढांचागत जगह है, जहां न्याय और समाज की समग्रता को आगे बढ़ाने का काम होता है.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को क्लासरूम में साहित्य, कला या वैज्ञानिक मुद्दों, जहां इन पर बहस और व्याख्या होती है, के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था. मतलब मोदी को अपनी राजनीति और विचारधारा आगे बढ़ाने के लिए मंच मुहैया कराना था. जेएस मिल्स जैसे उदारवादी भी अभिव्यक्ति के नाम पर इसका समर्थन नहीं करते.

व्हार्टन स्कूल के घटनाक्रम ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नरेंद्र मोदी से दूरी को भी उचित करार दिया है. नीतीश कुमार का नया बिहार धर्मनिरपेक्ष, बहुवादी और समग्रता के भारत के विचारों के आधार पर तैयार किया गया है. नरेंद्र मोदी के गुजरात में तथाकथित विकासवादी राज्य पर खून के दाग हैं, जबकि नीतीश के बिहार में सभी वर्ग और जाति की लड़कियां भय, भूख और भ्रष्टाचार से आजादी के लिए साइकिल से जाती हैं. यही बिहार अगले आम चुनाव के बाद मोदी को पीएम बनने से रोकने का उम्मीद जगाता है.

मैं आश्वस्त हूं कि नालंदा यूनिवर्सिटी को पुनर्जीवित करने की नीतीश की कोशिश बुद्ध के धर्म पर आधारित है और इस यूनिवर्सिटी के उद्घाटन समारोह के महमानों की सूची से नरेंद्र मोदी का नाम हमेशा के लिए कट गया है. अगर नरेंद्र मोदी अल्पसंख्यकों के लिए प्रतित्यक्त हो गये हैं, तो नीतीश कुमार उभरते मध्यवर्ग व परिश्रमी मजदूरों के लिए स्थानीय नेता के तौर पर उभरे है.

आशीष नंदी, जो नरेंद्र मोदी को फासिस्ट का एक नायाब नमूना मानते हैं, के अनुसार वे न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, बल्कि खुद के लिए भी खतरा हैं. इन अर्थों में व्हार्टन स्कूल ने एक उम्मीद जगायी है कि नरेंद्र मोदी खुद मोदी द्वारा ही विलुप्त हो जायेंगे!