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नरेगा यानी लूट की पूरी छूट

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून यानी नरेगा की हकीकत जानना हो तो आपको झारखंड के लातेहार जिले में जाना चाहिए। आप चाहें तो पलामू, हजारीबाग और देवघर भी जा सकते हैं। सच तो यह है कि पूरा झारखण्ड ही आपको नरेगा की हकीकत से रू-ब-रू करा सकता है। भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले भूमिहीन, मजदूर एवं लघु कृषक परिवारों के आजीविका को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से रोजगार अभाव के समय 100 दिनों की रोजगार उपलब्ध करने के लिए नरेगा बनाया था। लेकिन झारखण्ड में नरेगा का अर्थ कुछ और ही बन गया है। नरेगा की वजह से तापस सोरेन, तुरिया मुंडा और ललित मेहता जैसे कई लोगों को अपनी जान गवांनी पड़़ी, जिससे राज्य में हलचल मच गई तथा ‘नरेगा जो करेगा सो मरेगा’’ जैसा नारा झारखण्ड के गांव-गांव में छा गया। सरकारी पदाधिकारी, ठेकेदार और बिचैलियों के गंठजोड़ को देखते हुए अब यह मान लिया गया है कि अगर नरेगा से जुड़ना है तो चुपचाप जो मिल रहा है, उसी में संतोष करना होगा। अगर गलती से कोई सवाल उठाता है तो उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा। अब तो राज्य सरकार और नौकरशाह भी खुलकर बोल रहे हैं कि नरेगा के पैसों की लूट हो रही है। लेकिन इस लूट को कैसे रोकना है यह कोई नहीं बता रहा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कैसे नरेगा ग्रामीणों का रोजगार योजना बनने के बजाये सरकारी पदाधिकारी, ठेकेदार और बिचैलियों के लिए लूट योजना बन कर रह गई है।
नरेगा कार्यक्रम का प्रथम चरण 2 फरवरी 2006 को देश भर के 200 जिलों में प्रारंभ किया गया था, जिसमें झारखण्ड के 20 जिले भी शामिल थे। इसके बाद दूसरे एवं तीसरे चरण में झारखण्ड के और 2-2 जिलों को इसमें शामिल कर राज्य के पूरे 24 जिलों में नरेगा को लागू किया गया। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार नरेगा के तहत झाररखण्ड में 15 सितंबर, 2009 तक 8.73645 लाख लोगों को 314.57 (लाख) दिन का रोजगार उपलब्ध कराया गया है, जिसमें 15.1 प्रतिशत (47.49 लाख) दलित, 42.6 प्रतिशत (134.02 लाख) आदिवासी एवं 32.7 प्रतिशत (102.87 लाख) महिलाओं को रोजगार दिया गया है। भारत सरकार ने नरेगा के तहत झारखण्ड सरकार को 1397.37 करोड़ रूपये का आवंटन किया है, लेकिन से मात्र 37.1 प्रतिशत (518.87 करोड़) रूपये ही खर्च हो सका है। इसके तहत 114009 कार्य लिया गया, जिसमें से मात्र 22.8 प्रतिशत (26062) कार्य पूरा किया गया है तथा 77.2 प्रतिशत (87947) कार्य अभी तक जारी है, जिससे यह साफ पता चलता है कि राज्य मंे नरेगा अभी भी कछुआ चाल से ही चल रही है।

नरेगा के कछुआ चाल को समझने के लिए आंकड़ों के गणित को थोड़ा और विस्तार से समझने की जरूरत है। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिर्पोट दर्शाती है कि वितीय वर्ष 2008-2009 में झारखण्ड में कुल ग्रामीण परिवारों की संख्या 3736526 थी, जिसमें गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करते वालों की संख्या 1655281 थी। इनमें से कुल 2710647 परिवारों को नरेगा के तहत 100 दिनों का रोजगार देने की योजना थी। इसके लिए भारत सरकार ने झारखण्ड सरकार को 180580.1 लाख रूपये आवंटित किया था तथा विगत वर्ष की उपलब्ध राशि को मिलाकर कुल आवंटित राशि 236337.4 लाख रूपये थी। राज्य सरकार ने इसके तहत 3375992 जाॅब कार्ड जारी किया, लेकिन सिर्फ 46.69 प्रतिशत (1576348) परिवारों को ही रोजगार दिया गया, जिसके लिए आवंटित राशि से सिर्फ 56.77 प्रतिशत (134171.7 लाख रूपये) राशि ही खर्च किया गया तथा 102165.7 लाख रूपये बचा रहा जिसे और 10 लाख लोगों को 100 दिन का काम दिया जा सकता था।

वितीय वर्ष 2009-2010 का आकलन करने से पता चलता है कि इस वर्ष नरेगा के तहत 2864120 परिवारों को काम देने की योजना है, जिसके लिए भारत सरकार ने 45333.29 लाख रूपये आवंटित किया है तथा विगत वर्ष की शेष राशि को जोड़कार कुल 148153.9 लाख रूपये आवंटित है। राज्य सरकार ने अबतक 3494390 लोगों को जाॅब कार्ड जारी किया है लेकिन सिर्फ 25 प्रतिशत (873645) परिवारों को ही रोजगार दिया गया है, जिसमें मात्र 35.02 प्रतिशत (51887.28 लाख रूपये) राशि खर्च किया गया है और 96266.57 लाख रूपये शेष है। लेकिन इस राशि से भी गरीबों को राहत मिलने की उम्मीद कम है क्योंकि कुछ ही महिने में विधानसभा का चुनाव होना है, जिसमें सारे सरकारी पदाधिकारी व्यस्त हो जायेंगे। जाहिर है, इसके बाद नरेगा का काम खटाई में पड़ सकती है।
आंकड़ों के खेल को छोड़कर अगर हकीकत की ओर जायेंगे तो स्थिति और भी शर्मनाक है। राज्य में मजदूरी भी एक तरह की नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मजदूरी जिला स्तर पर निर्धारित हो रही है, जो 78.39 रूपये से लेकर 114.62 रूपये तक है। इसमें सबसे ज्यादा हजारीबाग जिले में 114.62 रूपये एवं गुमला जिले में सबसे कम 78.39 रूपये दिये जा रहे है। महिला-पुरूष के बीच मजदूरी को लेकर भेदभाव बरकरार है। कई जिलों में महिलाओं को पुरूषों से कम मजदूरी दी जा रही है। लेकिन हद तब हो जाती है जब पोस्ट आॅफिस या बैंकों द्वारा भुगतान करने के बावजूद मजदूरों की कमाई को ठेकेदार और बिचैलिया हड़प लेते हैं, जॉब कार्ड एवं मस्टर रॉल में गलत आंकड़े दर्शाये जाते हैं तथा काम भी ठीक ढ़ंग से पूरा नहीं किया जाता है।
ऐसी स्थिति में नरेगा लूट को खत्म करने के लिए कुछ ठोस बदम उठाया पड़ेगा। सबसे पहले सरकारी पदाधिकारियों द्वारा नरेगा योजनाओं में लिया जाने वाला परसेंटेज को तुरंत बंद करना होगा। दूसरा, प्रखण्ड कार्यालय को खत्म कर नरेगा की जिम्मेवारी पारंपरिक ग्राम सभाओं को दिया जाये, जिसमें जॉब कार्ड निर्गत करना, मास्टर रॉल तैयार करना, योजना का चयन, कार्यान्वयन एवं मूल्यांकन का पूर्ण अधिकार ग्राम सभा को हो। इसके अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कठोर कानून बनाना चाहिए जिसमें अपराधियों को सजा के रूप में जेल के साथ-साथ सरकारी खजाने से लूटे गये पैसे का दस गुना वापसी का प्रावधान रखा जाना चाहिए तथा ऐसे मामलो के समयबद्ध तरीके से त्वरित निष्पादन के लिए एक विशेष न्यायलय की व्यवस्था की जानी चाहिए। लेकिन क्या हमारे जनप्रतिनिधि इसके लिए तैयार होंगे? क्योंकि झारखण्ड में लूट संस्कृति उन्ही की देन है।

लगभग पूरे राज्य में नरेगा के कामों में रिश्वत की राशि तय है और सारा खेल बेशर्मी के साथ चल रहा है। नरेगा के अन्तर्गत चलने वाले प्रत्येक योजना में सरकारी पदाधिकारियों का हिस्सा (प्रतिशत में) बंटा हुआ है। इसमें 4 प्रतिशत पंचायत सेवक, 5 प्रतिशत बीडीओ, 5 प्रतिशत जेई और उपर के पदाधिकारियों का हिस्सा है सो अलग। दूसरी लूट मजदूरी को लेकर है। काम के एवज में मजदूरों को कम पैसा दिया जाता है लेकिन मस्टर रोल एवं जॉब कार्ड में उचित मजदूरी दर्शायी जाती है। इसी तरह कार्य दिवस को लेकर भी भारी गड़बड़ी होती है। मजदूरी कम दिनों का भुगतान किया जाता है लेकिन मस्टर रोल एवं जाॅब कार्ड में कार्य दिवस ज्यादा दर्शाया जाता है। इस तरह से मजदूरों का पैसा ठेकेदार और बिचैलिया के जेब में चला जाता है। इतना ही नहीं जाॅब कार्ड बनाने के नाम पर भी मजदूरों से पैसा वसूला जाता है। यानी नरेगा के हर मोड़ पर लूट का चेकपोस्ट लगा हुआ है।

अफसोसजनक बात यह है कि नरेगा लूट के बारे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी को पता है लेकिन लूट लगातार और चरम सीमा पर जारी है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन कहते हैं कि नरेगा बिचैलियों के चंगुल में है। इधर झारखण्ड के राज्यपाल के.एस. नारायणन भी नरेगा को लेकर कई तरह के प्रश्न खड़े कर चुके है तथा सभी जिले कि उपायुक्तों की क्लास भी लेते रहे हैं। राज्यपाल के सलाहकार जी. कृष्णन ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा है कि नरेगा योजना को लागू करने में सबसे भ्रष्ट जेई है तथा बीडीओ उससे भी भ्रष्ट है और इन्हें ग्राम सभा पर भरोसा नहीं हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि नरेगा लूट को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय क्यों नहीं किया जा रहा है? क्या नरेगा लूट का रोना रोने से ही सबकुछ ठीक हो जायेगा? क्या इस लूट के लिए सिर्फ निचले स्तर के सरकारी पदाधिकारी जिम्मेवार है?

यद्यपि नरेगा के तहत ग्रामसभा एवं पंचायतों को कई अधिकार दिये गये हैं लेकिन झारखण्ड में इसे जानबूझकर लागू नहीं किया जाता है। सरकारी पदाधिकारी नरेगा लूट को जारी रखना चाहते हैं, इसलिए पारंपरिक ग्रामसभाओं को मान्यता ही नहीं दे रहे हैं। दूसरी बात यह है कि ठेकेदार, बिचैलिया एवं सरकारी पदाधिकारियों की मिलीभगत होने की वजह से प्रखण्ड कार्यालयत नरेगा लूट का केन्द्र बन चुका है।

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