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नर्मदा की छाती पर एक नया पत्थर

भीष्म जी कहते हैं, ‘‘युधिष्ठिर ! जिन वृक्षों के फल खाने के काम आते हैं, उनको तुम्हारे राज्य में कोई काटने न पावे-इसका ध्यान रखना।’’ - ‘महाभारत-शान्तिपर्व’

जिस समय दिल्ली में सरदार सरोवर बांध की ऊँचाई को 122 मीटर से बढ़ाकर 139 मीटर किए जाने की बैठक चल रही थी, ठीक उसी समय इंदौर के विसर्जन आश्रम में नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री सुश्री मेधा पाटकर 11 अप्रैल 2010 से प्रारंभ होने वाली जीवन अधिकार यात्रा एवं इंदौर स्थित नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) पर होने वाले अनिश्चितकालीन धरने की रूपरेखा समझा रहीं थीं। बैठक में शहर के नागरिक बड़ी संख्या में उपस्थित थे। एकाएक फोन बजा और खबर आई कि देवेन्द्र पांडे की अध्यक्षता में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित पर्यावरणीय उप समिति जो कि सरदार सरोवर एवं इंदिरा सागर परियोजनाओं में पर्यावरणीय सुरक्षा से संबंधित दिशानिर्देशों के अनुपालन की स्थिति के आकलन के लिए गठित की गई थी, द्वारा बांध के जलाशयों में और अधिक पानी भरने से रोक की अनुशंसा के बावजूद सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊँचाई के गेट लगाने की अनुमति दे दी गई है।

कुछ क्षण के लिए मेधा जी के चेहरे पर दुख की रेखाएं उभरी। उनका चेहरा कमोवेश भावशून्य हो गया था। ऐसा लगा कि नर्मदा बचाओ आंदोलन का पिछले 25 वर्षों का संघर्ष जैसे उनकी आंखों में ठहर गया है। कुछ ही क्षणों में संयत होकर उन्होंने हम सबको यह समाचार दिया और पुनः उस सिरे को पकड़ लिया जहां पर वे इस समाचार के आने के पहले थीं।

पांडे कमेटी ने अपनी दूसरी अंतरिम रिपोर्ट में पांच प्रमुख पर्यावरणीय तत्वों का अध्ययन किया है। ये हैं लाभ क्षेत्र उपचार, घाटी के ऊपरी हिस्सों में वनस्पति व जैव विविधता बचाने के प्रयास, लाभ क्षेत्र विकास, क्षतिपूरक वनीकरण एवं मानव स्वास्थ्य। इस पूरी रिपोर्ट को नर्मदा नदी पर बन रहे विविध बांधों को लेकर ट्रिब्यूनल के फैसलों, कानूनों, सर्वोच्च न्यायालय, आपसी समझौते एवं तकनीक पक्षों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इस समिति के अधिकांश सदस्य सरकारी विभागों के पूर्व कर्मचारी रहे हैं। इस रिपोर्ट में उपरोक्त पांचों तत्वों के संबंध में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि तयशुदा मापदंडों के अनुरूप कार्य सम्पादित नहीं किया गया है अतएव न तो बांध की ऊँचाई बढ़ाई जाए और न ही इंदिरा सागर में नहरों का कार्य आगे बढ़ाया जाए।

दूसरी अंतरिम रिपोर्ट की अनदेखी कर सरकार ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस देश में किसी भी समस्या का न्यायपूर्ण हल निकाल पाना अब असंभव हो गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ही नहीं इस देश के पर्यावरण व वन मंत्री जयराम रमेश स्वयं कह रहे हैं कि ‘बांध बनाने वालों ने जो वायदे किए थे, नहीं निभाए। बड़े बांध से नर्मदा की जो हालत है उसे देखकर रोना आता है। नदी की जो दुर्गति हुई है वह अपनी जगह है, आसपास रहने वाली जनजातियां भी बर्बाद हो गई। पहले कहा गया था कि महेश्वर बांध के आसपास डूब में आने वाले गांवों को पुनः बसाया जाएगा, लेकिन एक ही गांव बसाया गया है।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘वे इस प्रोजेक्ट से जुड़े अफसरों से कहेंगे कि दोबारा सर्वे करें और प्रभावित लोगों को बसेरा मुहैया कराएं।’

महेश्वर बांध में तो मात्र 22 गांव का पुनर्वास होना था और इसमें मात्र एक गांव ही अब तक नई जगह बस पाया है। यानि कि मंत्री की ही बात को सच माने तो पुनर्वास का कार्य 0.5 प्रतिशत हुआ है और बांध 95 प्रतिशत बन चुका है। सरदार सरोवर बांध में तो इसके दस गुना से भी अधिक अर्थात करीब 248 गांव डूब में आ रहे हैं और आज तक करीब 40,000 परिवारों का पुनर्वास ही नहीं हुआ है। यानि करीब 2 लाख लोग असमंजस में हैं।

बड़े बांध के लाभ और हानि के गणित के परे कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन पर गौर करना सरकार की संवैधानिक ही नहीं नैतिक जिम्मेदारी भी है। परंतु बड़ी परियोजनाओं में चूंकि बड़ी मात्रा में धन का व्यवहार होता है अतएव ‘हितग्राहियों’ की अपेक्षा रहती है कि ‘निर्माण कार्य’ जल्द से जल्द पूरा कर लिया जाए। इसके बाद जो होगा देखा जाएगा। क्योंकि हमें तो एक ही जीवन जीना है। आने वाले जन्म (यदि पुनर्जन्म में विश्वास है तो) में पता नहीं हमें मनुष्य योनि मिलेगी या नहीं। इसलिए जितना उपभोग, जितना अन्याय, जितना अत्याचार इस जन्म में किया जा सकता है, कर लिया जाए। क्योंकि जवाबदारी के सिद्धांत से भारतीय स्तंभों का कोई लेना देना बचा नहीं है।

मेधा जी ने बैठक के पहले ही कह दिया था कि चूंकि दिल्ली में बैठक प्रधानमंत्री के सीधे हस्तक्षेप के बाद बुलाई गई है अतएव यह तय है कि बांध की ऊँचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी जाएगी। एकाध कोई पुछल्ला लगा दिया जाएगा। ठीक वैसा ही हुआ। नर्मदा बचाओ आंदोलन की और निमाड़ के निवासियों की इस हार ने यह भी सिद्ध कर दिया कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं हुआ है। वह बहुजन-हिताय की बात तो छोड़ ही दीजिए स्वयं अपने बनाए नियमों और सिद्धांतों की अवहेलना से बाज नहीं आ रहा है। संविधान प्रदत्त शक्ति का ऐसा दुरुपयोग भारत के उन प्रत्येक हिस्सों में हो रहा है जहां आदिवासी व वंचित समाज बहुतायत में है। फिर वह उड़ीसा हो या झारखंड या छत्तीसगढ़।

तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद नर्मदा बचाओ आंदोलन के 25 वर्ष के इतिहास में एक भी हिंसक घटना नहीं हुई। यह इसके नेतृत्व का ही चमत्कार और उसकी गांधीवादी मूल्यों में अगाध श्रद्धा का परिणाम है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की सरकार द्वारा अवहेलना के बावजूद यह आंदोलन आज भी पूरी तरह संयमित है।

महाभारत के शांतिपर्व में युधिष्ठिर द्वारा पूछे जाने पर कि राजा को कैसा बर्ताव करना चाहिए? जवाब में भीष्म ने कहा था ‘जिस राज्य में अपने बल के घमंड से राजा दुर्बलों पर अत्याचार करने लगता है, वहां उसके अनुयायी भी इसी प्रकार के आचरण को अपनी जीविका का साधन बना लेते हैं।’ इस पूरे वाक्य में कुछ संज्ञाएं बदल देने के बाद हम पाते हैं कि भीष्म का यह कथन एक ब्रम्हवाक्य की तरह हमारे साथ है। वह हमें चेता रहा है परंतु हम कहीं और ध्यान लगाए बैठे हैं।

नर्मदा घाटी के लोगों की यह क्रमशः पराजय या हार पूरी मानवता की पराजय है। जो आज वहां हो रहा है कल पूरे देश में दोहराया जाएगा। राज्य का निर्माण अपने अशक्त नागरिकों को अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए ही किया गया था परंतु आज इसका उल्टा हो रहा है। नर्मदा घाटी के निवासियों ने विकास के इस आधुनिक मॉडल पर 25 वर्ष पूर्व प्रश्न चिन्ह लगाया था। आज सारा विश्व धीरे-धीरे मजबूरी में ही सही पर मानने लगा है कि अगर मानव सभ्यता को बचाना है तो घाटी द्वारा सुझाए गए मंत्र को मानना ही होगा। यह तय है कि 50 वर्ष पुराने आधे-अधूरे और अवैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर बन रहीं ये परियोजनाएं अंततः समय से पहले धराशायी हो जाएगीं। लाभ क्षेत्र का उपचार न होने से इन बांधों में अतिरिक्त गाद भरेगी और इनका जीवन एक तिहाई रह जाएगा। परंतु लाखों-करोड़ों रुपए का अनावश्यक व्यय करके इन परियोजनाओं का सतत निर्माण सिर्फ प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। यह एक ऐसा आर्थिक प्रश्न है जिसका उत्तर समाज पर्यावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षय व लाखों एकड़ उपजाऊ भूमि को डुबोकर दे रहा है। परंतु नीति निर्माताओं की आंखों पर छाई धुंध कुछ भी नहीं देख पा रही है।

हम सब जानते हैं कि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं उसे गुलामी से मुक्त कराने की पहली लड़ाई हार से ही प्रारंभ हुई थी। नर्मदा घाटी के निवासी पिछले 25 वर्षों से अपने संघर्ष से हम सबको चेता रहे हैं कि बिना जीवनशैली बदले हम किसी मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। नर्मदा घाटी ने पूरे एशिया में खेती की शुरुआत की थी। इस पहले किसान का खेत चिखल्दा में डूब चुका है। हम सबके पास भी बहुत समय नहीं है क्योंकि मानव सभ्यता के लिए एक दो शताब्दियां कोई मायने नहीं रखती। वैसे आपको मेरी बात विरोधाभासी लग सकती है परंतु यह भी सत्य है कि मानव सभ्यता ने लाखों वर्ष की अपनी सिंचित सम्पदा को पिछली दो शताब्दियों में खाली कर दिया है। वैसे भी यदि राज्य स्वयं अपने संसाधनों को नष्ट करने पर जुट जाए तो भीष्म को भी मौन हो जाना पड़ेगा। (सप्रेस)