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नर्मदा से आगे जाती एक लड़ाई...

सरकारी दुराग्रहों के बावजूद भारत में सबसे लंबे समय से चल रहे 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' ने 25 साल पूरे कर लिए हैं. प्रियंका दुबे इस आंदोलन के उतार-चढ़ाव भरे सफर को साझा करते हुए बता रही हैं आज यह आंदोलन किस भूमिका में है.

विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाओं के बीच बसे अपेक्षाकृत शांत निमाड़ अंचल में उस दिन शाम गहराने के साथ-साथ हलचल बढ़ती जा रही थी. पश्चिमी मध्य प्रदेश में महाराष्ट्र की सीमा से सटे इस इलाके में आदिवासियों, किसानों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों के उत्साह से लबरेज जत्थों का जुटना और पहले से मौजूद लोगों का नाच-गाना जारी था. दस बजते-बजते लोगों की हलचलें कम होने लगीं और कुछ ही देर में धड़गांव (महाराष्ट्र) से इन लोगों को लेकर 15 नावों का काफिला नर्मदा के रास्ते मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले की तरफ चल पड़ा. यात्रा के दौरान रात के अंधेरे में लोगों के चेहरों पर उस आंदोलन की ऊर्जा की रोशनी साफ-साफ देखी जा सकती थी जिसे आज 25 साल पूरे हो रहे थे. शांत बहते पानी और रात के धुंधलके में वे गीत फिर उसी जीतने के भरोसे की गूंज के साथ सुनाई दे रहे थे जो नर्मदा घाटी में एक-चौथाई सदी से जारी 'नर्मदा बचाओ अंदोलन के उतार-चढ़ाव भरे सफर और संघर्ष की ऊर्जा को अपने में समेटे हुए है.

इस यात्रा के साथ-साथ पिछले पच्चीस साल से आंदोलन की अगुआ रही मेधा पाटकर शुरुआती दिनों को याद करते हुए हमें बताती हैं, ‘मई, 1988 में जबर्दस्ती विस्थापन से पैदा हो रही समस्याओं के हल के लिए तीन राज्यों से आए 250 कार्यकर्ताओं के समूह की नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी से हुई बातचीत का कोई निर्णय नहीं निकला तब अगस्त में उन्होंने अपनी पहली नियोजित रैली निकाली थी.’

‘नक्सलवादियों ने अब तक क्या हासिल किया है? सरकार सिर्फ उनकी हिंसा को गंभीरता से लेती है. जबकि नर्मदा बचाओ आंदोलन कई मोर्चों पर सफलता हासिल कर चुका है’

इसके बाद आंदोलन कई दौर से गुजरा. अंतर्राज्यीय रैलियां, भूख हड़ताल, दिल्ली और प्रदेश की राजधानियों में धरना, जिला न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक की लंबी कानूनी लड़ाइयों के जरिए लगातार सरदार सरोवर प्रोजेक्ट का विरोध किया गया. इस बीच 2006 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना इस आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. धरना स्थल पर आंदोलनकर्मियों का साथ देने आमिर खान भी पहुंचे और सारे देश का ध्यान इस ओर गया. यही वह समय था जब नर्मदा आंदोलन के माध्यम से विस्थापन, आदिवासियों और किसानों के भूमि अधिकार और बड़े बांधों का विरोध राष्ट्रव्यापी बहस के विषय बन गए.

उड़ीसा से आयोजन में भाग लेने आए 'नेशनल एलाइंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट' के संयोजक प्रफुल्ल सामंत्र कहते हैं, ' यह भारत में जनांदोलनों के लिए प्रबल प्रेरणास्रोत है. पूरी तरह गांधीवादी मार्ग पर चलते हुए इस प्रजातांत्रिक आंदोलन के जरिए पहली बार विस्थापित लोगों के अधिकारों की बात राज्य के सामने रखी गई है.'

आज के हालात में आंदोलन के गांधीवादी- प्रजातांत्रिक बनाम माओवादी-नक्सलवादी स्वरूप पर चर्चा करते हुए मेधा इस बात को पूरी तरह नकारती हैं कि अहिंसक होने की वजह से उनके आंदोलन को सरकार ने कभी गंभीरता ने नहीं लिया. वे कहती हैं, ' आप यह देखिए कि नक्सलवादियों ने अब तक क्या हासिल किया है. सरकार सिर्फ उनकी हिंसा को गंभीरता से लेती है. हमें अपने आंदोलन से कई मोर्चों पर सफलता मिली है.'   

22 अक्टूबर की रात को नावों और ट्रकों से शुरू हुई यात्रा अगले दिन सुबह जब बड़वानी पहुंची तब यहां मौजूद उत्साहित सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण 'घाटी में लड़ाई जारी है', 'नर्मदा बचाओ, मानव बचाओ' जैसे नारे, फूलमालाओं और गाजे-बाजे के साथ महाराष्ट्र और गुजरात से आए अपने साथियों का स्वागत कर रहे थे. इस आयोजन स्थल पर आंदोलन के 25 साल लंबे सफर की सफलताओं और असफलताओं को साझा करते हुए मेधा हमें बताती हैं कि बांध निर्माण में हो रही भारी जनहानि को स्वीकार किया जाना और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को बांध निर्माण में से निवेश हटाने के लिए तैयार करना आंदोलन की प्रमुख सफलताओं में से एक है. वे कहती हैं, 'आंदोलन के माध्यम से न सिर्फ विस्थापन के मुद्दे को भारतीय और वैश्विक स्तर पर केंद्रीय पटल में लाया गया साथ ही सरकारी भ्रामक आंकड़ों की सच्चाई भी सामने आई. पहले 7,500 परिवारों को बांध प्रभावित माना गया था. लेकिन आंदोलन के प्रयासों की वजह से सरकार को मानना पड़ा कि वास्तव में प्रभावित परिवारों की संख्या 51,000 है. इनमें से आज भी 40,000 परिवार डूब क्षेत्र में रहने को मजबूर हैं.'

आंदोलन के कार्यकर्ताओं के अनुसार 25 साल के दौरान बांध का निर्माण न रोक पाना और आदिवासियों के  वन अधिकारों को लागू न करा पाना आंदोलन की असफलता कही जा सकती है. इस बारे में मेधा कहती हैं, ‘हम वन अधिकार अधिनियम और ग्राम सभाओं के सुचारू संचालन के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर पाए जबकि ये मुद्दे सीधे-सीधे विस्थापन से जुड़े हैं.' वे इसकी वजह बताती हैं, 'अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे स्थानीय आंदोलनों में एकजुटता की कमी है, यदि इन्हें एक मंच पर काम करने का मौका मिले तो परिवर्तन तेजी से होगा.'

इस आंदोलन का अपनी व्यापक स्वीकार्यता को राजनीतिक स्तर पर रूपांतरित नहीं कर पाना एक बड़ी कमी माना जाता रहा है. आयोजन स्थल पर लगातार इस बात पर चर्चा हो रही थी कि प्रजातांत्रिक रूप से जनमुद्दों को सरकार के सामने रखने के बावजूद आंदोलन का चुनावी राजनीति से दूर रहना कितना सही है. मेधा इस बारे में कहती हैं, 'राजनीति हमारे लिए अछूत नहीं है पर हम सिर्फ व्यापक स्तर पर ठोस मुद्दों पर जनचर्चा के माध्यम से सहभागी प्रजातंत्र के प्रति राजनीतिक चेतना का विकास करना चाहते हैं.'

शाम के वक्त नारों और गीतों की आवाज धीमी हो चली थी. जो लोग दिन में रैली में इकट्ठा थे, अब वे छोटे-छोटे समूहों में बंटकर बातें कर रहे थे. पूरी यात्रा और आयोजन के प्रति लोगों का उत्साह देखकर यह बात साफ जाहिर हो रही थी कि आंदोलन अब और संगठित है. उद्देश्य और सुस्पष्ट है. लड़ाई अब विस्थापन तक सीमित नहीं है. वन अधिकार, पर्यावरण, प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण जैसे अन्य मुद्दे भी आंदोलन की कार्य सूची में सम्मिलित हो गए हैं.

आयोजन स्थल पर ही हमारी मुलाकात गोखरू से हुई. इस आंदोलन से शुरुआत से ही जुड़े रहे गोखरू को अपने गांव खेरिया बादल के नर्मदा के डूब क्षेत्र में आने की वजह से पुरखों का घर और जमीन छोड़नी पड़ी है. अब वे पास की पहाड़ी पर बची थोड़ी-सी जमीन पर खेती करते हैं. उन्हें नहीं पता कि इतनी-सी जमीन से वे अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे. फिर भी इस आदिवासी-किसान ने एक बात गहराई से रट ली है कि उसे अपनी जमीन के लिए तब तक लड़ना है जब तक न्याय न मिले. गोखरू को भरोसा है कि एक दिन सरकार झुकेगी.

दूर कहीं नर्मदा अब भी बह रही है, दिन रात  में बदल रहा है और लोग गा रहे हैं. संघर्ष जारी है.