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नागरिक बनाम मतदाता नागरिक-- अश्विनी भटनागर

अभी हाल में उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों के बारे में अलग-अलग शहरों और कस्बों के मतदाताओं से बातचीत की थी कि वे अपना वोट किस आधार पर डालेंगे। लगभग सभी मतदाताओं ने कहा था कि वे अपनी पसंदीदा पार्टी को वोट देंगे, किसी व्यक्ति को नहीं और उनका मत उसी पार्टी को जाएगा, जिससे उनको निजी लाभ मिलने की सबसे ज्यादा संभावना है। बातचीत के दौरन यह साफ उभर कर आया कि मतदाता अपना फायदा पहले देख रहे थे, चाहे उससे अन्य नागरिकों का नुकसान क्यों न हो रहा हो। दूसरे शब्दों में, निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए मतदाता अन्य नागरिकों के अधिकारों के अतिक्रमण के लिए राजी थे। व्यक्तिगत स्तर से लेकर सामूहिक स्तर तक यह सोच हावी थी। धर्म, जाति, वर्ग आदि के आधार पर वे अपने मताधिकार का प्रयोग सिर्फ उस दिशा में करना चाहते थे, जिससे उनका तुरंत अधिक से अधिक लाभ हो सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे दूसरे व्यक्ति या गुट के नुकसान में ही वे अपना फायदा तलाश रहे थे। वे अपने नागरिक कर्तव्यों से कम और मतदाता अधिकारों से ज्यादा प्रेरित थे।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिर्फ प्रामाणिक नागरिक मतदाता हो सकता है। मतदान करके वह लोक प्रतिनिधियों का चुनाव करता है और इनसे प्रदेश और देश की सरकार गठित होती है। परिभाषा के तौर पर अगर देखा जाए तो लोकतंत्र नागरिक हितों का संरक्षण जन-प्रतिनिधियों के जरिए संस्थाओं से करता है, जिसमें लोकतंत्र के चारों खंभे- विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस- शामिल हैं। ये सभी व्यवस्थाएं अगर एक तरफ स्वशासी हैं, तो दूसरी तरफ एक-दूसरे पर निर्भर भी हैं, पर सामान्य तौर पर विधायी प्रबंध की भूमिका ही तय करती है कि बाकी तीन व्यवस्थाएं अपना दायित्व किस तरह और किस असर से निभाएंगी।नागरिक ही लोकतंत्र की पहली र्इंट है और लोकतंत्र की भव्य इमारत भी। उसी से लोकतंत्र शुरू होता है और उसी के लिए वह सब प्रबंध और तंत्र जुटाए जाते हैं, जो अंतत: उसके नागरिक हितों का लगातार विकास करते जाते हैं। दूसरे शब्दों में, पहले नागरिक होता है और फिर वह मतदाता बनता है। इसके उलट होने की संभावना सैद्धांतिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं है। पर क्या व्यावहारिक सच्चाई यही है? क्या चुनाव के दौरान नागरिक और मतदाता एक ही व्यक्ति होता है या फिर वह दो अलग-अलग शख्सियत हो जाता है? क्या मतदाता का विवेक नागरिक विवेक से अलग होता है? क्या वह एक ही सिक्के का दो पहलू है, जो चुनाव के समय एक तरह से सामने आता है, और बाकी वक्त में दूसरी तरह से? क्या मतदाता नागरिक होने की आड़ लेकर अपने मत का प्रयोग ऐसे करता है कि नागरिकता के तमाम मूल्य, कर्तव्य और प्रबंध ध्वस्त हो जाते हैं? भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शुरू से ऐसा रुझान दिखता आ रहा है, जिसमें मतदाता अपने नागरिक होने पर हावी होता रहा है। पहले कम था, अनजाने में था, पर पिछले तीन दशक से जानबूझ कर काफी प्रबल हो गया है। इसे वोट बैंक की राजनीति कहा जाता है और इसको मतदाता और राजनीतिक दल कभी मिल कर, तो कभी अलग-अलग खूब खेल रहे हैं।

 


इस राजनीति के अंतर्गत मतदाता और नागरिक होने के बीच भेद किया जाता है, दरार डाली जाती और फिर दोनों के बीच दूरी निरंतर बढ़ाने की कोशिश की जाती है। जितनी प्रदेश और देश का नागरिक होने और नागरिक कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता में कमी आती जाती है उतनी ही वोट की राजनीति प्रबल होती जाती है। मतदाता का विवेक इससे प्रभावित होता जाता है और अंतत: वह उस स्तर पर पहुंच जाता है, जहां वह अपने को भीड़ के लिए समर्पित कर देता है। समझदार नागरिक को विवेकहीन मतदाताओं की आंदोलित भीड़ में परिवर्तित करना वोट पॉलिटिक्स का लक्ष्य है। इसके लिए एक व्यक्ति को अपने में ही दो व्यक्तित्व होने का आभास दिलाना जरूरी है- नागरिक का व्यक्तित्व और मतदाता का रूप। नागरिक होने के नाते हम सब जाति, धर्म, वर्ग आदि की राजनीति से दूर रहना चाहते हैं। हमें अच्छी तरह मालूम है कि बंटवारे की राजनीति लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। सर्वहित ही सर्वप्रथम है और वर्गहित या निजहित नुकसानदेह है। पर फिर भी जब हम मतदान करने जाते हैं, तो अपनी नागरिक सोच को घर छोड़ कर जाते हैं। मतदाता की आभासी सोच हमारी वास्तविक नागरिक विवेक पर हावी हो जाती है।

 

 


वास्तव में मतदाता राजनीति आभासी राजनीति है। इसमें आभासी तौर से तो हम अपना मत डालने के लिए स्वतंत्र हैं, पर असल में जुमलों के गुलाम हो जाते हैं। अपने नागरिक होने की वास्तविकता से हट जाते हैं। सिर्फ मतदाता बन जाते हैं, जो वक्रपटुता के जाल का जंजाल अपने लिए खड़ा कर लेता है। राष्ट्रवाद की चुनावी वाग्मिता हो या संप्रदायवाद-जातिवाद की, वोट की राजनीति दिलों की आभासी दूरी नापती है और फिर अपने हिसाब से उसका नक्शा बना देती है, जिसके बॉर्डर पर वह अस्मिता की बाड़ लगा देती है। हम इस बाड़ में फंस जाते हैं, भेड़-बकरियों की तरह। केवल मतदाता बन कर रह जाते हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव हों, विधानसभा के या फिर संसद के, स्थिति सबमें एक-सी है। हम निजी स्वार्थ को अपने समूह के स्वार्थ से जोड़ते जा रहे हैं। अपनी नागरिकता का दायरा छोटा करते जा रहे हैं, सर्वजन से हमजन मतदाता हो जाने की वजह से हमने वोट बैंक की राजनीति को देश में सर्वव्यापी कर दिया है। अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में हम अपने लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे हैं। वास्तव में हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदान करना हमारे नागरिक व्यक्तित्व की महज एक क्रिया है। मतदाता होना हमारा वास्तविक व्यक्तित्व नहीं है और अगर हम ऐसा मानते हैं या हमें ऐसा आभास होता है कि मतदाता और नागरिक अलग-अलग शख्सियत हैं, तो हमें अपनी विवेकशीलता का गंभीर मूल्यांकन करना चाहिए। पारिभाषिक संदर्भ हो या फिर वास्तविक स्थिति, हमको अपने को नागरिक की भूमिका में भी देखना होगा और इसी रूप में अपने मत का प्रयोग करना होगा। नागरिक के पास अपने मत का न प्रयोग करने का विकल्प है, पर मतदाता नागरिकता के मूल्यों और कर्तव्यों से नहीं हट सकता।